Friday, December 7, 2012

बड़े मौके पर काम आता है 'साम्प्रदायिकता' का ब्रह्मास्त्र

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मंजुल का कार्टून
हिन्दू में केशव और सुरेन्द्र के कार्टून

सतीश आचार्य का कार्टून
                                     
जब राजनीति की फसल का मिनिमम सपोर्ट प्राइस दे दिया जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर संसद के दोनों सदनों में हुई बहस के बाद भी सामान्य व्यक्ति को समझ में नहीं आया कि हुआ क्या? यह फैसला सही है या गलत? ऊपर नज़र आ रहे एक कार्टून में कांग्रेस का पहलवान बड़ी तैयारी से आया था, पर उसके सामने पोटैटो चिप्स जैसा हल्का बोझ था। राजनेताओं और मीडिया की बहस में एफडीआई के अलावा दूसरे मसले हावी रहे। ऐसा लगता है कि भाजपा, वाम पंथी पार्टियाँ और तृणमूल कांग्रेस की दिलचस्पी एफडीआई के इर्द-गिर्द ही बहस को चलाने की है, पर उससे संसदीय निर्णय पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं। समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों ने ही एफडीआई का विरोध किया है, पर विरोध का समर्थन नहीं किया। इसका क्या मतलब है? यही कि देश में 'साम्प्रदायिकता' का खतरा 'साम्राज्यवाद' से ज्यादा बड़ा है। 'साम्प्रदायिकता' और 'साम्राज्यवाद' के दो खतरों को लेकर अभी तक वाममोर्चे की राजनीति चलती थी। सन 2008 में न्यूक्लियर डील का विरोध करते वक्त वाम मोर्चे को लगा कि साम्राज्यवाद का खतरा साम्प्रदायिकता से ज्यादा बड़ा है। अपनी राष्ट्रवादी छवि के कारण भाजपा के सामने भी साम्राज्यवाद का खतरा बड़ा है। यानी 'साम्प्रदायिकता' और 'साम्राज्यवाद' के खतरे मौज़ूद तो हैं, पर देश के राजनीतिक दलों ने उन्हें अपने-तरीके से बाँट लिया है।

बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को इस वक्त साम्प्रदायिकता ज्यादा खतरनाक लगती है। मोटे तौर पर देखें तो देश की राजनीति में एफडीआई को लेकर हाहाकार है। कांग्रेस को छोड़ दें तो कोई पार्टी उसके समर्थन में नहीं है, पर वोट देते समय सबकी राजनीति में विराम लग जाता है। क्या यह संसदीय राजनीति का विद्रूप है, या साम्प्रदायिकता के वास्तविक खतरे के प्रति सावधानी है? इस महीने गुजरात में चुनाव होने वाले हैं। वहाँ की जनता फैसला जो भी करे, पर लगता है कि दिल्ली और गुजरात की राजनीति के मुहावरे अलग-अलग हैं। क्या कारण है कि जनता के मुद्दे और राजनीतिक दलों के मुद्दे एक नहीं हैं?

बहुजन समाज पार्टी ने एफडीआई पर भाजपा का साथ न देकर क्या आत्मघात कर लिया है? क्या देश की जनता अब उसे माफ नहीं करेगी? बसपा ही क्यों असल अपराधी तो कांग्रेस है। क्या एफडीआई के सवाल पर उसका सूपड़ा साफ हो जाएगा? इन सवालों के जवाब में देश का राजनीतिक सच छिपा है। इस वोट से बसपा को कोई नुकसान होने वाला नहीं है। अलबत्ता इस बहाने कांग्रेस यदि सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों के कर्मचरियों के प्रमोशन के लिए संविधान संशोधन विधेयक पर सदन में बहस कराने को तैयार हो जाए तो बसपा का फायदा है। चूंकि यह संविधान संशोधन विधेयक होगा, इसलिए इसके पास होने की संभावना कम है, पर बसपा के लिए बहस ही काफी है। समाजवादी पार्टी अपनी घोषित नीति के तहत उसका विरोध करेगी। दोनों के आपसी विरोध की प्रक्रिया भी पूरी हो जाएगी और कुछ होगा भी नहीं।

एफडीआई की बहस के बाद सेंसेक्स 19500 पार कर गया है और रुपए की कीमत बढ़ने लगी है। लगता है साम्राज्यवाद से हमारी अर्थव्यवस्था के संचालकों की साठ-गांठ है। भाजपा की 'साम्प्रदायिकता' भारतीय राजनीति में हाल के दिनों का सबसे सफल ब्रह्मास्त्र है। जब कुछ और काम न करे इसे चला दो। अलबत्ता भारतीय राजनीति के विद्वत्जन साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता की डांड़ामेड़ी पर अनुसंधान कर रहे हैं, उधर कांग्रेस अपनी स्क्रिप्ट के अनुसार इस सोप ऑपेरा का अगला एपीसोड तैयार कर रही है। कहानी दो बाँके का संवाद याद आता है, मुला स्वांग खूब रहा। 

4 comments:

  1. कमाल का विचारोत्तेजक लेख है सर बधाई आपको !

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  2. लोकतांत्रिक विरोध की नई परिभाषा गढ़ते मुलायम, माया, करुणानिधि की जय हो.!! और इनको संसद तक पहुँचाने बाली जनता की भी जय हो.!!
    देश-दुनिया को हिन्दू आतंक से ज्यादा खतरा है, अगर भाजपा सत्ता मेँ आयी तो भारत के साथ-2 विश्वशांति को भी खतरा होगा, अशांति की मुख्य वजह तो यही हैँ.!!!

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  3. अपनी अपनी प्रकृति है अपना अपना चाव

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