यह लेख 13 मई के दैनिक जनवाणी में छपा था। इसके संदर्भ अब भी प्रासंगिक हैं, इसलिए इसे यहाँ लगाया है।
दैनिक जनवाणी में प्रकाशित
हार कर भी जीत सकता है वाम मोर्चा
कल्पना कीजिए कभी चीन में चुनावों के मार्फत सरकार बदलने लगे तो क्या होगा? चीन में ही नहीं उत्तरी कोरिया और क्यूबा में क्या होगा? यह कल्पना कभी सच हुई तो सत्ता परिवर्तन के बाद का नज़ारा कुछ वैसा होगा जैसा हमें पश्चिम बंगाल में देखने को मिलेगा। बशर्ते परिणाम वैसे ही हों जैसे एक्ज़िट पोल बता रहे हैं। देश का मीडिया इस बात पर एकमत लगता है कि वाम मोर्चा की 34 साल पुरानी सरकार विदा होगी। ऐसा नहीं हुआ तो विस्मय होगा और मीडिया की समझदारी विश्लेषण का नया विषय होगी।
जिन पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आने वाले हैं उनमें बंगाल पर अलग से विचार करने की ज़रूरत है। एक तो इसलिए कि वहाँ 34 साल वाम मोर्चे की सरकार कैसे चल गई। और दूसरे यह कि अब ऐसा क्या हो गया कि उस सरकार का मृत्युलेख पूरे आत्म विश्वास के साथ लिखा जा रहा है। केरल में भी वाम मोर्चा की हार के आसार हैं, पर उसमें और बंगाल में समानता नहीं है। केरल को सरकारें बदलने का अनुभव है। दूसरी ओर बंगाल में सीपीएम ने निरंतर सत्ता में रहते हुए जिस पार्टी सोसायटी की रचना की है उसका रूपांतरण अब कैसे होगा, यह देखना रोचक होगा। वहाँ एक नई पीढ़ी आ चुकी है जो सरकार माने वाम मोर्चा ही समझती है।
देश की आज़ादी के वक्त एक कम्युनिस्ट पार्टी होती थी। आज अनेक हैं। माकपा भी उनमें एक है। यह पार्टी 11 अप्रेल 1964 में बनी और देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। भाकपा के तीन वैचारिक आधारों के विरोध में यह पार्टी खड़ी हुई थी। भारतीय राष्ट्र राज्य के प्रति नरमी, संसदीय राजनीति के प्रति झुकाव और सोवियत संघ से लगाव। सोवियत संघ अतीत हो गया, पर बाकी दो बातें बचीं। सीपीएम की सफलता या विफलता उसके क्रांतिकारी स्वरूप और संसदीय राजनीति में उसकी भूमिका के मद्देनज़र देखी जाएगी। साथ ही उसकी विफलता आने वाले वक्त के किसी संसदीय-साम्यवाद के अन्वेषण का दरवाज़ा भी खोलेगी।
1977 में वाम मोर्चा सरकार बनाने के पहले सीपीएम बंगाल में संयुक्त मोर्चे की दो सरकारों का नेतृत्व कर चुकी थी। 1967 से 1970 के बीच माकपा ने जिस तेज भूमि-सुधार की योजना बनाई उसे केन्द्र सरकार ने सफल नहीं होने दिया और दोनों बार संयुक्त मोर्चा सरकारें बर्खास्त कीं। सीपीएम पर दोहरा दबाव था। एक ओर इसी पार्टी से टूटे लोगों ने सीपीआई(माले) बनाई थी, जिसका दबाव था कि भूमि पर कब्जा तेजी से हो। वहीं संसदीय राजनीति का दबाव था कि यह काम धीमे और शांतिपूर्ण तरीके से हो। मार्च 1970 में दूसरी सरकार की बर्खास्तगी के बाद सात साल तक माकपा ने गाँवों में संगठित काम किया। इसका लाभ उसे 1977 के चुनाव में मिला, पर बंगाल का औद्योगिक विकास निगेटिव हो चुका था।
सन 1964 में सीपीएम जिस दिशा पर जाने के लिए बनी थी वह 1977 के बाद बदल गई। अब पूँजी निवेश को बढाने का दबाव था। बंद होते कारखानों को बचाने की चुनौती थी। इसके लिए अपने ही उग्र श्रमिक संगठनों पर लगाम लगाने की ज़रूरत पैदा हुई। मुख्यमंत्री ज्योति बसु को अमेरिका जाकर विश्व बैंक से कर्जा माँगने और बहुराष्ट्रीय पूँजी निवेश में मदद करने की प्रार्थना करनी पड़ी। इसके साथ ही सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में बटाईदारों का पंजीकरण शुरू किया। ऑपरेशन बर्गा ने बटाईदारों के भीतर आत्मविश्वास पैदा किया। ग्रामीण विकास के तमाम कार्यक्रम पंचायतों को सौंप दिए गए। भूमि सुधार, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्धियों के कारण ही वाम मोर्चा को उसके बाद लगातार चुनाव जीतने में दिक्कत नहीं आई। पर कम्युनिस्ट व्यवस्था तो बेहतर औद्योगिक आधार माँगती है। लेनिन की टू-स्टेज स्ट्रेटजी कहती है कि समाजवादी कार्यक्रमों को तब तक के लिए स्थगित रखा जाए जब तक हालात पूरी तरह तैयार न हों।
केवल किसी एक राज्य में निरंतर सत्तारूढ़ रहना अंतर्विरोधों को जन्म भी देता है। वाम मोर्चा के राजनैतिक अंतर्विरोध बढ़ते गए। सीपीएमएल के साथ उसके सबसे अच्छे कार्यकर्ता चले गए। वे अब विरोधी थे इसलिए उनका दमन भी करना पड़ा। पार्टी संगठन गाँव-गाँव में फैल गया। उसने एक नई संस्कृति को जन्म दिया। जो हमारे साथ हैं वे दोस्त। और जो हमारे साथ नहीं वे दुश्मन हैं। प्रशासन को पार्टी प्रशासन के अधीन कर दिया गया। दरोगा, मुंशी, अध्यापक और डॉक्टर सबने पार्टी की शरण ली। नहीं ली तो दुश्मनी मोल ली। यहीं से ममता बनर्जी के उद्भव की कथा शुरू होती है।
2006 के चुनाव में वाम मोर्चा को जबर्दस्त जीत मिली। इसके बाद प्रदेश के औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण का कार्यक्रम शुरू हुआ। आईटी सेक्टर को हड़तालों से बचाने के लिए उसे ट्रेड यूनियनों से बाहर रखा गया। बंगाल के औद्योगिक विकास को रोकने में जिस पार्टी का हाथ था, वही अब ज़बरन औद्योगीकरण का फॉर्मूला लेकर आई थी। सबसे पहले नन्दीग्राम में राज्य-प्रायोजित हिंसा का खूनी रूप देखने को मिला। उसके बाद सिंगुर में टाटा की नैनो का करखाना वापस गया। जंगल महल में माओवादियों के साथ माकपा कार्यकर्ताओं के टकराव ने ऐसी शक्ल ले ली कि वहाँ चुनाव-बूथ बनाना मुश्किल हो गया। उसी इलाके में इस बार 85 फीसदी तक मतदान हुआ है। माकपा के प्रति गुस्से का धधकता ज्वालामुखी लगता है इस बार बुरी तरह फूट पड़ा है।
पत्रकार शेखर गुप्ता ने इस चुनाव के दौरान बंगाल के इलाकों का दौरा करने के बाद लिखा है कि वहाँ के गाँवों में भूख जैसी चीज़ दिखाई नहीं पड़ती। कोई भिखारी नहीं। हैंड पम्प एकदम चौकस चलते हैं। प्राइमरी स्कूल की बिल्डंग चौकस, अस्पताल चौकस, सड़कें ठीक-ठाक, सब लोग ठीक से कपड़े पहने, एक भी व्यक्ति नंगे पैर नहीं। फिर लोग नाराज़ क्यों हैं? जल्दी ही बात साफ हो गई। जिस इलाके में पानी नहीं था वहाँ पानी पहुँच गया। टंकी पर पार्टी का लाल झंडा लग गया। जो हमारे साथ हैं उन्हें मिलेगा पानी। माकपा कार्यकर्ताओं ने पूरे बंगाल में अपने और पराए की संस्कृति को जन्म दिया।
बदलाव सबके लिए नहीं आया। ममता बनर्जी इसीलिए कहतीं हैं कि यह आज़ादी की लड़ाई है। ममता बनर्जी ने नारा दिया है बदला नहीं बदल। यदि वे जीतीं तो उनकी सबसे बड़ी परीक्षा यही होगी। सरकार बदले, पर किसी से बदला न लिया जाय। बल्कि साबित यह किया जाय कि सरकार सबकी है। सिर्फ किसी एक पार्टी के कार्यकर्ताओं की नहीं। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी प्रशासन के अव-राजनीतिकरण की। समूचा प्रशासन राजनैतिक है। उसे राजनीति से अलग करना होगा। इस लिहाज से नई सरकार के सामने काम बेहद मुश्किल है।
बंगाल का चुनाव सबके लिए सबक साबित होगा। बंगाल ने ग्रामीण विकास, भूमि सुधार, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मामलों में बेहतर काम किया है। यह काम कहीं भी होना चाहिए, खासकर उन इलाकों में जहाँ पिछड़ेपन की वजह से ही नक्सली आंदोलन खड़ा हुआ है। इसके साथ ही शहरीकरण, व्यवसायिक शिक्षा और औद्योगीकरण का विस्तार होना चाहिए। बंगाल के कस्बों-गाँवों की दीवारों पर राजनैतिक नारे तो होते हैं, व्यावसायिक वस्तुओं के विज्ञापन नहीं। बेशक अति न हो, पर उनकी भी ज़रूरत है। जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान वगैरह में प्राइवेट इंजीनियरी और मेडिकल कॉलेजों के बोर्ड नज़र आते हैं वैसे बंगाल में नहीं मिलते।
बंगाल के परिणाम सबको विचार करने का मौका देंगे। माओवादी राजनीति को भी। उसका संसदीय राजनीति में विश्वास नहीं है, पर उसके पास कोई वैकल्पिक राजनीति नहीं है। यूरो-कम्युनिज्म की तरह इंडो-कम्युनिज्म का विकास भी सम्भव है। माकपा संसदीय चुनाव में हिस्सा लेती रही है और सफलता के साथ 34 साल तक एक राज्य में सरकार चला चुकी है। उसकी पराजय भी हुई तो वह मजबूत विपक्ष की भूमिका में होगी। और अपनी हार को जीत में बदल सकती है।
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