अन्ना हजारे के समानांतर देश में दो और गतिविधियाँ चल रहीं हैं, जिनका हमारे लोकतंत्र से वास्ता है। एक है पाँच राज्यों में विधानसभा के चुनाव और दूसरे टू-जी, सीडब्ल्यूजी और आदर्श सोसायटी जैसे मामलों कर कानूनी कारवाई। देश में लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था को लेकर कई कोणों से सवाल उठे हैं। अन्ना हजारे ने राजनैतिक प्रतिष्ठान पर हमला करके बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। अन्ना ने कहा कि लोग सौ के नोट, साड़ी और दारू की एक बोतल पर वोट देते हैं। मैं नहीं लड़ पाऊँगा चुनाव। इसपर दिग्विजय सिंह ने सवाल पूछा है कि क्या सारे वोटर बेईमान हैं? संयोग है कि विकीलीक्स के सौजन्य से इन्हीं दिनों संसदीय कैश फॉर वोट का मसला भी उठा है। तमिलनाडु के चुनाव में पार्टियों ने जनता को टीवी, मिक्सर-ग्राइंडर, वॉशिंग मशीन से लेकर मंगलसूत्र तक देने का वादा किया है। एक ओर सिविल सोसायटी बनाम राजनीति का शोर है, दूसरी ओर ‘सब भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे’ पुराण का अखंड पाठ चल रहा है, हम सब चोर हैं के सम्पुट के साथ। देश का मस्त-मीडिया विश्व कप क्रिकेट, मोमबत्तियाँ सुलगाती सिविल सोसायटी और आईपीएल को एक साथ निपटा रहा है।
हमारी एक-दूसरे से शिकायतों में क्या कोई दम है? हजारे ने सौ के नोट की बात कहने के बाद यह भी कहा कि मैं ऐसे में चुनाव नहीं लड़ सकता। मेरी तो ज़मानत जब्त हो जाएगी। उन्हें लगता है कि यह संसद ऐसी है तो वहाँ से लोकपाल बिल कैसे बनकर निकलेगा? और निकल भी गया तो क्या होगा? मुम्बई पर 26/11 के हमले के बाद फिल्म अभिनेत्री सिमी ग्रेवाल ने कहीं कहा था कि हम टैक्स देना बंद कर देंगे। अन्ना के पीछे फिल्म जगत भी है और तमाम कम्प्यूटर इंजीनियर, बिजनेस मैनेजर, वकील और शहरी लोग। नरेन्द्र मोदी से जुड़े अन्ना के वक्तव्य पर विवाद चल रहा है। क्या यह पनीला आंदोलन है? बाब रामदेव, किरन बेदी और अरुण केजरीवाल को कोई नहीं मिला तो वे अन्ना को ले आए? या अन्ना की छवि को बिगाड़ने की साजिश है? कुछ लोगों को शांति भूषण और प्रशांत भूषण की पिता-पुत्र की जोड़ी पर भी आपत्ति व्यक्त है। हम भूल रहे हैं कि इस आंदोलन को जनता का जबर्दस्त समर्थन हासिल था।
कुछ लोगों का अनुमान है कि यह कांग्रेस और अन्ना-मंडली की मिली-भगत से हुआ है। वर्ना 4 अप्रेल को जिस मांग को नामंजूर कर दिया उसे इतनी जल्दी कैसे मान लिया गया। बहरहाल जो भी है हमें अगले कुछ महीने इंतजार करना होगा। सबसे पहली चुनौती है लोकपाल बिल का ड्राफ्ट बनना। फिर इसपर सभी पार्टियों की सहमति बनानी होगी। उसके बगैर यह विधेयक दोनों सदनों से पास नहीं हो पाएगा।
भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह की स्वतंत्र संस्था बनाने की बात है, उसकी झलक हांगकांग के इंडिपेंडेंट कमीशन अगेंस्ट करप्शन में मिलती है। हांगकांग का आर्थिक विकास ब्रिटिश-व्यवस्था के अंतर्गत ही हुआ था। पर वहाँ घूस-खोरी और भ्रष्टाचार का बोलबाला था। इस आयोग की स्थापना के बाद कठोर सजाओं का दौर चला और आज हांगकांग दुनिया के सबसे साफ-सुथरे इलाकों में से एक है। ऐसा ही उदाहरण सिंगापुर का है, जहाँ बेहद कड़ी सजाएं दी जातीं हैं। पर हांगकांग और सिंगापुर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के नाम से नहीं जाने जाते। हमारी चुनौती है लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हुए बदलाव। क्या लोकतंत्र और सुशासन में कोई टकराव है? अफगानिस्तान के तालिबानी समाज में भी कड़ी सजा दी जाती हैं। इस वजह से वहाँ अपराध कम होते हैं। क्या हम वैसा ही समाज चाहते हैं?
अन्ना हजारे क्या अलोकतांत्रिक हैं? क्या सिविल सोसायटी लोकतंत्र विरोधी है? तब लोकतंत्र समर्थक कौन है? हमारे लोकतंत्र का बिजनेस मॉडल क्या है? पिछले तीन दशक के लोकतांत्रिक बदलाव को देखें तो आप पाएंगे कि राजनैतिक दलों ने हमेशा सुधारों का विरोध किया। सबसे पहले टीएन शेषन का मज़ाक बनाया गया। वोटर्स आइडेंटिटी कार्ड की व्यवस्था पर उन्होंने अतिशय जोर दिया तभी वह व्यवस्था कायम हो पाई। आज सरकार को नागरिक परिचय पत्र का महत्व समझ में आया है और नंदन नीलेकनी यूआईडी पर काम कर रहे हैं, पर वोटर कार्ड की व्यवस्था सिर्फ इसलिए पक्की तरह लागू नहीं हो पाई क्योंकि चुनाव-व्यवस्था में सुधार हमारा राजनैतिक एजेंडा नहीं है। प्रत्याशियों के लिए हलफनामे दायर करने की अनिवार्यता का हर दल ने विरोध किया। यह व्यवस्था तभी लागू हो पाई जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सिर पर तलवार लटका दी। बूथ कैप्चरिंग और फर्जी वोटों पर किसी न किसी हद तक तो लगाम लगी है। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को लेकर आज तक आपत्तियाँ हैं। पर इसे याद रखना चाहिए कि चुनाव आयोग भारतीय लोकतंत्र की बड़ी उपलब्धि है।
अरसे से राजनैतिक चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की बात कही जा रही है। यह काम पूरा नहीं हो पा रहा है। इस काम में भी सभी दलों की भागीदारी चाहिए। देश में जितने भी घोटाले हुए हैं उनमें से अधिकतर के पीछे पार्टी या नेता को दिया गया चंदा है। पार्टियों के आयकर के ब्यौरे आपको नहीं मिलेंगे। आरयीआई के कारण जनता को सवाल करने के मौके मिले हैं, पर प्रकारांतर से आरटीआई को कमज़ोर करने की बार-बार कोशिश की जाती है। बेशक लोकतंत्र और चुनाव व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है, पर इस व्यवस्था में भी तो सुधार होना चाहिए। सभी दलों को हित एकसाथ हो जाएंगे तो सवाल कौन उठाएगा?
हाल में कैश फॉर वोट का सवाल उठने पर प्रधानमंत्री ने कहा कि पिछली संसद के कार्यकाल में हुए मामलों पर सन 2009 में हुए चुनाव में जनता वोट दे चुकी है। अब उन बातों को नहीं उठाया जाना चाहिए। अन्ना-विरोधी प्रचार में भी यही कहा जा रहा है कि जनता चुनाव में अपनी राय तय कर देती है। जो चुनाव नहीं लड़ते उनकी हैसियत क्या है। पर क्या समूची राजनीति चुनाव तक सीमित है? चुनाव के पहले और बाद में क्या कुछ नहीं होता? हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वालों को क्या जनता ने चुनकर भेजा था कि जाओ अंग्रेज सरकार से लड़ो? अन्ना की एक माँग जनता के अपने प्रत्याशी को वापस बुलाने के अधिकार की भी है। क्या यह माँग गैर-कानूनी है।
इसमें दो राय नहीं कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसकी प्रक्रियाओं के मार्फत ही बदलाव लाया जा सकता है। पर गांधी के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर सिंगुर तक आंदोलनों का लम्बा इतिहास है। आंदोलनों की नौबत ही न आए ऐसा प्रक्रियात्मक लोकतंत्र क्या हमारे देश में कायम हो गया है? यदि वह नहीं है तो आंदोलनों की मर्यादा रेखा कहाँ खींची जा सकती है। अनुशासन और मर्यादा की अपेक्षा हमें मुख्यधारा की राजनीति से भी करनी चाहिए। दूसरे सत्ता की राजनीति से इतर सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की राजनीति भी हमें चाहिए। सिविल सोसायटी का मखौल उड़ाना आसान है, पर हाल के सकारात्मक बदलावों में क्या हम सिविल सोसायटी की भूमिका नहीं देख पाए? आरटीआई, मनरेगा, शिक्षा और भोजन के अधिकारों की स्थापना में सिविल सोसायटी की भूमिका भी रही है। इरोम शर्मीला से लेकर विनायक सेन तक के मामलों पर क्या सिविल सोसायटी ने समर्थन नहीं दिया? हाँ सच यह भी है कि न तो समूची राजनीति कलंकित है और न प्रशासन। आखिर संवैधानिक संस्थाओं ने ही टू-जी मामले की पोल खोली। उसमें मीडिया से लेकर सिविल सोसायटी सबका समर्थन मिला। यह जनता की आवाज है। इसमें अंतर्विरोध हैं भी तो उन्हें वृहत्तर दृष्टिकोण से सुलझाना चाहिए। एक सफल लोकतंत्र की सिविल सोसायटी, राजनीति और गवर्नेंस में टकराव नहीं समन्वय होता है।
जनवाणी में प्रकाशित
निर्वाचित सदस्यों को वापिस बुलाने की मांग सर्वप्रथम १९७५ में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने उठायी थी.पार्टीयां एक दुसरे पर इल्जाम लगा कर जनता को गुमराह कर रही हैं.वास्तविकता से ध्यान हटवाने हेतु यह आंदोलन खडा कराया गया है.
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