Monday, April 4, 2011

इस कप में भारत के लिए भी कुछ है?



हमारे अपार्टमेंट के कम्युनिटी हॉल में बड़े स्क्रीन पर मैच दिखाने की व्यवस्था थी। बाहर छोले-भटूरे, पकौड़ियों, कोल्ड और कॉफी का इंतजाम था। बच्चों के स्कूलों की छुट्टी थी। साहब लोगों में से ज्यादातर की छुट्टी थी। जिनकी नहीं थी उन्होंने ले ली थी। उनके साहबों ने भी ली थी। शोर से पता लग जाता था श्रीलंका का एक और गया। बाद में खामोशी से पता लग गया कि जयवर्धने ने कैसी ठुकाई की है। सब्जी लेने गए तो वहाँ ठेले के बराबर टीवी लगा था। दवाई की दुकान में भी था। मदर डेयरी में भी लगा था। घर आते-आते रास्ते में एक-एक रन का हिसाब मिल रहा था। स्पोर्ट्स चैनल से हटाकर न्यूज़ चैनल लगाया तो उसमें धोनी और संगकारा के बीच टॉस की कंट्रोवर्सी पर डिस्कशन चल रहा था। टू-जी स्पेक्ट्रम पर सीबीआई की चार्जशीट पर किसी की निगाहें नहीं थीं।

मध्यवर्गीय भारत के जीवन में क्रिकेट ने जबर्दस्त जगह बना ली है। 28 साल पहले 25 जून 1983 को जब भारत विश्व कप पहली बार जीता था, तब उस शाम लोग छोटे-भठूरों के साथ मैच नहीं देख रहे थे। वह मैच भी रात में खत्म हुआ, पर कहीं आतिशबाजी नहीं थी। वह जीत आज की जीत से बड़ी थी, क्योंकि उस टीम के खिलाड़ी सितारे नहीं थे। लॉर्ड्स के मैदान में कोई राष्ट्रपति नहीं था। न रजनी था, न गजनी। माल्या और मुकेश अम्बानी भी नहीं थे। बहरहाल वक्त बदला। हमने अपने खिलाड़ियों का सम्मान करना सीखा। दुनिया में अपना सिक्का कायम किया। इस पर गर्व करने में कुछ भी गलत नहीं। एक राष्ट्र के रूप में जब हम एक साथ आते हैं, तो लाजवाब होते हैं।

कुछ लोग इसे उन्माद कहते हैं। कुछ लोग उत्साह, उल्लास, आह्लाद और तड़प। सहवाग और तेन्दुलकर के आउट हो जाने के बाद जिस तरह पलट कर हमने खेला, उसके लिए जीवट चाहिए। राष्ट्रीय तड़प, बेचैनी। और जब हम जीत की ओर बढ़ रहे थे नेपथ्य से बमों के धमाके सुनाई पड़ने लगे। टेक्स्ट मैसेज भेजने वाले मित्र का दशहरा करीब आ गया था। दशहरे का रूपक मौजूं तो नहीं, पर था सो था। वह अन्याय पर न्याय की जीत थी। श्रीलंका की टीम अत्याचार का एजेंडा लेकर नहीं आई थी। बहरहाल हमारी जिजीविषा जीती। हमें समारोह का हक है।

पिछला एक साल खेल के मामले में भाग्यशाली रहा है। कॉमनवैल्थ और एशिया खेलों में हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन अच्छा रहा। हालांकि अब बहुत से लोगों को याद नहीं होगा कि किस-किस खेल में किसने गोल्ड जीता। उन खेलों के स्टार अब भी मामूली लोग हैं। लोगों को गगन नारंग का नाम याद होगा या विजेन्द्र का, जिसकी दिलचस्पी अब इस बात में है कि राष्ट्र हित में एक्साइज़ ड्यूटी की चोरी रोकी जाए। खेल के मैदान ने गाँवों और कस्बों के तमाम नौजवानों को स्टार बनने का मौका दिया, पर क्या क्रिकेट किसी खेल का नाम है? कहते हैं हमारे यहाँ खेल सिर्फ राजनीति में होता है, बाकी सब खिलवाड़ है। कॉमनवैल्थ खेलों के साथ हमारे कारोबारी जीवन के अनेक खेल सामने आए। उनमें से एक खेल की चार्जशीट उसी रोज फाइल की गई जिस रोज सारा देश

जीत का जश्न अपनी जगह है और राष्ट्रीय गौरव अपनी जगह, पर कुछ सवाल हैं, जिनका जवाब हमें अपने आप से पूछना चाहिए। क्या हम खेल प्रेमी देश हैं? खेल प्रेमी छोड़िए। क्या हम क्रिकेट प्रेमी हैं? क्या हमें राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्यारी है? क्या हमारे भीतर विपरीत परिस्थितियों में जीतने की इच्छा है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब हाँ और न में हैं। हमें खेल पसंद हैं, पर उनके लिए कुछ करते नहीं। हम खेल पसंद होते तो हर शहर में अच्छे खेल के मैदान होते। मैच होते हैं तो उन्हें हम देखने नहीं जाते। हमारे पास खेलों का बेहद कमजोर ताना-बाना है। सिवाय क्रिकेट के किसी खेल में हमारी अंतरराष्ट्रीय पहचान नहीं है। क्रिकेट में भी हम अपने स्थानीय मैचों को नहीं देखते। कितने लोग रणजी ट्रॉफी मैचों को फॉलो करते हैं? हम आराम से बैठकर मौज-मस्ती पसंद करते हैं। वह खेल से मिले या बॉलीवुड से।

राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के मामले में भी हमारा रिकॉर्ड दुविधा भरा है। हमें इस बात पर अफसोस नहीं कि दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब इस देश में बसते हैं। हमारी स्त्रियों की दशा अफ्रीका के देशों से भी बदतर है। बच्चों से मजदूरी कराते हैं। जातीय आधार पर आबादी के बड़े हिस्से को कमतर मानते हैं। हाल में फेसबुक पर कोलकाता विस्वविद्यालय के प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी का स्टेटस था, लोकतंत्र की पीड़ाएं उन्माद या बेचैनी पैदा क्यों नहीं करतीं? क्रिकेट क्यों उन्माद पैदा करता है? क्या यह लोकतंत्र की शान है?

खेल जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जीवन संतुलित होना चाहिए। उसमें खेल, मनोरंजन, जीवन शैली, खान-पान, शिक्षा, संस्कार, मौज-मस्ती, मूल्य-सिद्धांत, कर्तव्य भाव सब कुछ होना चाहिए। यह सब एक समझदार समाज की निशानी है। विश्व विजेता बनना अच्छी बात है, पर वास्तविक विश्व-विजेता वह समाज है, जहाँ हर घर रोशन होता है, हर मन हुलसित। विवेकशीलता, ज्ञानशीलता, खुलेपन और न्याय-प्रियता किसी समाज को खुशहाल बनाती है। आप सोचें क्या हमें इनमें से किसी चीज की जरूरत है। क्या यह विश्व कप वास्तव में 121 करोड़ भारतीयों ने जीता है?    

दैनिक जन संदेश में प्रकाशित

9 comments:

  1. बहुत सही बात कही आपने प्रमोद जी लेकिन हमारे देश के भ्रष्ट मंत्री,प्रधानमंत्री यहाँ तक की राष्ट्रपति के पदों पर बैठे लोग भी ऐसा नहीं होने देना चाहते अपने स्वार्थ की वजह से..आज किसी आम अपराधी का स्वार्थ नहीं बल्कि इनका स्वार्थ देश व समाजहित पर भारी है

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  2. "वास्तविक विश्व-विजेता वह समाज है, जहाँ हर घर रोशन होता है, हर मन हुलसित। विवेकशीलता, ज्ञानशीलता, खुलेपन और न्याय-प्रियता किसी समाज को खुशहाल बनाती है।"

    आपके इस कथन से मैं पूर्णतः सहमत हूँ सर!.इनमे से हर चीज़ की हमें ज़रूरत है.पूरा आलेख सोचने को मजबूर करता है.

    सादर

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  3. अंतिम अनुच्छेद में व्यक्त आपके विचार मनन करके अमल करने योग्य हैं.ऐसा हो तो देश का भला हो.लोग भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इसी प्रकार एकजुट हो
    ते तो अच्छी बात होती.आप सब को नवसंवत्सर तथा नवरात्रि पर्व की मंगलकामनाएं.

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  4. दरअसल लोग इस जीत को सबकुछ समझकर इसके पीछे पागल हो रहे हैं| बेशक विश्व कप की जीत मायने रखती है लेकिन जिस तरह पेश किया जा रहा है वह सही नहीं है| इसलिए झल्लाकर पुष्पेष पंत ने जी न्यूज़ पर कहा - "जो लोग इस जीत को सबकुछ समझ बैठे हैं उनके लिए मैं एक शेर कहना चाहूँगा- आखिरी जनाजा है जरा झूम के निकले" अभी देखिये भ्रष्टाचार गायब हो गया, घोटाले पर बहस गायब हो गयी, सारे चैनल पर सिर्फ़ क्रिकेट ही छाया हुआ है| आश्चर्य होता है मुझे जब इसे १२१ करोड़ लोगों की जीत कहा जाता है| जबकि सच तो यह है कि हमें ऐसे ही मौकों पर याद आती है हमारी आबादी १२१ करोड़ है वरना बाँकी दिनों में ७७ करोड तो भूखे रहने को मजबूर हैं, किसानों की आत्महत्या, दहेज दानवों की गाथा इसी आबादी में शामिल है|इसकी फ़िक्र किसे है?
    क्रिकेट कप जैसी छोटी चीजों को जीतकर ऐसा लगता है हमने सारी समस्याओं का हल खोज लिया| पैसे और व्यापार के बीच इस खेल ने ऊंचाई तो प्राप्त कर ली, देश ने झंडा भी गाड़ दिया लेकिन वक्त इससे हटकर सोचने का भी है|

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  5. प्रमोद जी! इस आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई! इसी दिशा में सोचने की जरूरत है।

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  6. बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  7. अच्छा लगा आपके विचार जानकर ..

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  8. जिस वक्त हमें पत्रकारिता पढ़ाई जा रही थी, तब हमने पढ़ा था कि मीडिया समाज का आईना होता है। मीडिया समाज में हो रहे विभिन्न घटनाक्रमों पर एक आम राय कायम करने का काम करता है। यह राय निष्पक्ष होती है। लेकिन जब फील्ड में उतरे तो स्थिति कुछ अलग थी। मीडिया एक आम राय कायम जरूर करता है, लेकिन यह निष्पक्ष नहीं होती। अब खेलों के मामले में भी पक्षपात है। पेट भरने के लिए रोटी, दाल, चावल आदि परोसने की बजाय मीडिया चटपटी चीजें अधिक परोसता है। सब बाजारवाद की माया है, सर।

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