Saturday, September 9, 2023

जरूरी है सुरक्षा-परिषद की स्थायी-सदस्यता


भारत-
उदय-07

हाल में जोहानेसबर्ग में हुए ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन के बाद जारी संयुक्त घोषणापत्र में दूसरी बातों के अलावा यह भी कहा गया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की ज़रूरत है. हम मानते हैं कि सुरक्षा परिषद को ज्यादा लोकतांत्रिक, और दक्ष बनाने के लिए इसमें सुधार करना और विकासशील देशों को इसका सदस्य बनाना जरूरी है.

घोषणापत्र में यह भी कहा गया है कि यह काम एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों की वाजिब आकांक्षाओं को पूरा करने और वैश्विक-मसलों में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने में मदद कर पाएगा, जिनमें  ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं.  

चूंकि चीन भी ब्रिक्स का संस्थापक सदस्य है, इसलिए इससे एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चीन ने सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन कर दिया है. ऐसा लगता है कि ब्रिक्स के विस्तार के लिए चीन ने भारत का समर्थन हासिल करने के लिए घोषणापत्र में इसे शामिल करने पर सहमति दी होगी.

बहरहाल इतने मात्र से चीनी समर्थन तब तक नहीं मान लेना चाहिए, जब तक इस आशय की घोषणा उसकी ओर से नहीं हो जाए. पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों को देखते हुए अभी कई प्रकार के किंतु-परंतु बीच में हैं.

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सुरक्षा परिषद के स्थायी-सदस्य वे देश हैं, जो दूसरे विश्व-युद्ध में मित्र देश थे और जिन्होंने मिलकर लड़ाई लड़ी. ये देश हैं अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन. 1945 में मूल रूप से तय हुआ था कि सुरक्षा-परिषद के 11 सदस्य होंगे. पाँच स्थायी और छह अस्थायी.

1963 में संरा महासभा ने चार्टर में बदलाव की सिफारिश की. यह बदलाव 31 अगस्त, 1965 से लागू हुआ और सदस्यता 11 से बढ़कर 15 हो गई. अस्थायी सदस्यों में पाँच अफ्रीका और एशिया से, एक पूर्वी यूरोप से, दो लैटिन अमेरिका से और दो पश्चिमी यूरोप या अन्य क्षेत्रों से.

Friday, September 8, 2023

‘सुपर-पावर’ बनने के द्वार पर भारत


भारत-उदय-06

भारत की आर्थिक-प्रगति और वैश्विक-मंचों पर उसकी भूमिका को देखते हुए यह कहा जाने लगा है कि भारत आज नहीं तो कल सुपर-पावर होगा. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि वह अगले दशक में और कुछ मानते हैं कि 2025 तक सुपर-पावर की श्रेणी में आ जाएगा. कुछ मानते हैं कि वह सुपर-पावर है.  

पहला सवाल यही होना चाहिए कि सुपर-पावर से आपका मतलब क्या है? सच यह है कि किसी भी देश का सम्मान केवल उसके उदात्त आदर्शों के कारण नहीं होता. उसके दो तत्व बेहद महत्वपूर्ण होते हैं. एक, राष्ट्रीय हितों की पूर्ति और दूसरा राष्ट्रीय-शक्ति. कमजोर देश अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा नहीं कर सकते. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रसिद्ध अध्येताओं में एक हैंस जोकिम मॉर्गेनथाऊ ने इसीलिए राष्ट्रीय शक्ति को यथार्थ से जोड़ने का सुझाव दिया था.

Wednesday, September 6, 2023

ठंडा क्यों पड़ा दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय-सहयोग?

 


भारत-उदय-05

भारतीय विदेश-नीति की सबसे बड़ी परीक्षा अपने पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्ते कायम करने में है. दुर्भाग्य से अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम कुछ इस प्रकार घूमा है कि दक्षिण एशिया की घड़ी की सूइयाँ अटकी रह गई हैं. भारत ने दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ‘नेबरहुड फर्स्ट नीति’ को अपनाया है. ‘नेबरहुड फर्स्ट’ का अर्थ अपने पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने से है.

इस उदार दृष्टिकोण के बावजूद दक्षिण एशिया दुनिया के उन क्षेत्रों में शामिल है, जहाँ क्षेत्रीय-सहयोग सबसे कम है. हम आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट कर सकते हैं, पर दक्षिण एशिया में उससे कहीं कमतर समझौता भी पाकिस्तान से नहीं कर सकते. 1985 में बना दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (दक्षेस) आज ठंडा पड़ा है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कश्मीर.

पश्चिम एशिया का बदलता परिदृश्य और भारत

 


भारत का उदय-04

दक्षिण अफ्रीका में हुए ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में छह नए देशों को सदस्यता देने का फैसला हुआ है. अब अगले साल अर्जेंटीना, इथोपिया, ईरान, मिस्र, सऊदी अरब और यूएई भी ब्रिक्स के सदस्य बन जाएंगे. इन छह में से चार मुस्लिम देश हैं, जिनके साथ भारत के परंपरागत रूप से बहुत अच्छे रिश्ते हैं. फिर भी हमें बदलती परिस्थितियों को समझने की जरूरत होगी.

ईरान और सऊदी अरब को ब्रिक्स में शामिल करने के पीछे चीन की भूमिका है, जिसने इन दोनों देशों के बिगड़े रिश्तों को ठीक किया है. चीन ने इस इलाके में अपनी गतिविधियाँ तेज की हैं. यूएई और सऊदी अरब तथा इस इलाके के दूसरे देशों की दिलचस्पी तेल की अर्थव्यवस्था से हटकर नए कारोबारों में पूँजी निवेश करने की है.

इन देशों के हमारे साथ भी रिश्ते इसीलिए अच्छे हैं. दुनिया में आ रहे तकनीकी, कारोबारी और भू-राजनीतिक बदलावों के साथ हमें भी कदम मिलाकर चलने की जरूरत है.

Tuesday, September 5, 2023

हिंद-प्रशांत और ‘एक्ट-ईस्ट पॉलिसी’ का केंद्र-बिंदु आसियान


 भारत-उदय-03

हाल के वर्षों में भारतीय विदेश-नीति में सबसे ज्यादा हिंद-प्रशांत शब्द का इस्तेमाल हुआ है. इसकी वजह को समझने की कोशिश करनी चाहिए. हिंद-प्रशांत विशाल भौगोलिक-क्षेत्र है, जिसका कुछ हिस्सा भारत के पश्चिम में है, पर ज्यादातर हिस्सा पूर्व में है. पूर्व में भारत की दिलचस्पी के दो कारण हैं. एक, कारोबार और दूसरा चीनी-विस्तार को रोकना.

भारत का आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट है. और अब हम अलग-अलग देशों के साथ आर्थिक सहयोग के समझौते भी कर रहे हैं. पर यह हमेशा याद रखना चाहिए कि आर्थिक शक्ति की रक्षा के लिए सामरिक शक्ति की ज़रूरत होती है.

भारत को किसी देश के खिलाफ यह शक्ति नहीं चाहिए. हमारे जीवन में दूसरे शत्रु भी हैं. सागर मार्गों पर डाकू विचरण करते हैं. आतंकवादी भी हैं. इसके अलावा कई तरह के आर्थिक माफिया और अपराधी हैं. इन्हीं बातों के संदर्भ में भारत को अपने राष्ट्रीय-हितों की रक्षा करने के लिए तैयार रहना है.