जैसा कि अंदेशा था, संसद के मॉनसून सत्र का पहला हफ्ता शोरगुल और हंगामे की भेंट रहा। इस हंगामे या शोरगुल को क्या मानें, गैर-संसदीय या संसदीय? लंबे अरसे से संसद का हंगामा संसदीय-परंपराओं में शामिल हो गया है और उसे ही संसदीय-कर्म मान लिया गया है। गतिरोध को भी सकारात्मक माना जा सकता है, बशर्ते हालात उसके लिए उपयुक्त हों और जनता उसकी स्वीकृति देती हो। अवरोध लगाना भी राजनीतिक कर्म है, पर उसे सैद्धांतिक-आधार प्रदान करने की जरूरत है। यह कौन सी बात हुई कि सदन एक महत्वपूर्ण विधेयक पर विचार कर रहा है और बहुत से सदस्य हंगामा कर रहे हैं? किसी मंत्री का महत्वपूर्ण विषय पर वक्तव्य हो रहा है और कुछ सदस्य शोर मचा रहे हैं।
बेशक विरोध व्यक्त करना जरूरी है, पर उसके तौर-तरीकों को परिभाषित करने की जरूरत है। जबसे संसदीय कार्यवाही का टीवी प्रसारण शुरू हुआ है, शोर बढ़ा है। शायद ही कोई इस बात पर ध्यान देता हो कि इस दौरान कौन से विधेयक किस तरह पास हुए, उनपर चर्चा में क्या बातें सामने आईं और सरकार ने उनका क्या जवाब दिया वगैरह। एक ज़माने में अखबारों में संसदीय प्रश्नोत्तर पर लंबे आइटम प्रकाशित हुआ करते थे। अब हंगामे का सबसे पहला शिकार प्रश्नोत्तर होते हैं। आने वाले हफ्तों की तस्वीर भी कुछ ऐसी ही रहने की संभावना है।