Saturday, August 21, 2021

भारतीय विदेश-नीति की विफलता

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर भारतीय विदेश-नीति के बारे में कहा है कि कई साल से हम सबके मन में यह सवाल घुमड़ता रहा था कि क्या अफगानिस्तान लंबे समय से चले आ रहे संकट के दौर से निकल पाएगा और क्या वहां स्थिर सरकार देने की दिशा में किए जा रहे अथक प्रयास आगे भी जारी रहेंगे? यूपीए सरकार के दौरान हमने नए संसद भवन, स्कूलों-जैसे अहम संस्थानों के पुनर्निर्माण के अतिरिक्त सलमा बांध-जैसी विकास परियोजनाओं पर भारी धनराशि खर्च की। अब सब कुछ तालिबान के हाथ में है और लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने के प्रयास छिन्न-भिन्न हो गए हैं। हम पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई जैसे अपने दोस्तों की खैरियत के लिए फिक्रमंद ही हो सकते हैं जो अपने परिवार के साथ, जिसमें छोटी-छोटी बच्चियां भी हैं, काबुल में ही रह रहे हैं। मैं मानकर चलता हूं कि सरकार ने हमारे नागरिकों के साथ-साथ भारत से दोस्ती निभाने वाले अफगानों को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए पर्याप्त राजनीतिक उपाय बचाकर रखे होंगे।

Friday, August 20, 2021

सोनिया गांधी के साथ 18 विरोधी दलों के नेताओं का वर्चुअल-संवाद


कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने शुक्रवार की शाम को प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं के साथ वर्चुअल बैठक की। 19पार्टियों की इस बैठक में सोनिया ने कहा कि विपक्ष को वर्ष 2024 के आम चुनाव के लिए व्यवस्थित योजना बनानी होगी और दबावों/बाध्यताओं से ऊपर उठना होगा। सोनिया गांधी ने तमाम मतभेदों को भुलाकर मिलकर काम करने की जरूरत बताई। उन्होंने कहा कि इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। बैठक में कांग्रेस के अलावा 1.तृणमूल कांग्रेस, 2.एनसीपी, 3.डीएमके, 4.शिवसेना, 5.जेएमएम, 6.सीपीआई, 7.सीपीएम, 8.नेशनल कॉन्फ्रेंस, 9.आरजेडी,10.एआईयूडीएफ, 11.वीसीके, 12.लोकतांत्रिक जनता दल, 13.जेडीएस, 14.आरएलडी, 15.आरएसपी, 16.केरल कांग्रेस मनीला, 17.पीडीपी और 18आईयूएमएल के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

बैठक में कांग्रेस की ओर से पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और राहुल गांधी भी शामिल थे। दूसरी पार्टियों के प्रमुख नेताओं में फारूक अब्दुल्ला, एमके स्टालिन, ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन, उद्धव ठाकरे, शरद पवार, शरद यादव और सीताराम येचुरी शामिल थे। यह उपस्थिति काफी आकर्षक बताई जा रही है। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि विरोधी दलों के बीच एकजुटता है। खासतौर से ममता बनर्जी की उपस्थिति ने इसे स्पष्ट किया है।

संवाद में आम आदमी पार्टी, बसपा और सपा की उपस्थिति दिखाई नहीं पड़ी। बताते हैं कि आम आदमी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी को निमंत्रित नहीं किया गया था। समाजवादी पार्टी का भी कोई नेता मीटिंग से नहीं जुड़ा। अखिलेश यादव किसी कार्यक्रम में व्यस्त होने के कारण जुड़ नहीं पाए और उनकी अनुपस्थिति में कोई दूसरा नेता भी इस संवाद में शामिल नहीं हो पया। इस बैठक के पहले हाल में कपिल सिब्बल के घर में भी रात्रिभोज पर एक बैठक हुई थी। हालांकि आज की बैठक से उसका कोई टकराव नहीं था, पर चूंकि कपिल सिब्बल जी-23 में शामिल किए जाते हैं, इसलिए उस बैठक के निहितार्थ भी इस बैठक के साथ देखे जाएंगे।  

अफगानिस्तान में ‘अमीरात’ और ‘गणतंत्र’ का फर्क

बाईं ओर गणतंत्र का और दाईं ओर अमीरात का ध्वज 

तालिबान-प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने घोषणा की है कि अफ़ग़ानिस्तान में चल रही जंग ख़त्म हो गई है, लेकिन किसी अज्ञात स्थान से जारी संदेश में उप-राष्ट्रपति अमीरुल्ला सालेह ने कहा है कि जंग अभी जारी है। इससे पहले, एक फ़्रांसीसी पत्रिका के लिए लिखे गए एक लेख में, शेर-ए-पंजशीर के नाम से मशहूर अफ़ग़ान नेता अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद ने अपने पिता के नक़्शे-क़दम पर तालिबान के ख़िलाफ़ 'जंग की घोषणा' कर दी है। ऐसी घोषणाएं हों या नहीं भी हों, जंग तो यों भी जारी रहेगी। यह जंग आधुनिकता और मध्ययुगीन-प्रवृत्तियों के बीच है।

हालांकि तालिबान ने गत 15 अगस्त को काबुल में प्रवेश कर लिया था, पर उन्होंने 19 अगस्त को अफगानिस्तान में इस्लामी अमीरात की स्थापना की घोषणा की। इस तारीख और इस घोषणा का प्रतीकात्मक महत्व है। 19 अगस्त अफगानिस्तान का राष्ट्रीय स्वतंत्रता है। 19 अगस्त, 1919 को एंग्लो-अफगान संधि के साथ अफगानिस्तान ब्रिटिश-दासता से मुक्त हुआ था। अंग्रेजों और अफगान सेनानियों के बीच तीसरे अफगान-युद्ध के बाद यह संधि हुई थी।

नाम नहीं काम

दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है इस्लामी अमीरात की घोषणा। अभी तक यह देश इस्लामी गणराज्य था, अब अमीरात हो गया। क्या फर्क पड़ा? केवल नाम की बात नहीं है। गणतंत्र का मतलब होता है, जहाँ राष्ट्राध्यक्ष जनता द्वारा चुना जाता है। अमीरात का मतलब है वह व्यवस्था, जिसमें अपारदर्शी तरीके से राष्ट्राध्यक्ष कुर्सी पर बैठते हैं। तालिबानी सूत्र संकेत दे रहे हैं कि अब कोई कौंसिल बनाई जाएगी, जो शासन करेगी और उसके सर्वोच्च नेता होंगे हैबतुल्‍ला अखूंदजदा।

कौन बनाएगा यह कौंसिल, कौन होंगे उसके सदस्य, क्या अफगानिस्तान की जनता से कोई पूछेगा कि क्या होना चाहिए? इन सवालों का अब कोई मतलब नहीं है। तालिबान की वर्तमान व्यवस्था बंदूक के जोर पर आई है। सारे सवालों का जवाब है बंदूक। यानी कि इसे बदलने के लिए भी बंदूक का सहारा लेने में कुछ गलत नहीं। इस बंदूक और अमेरिकी बंदूक में कोई बड़ा फर्क नहीं है, पर सिद्धांततः आधुनिक लोकतांत्रिक-व्यवस्था पारदर्शिता का दावा करती है। वह पारदर्शी है या नहीं, यह सवाल अलग है। 

पारदर्शिता को लेकर उस व्यवस्था से सवाल किए जा सकते हैं, तालिबानी व्यवस्था से नहीं। आधुनिक लोकतंत्रों में उसके लिए संस्थागत व्यवस्था है, जिसका क्रमशः विकास हो रहा। वह व्यवस्था सेक्युलर है यानी धार्मिक नियमों से मुक्त है। कम से कम सिद्धांततः मुक्त है। हमें नहीं पता कि अफगानिस्तान की नई न्याय-व्यस्था कैसी होगी। वर्तमान अदालतों का क्या होगा वगैरह। 

सन 1919 की आजादी के बाद अफगान-अमीरात की स्थापना हुई थी, जिसके अमीर या प्रमुख अमानुल्ला खां थे, जो अंग्रेजों के विरुद्ध चली लड़ाई के नेता भी थे। इन्हीं अमानुल्ला खां ने 1926 में स्वयं को पादशाह या बादशाह घोषित किया और देश का नया नाम अफगान बादशाहत (किंगडम) रखा गया। वह अफगानिस्तान 29 अगस्त 1946 को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना।

स्कर्टधारी लड़कियाँ

बीसवीं सदी के अफगानिस्तान पर नजर डालें, तो पाएंगे कि अपने शुरूआती वर्षों में यह देश अपेक्षाकृत आधुनिक और प्रगतिशील था। हाल में सोशल मीडिया पर पुराने अफगानिस्तान की एक तस्वीर वायरल हुई थी, जिसमें स्कर्ट पहने कुछ लड़कियाँ दिखाई पड़ती हैं। उस तस्वीर के सहारे यह बताने की कोशिश की गई थी कि देखो वह समाज कितना प्रगतिशील था।

इस तस्वीर पर एक सज्जन की प्रतिक्रिया थी कि छोटे कपड़े पहनना प्रगतिशीलता है, तो लड़कियों को नंगे घुमाना महान प्रगतिशीलता होगी। यह उनकी दृष्टि है, पर बात इतनी थी कि एक ऐसा समय था, जब अफगानिस्तान में लड़कियाँ स्कर्ट पहन सकती थीं। स्कर्ट भी शालीन लिबास है। बात नंगे घूमने की नहीं है। जब सामाजिक-वर्जनाएं इतनी कम होंगी, वहाँ नंगे घूमने पर भी आपत्ति नहीं होगी। दुनिया में आज भी कई जगह न्यूडिस्ट कैम्प लगते हैं।

शालीनता की परिभाषाएं सामाजिक-व्यवस्थाएं तय करती हैं, पर उसमें सर्वानुमति, सहमति और जबर्दस्ती के द्वंद्व का समाधान भी होना चाहिए। उसके पहले हमें आधुनिकता को परिभाषित करना होगा। बहरहाल विषयांतर से बचने के लिए बात को मैं अभी अफगानिस्तान पर ही सीमित रखना चाहूँगा। फिलहाल इतना ही कि तमाम तरह की जातीय विविधता और कबायली जीवन-शैली के बावजूद वहाँ कट्टरपंथी हवाएं नहीं चली थीं।

Thursday, August 19, 2021

कितना बदलाव आया है तालिबान में?

गायब होती औरत। बुशरा अलमुतवकील (यमन, जन्म 1969) का यह फोटो
कोलाज 'माँ-बेटी गुड़िया' हिजाब सीरीज-2010 की एक कृति है।
(साभार- म्यूजियम ऑफ फाइन आर्ट्स, बोस्टन) 
 Boushra Almutawakel (Yemen, b. 1969), Mother, Daughter, Doll
 from the Hijab series, 2010. (Courtesy Museum of Fine Arts, Boston)
यह बात बार-बार कही जा रही है कि तालिबान.1 यानी बीस साल पहले वाले तालिबान की तुलना में आज के यानी तालिबान.2 बदले हुए हैं। वे पहले जैसे तालिबान नहीं हैं। आज के इंडियन एक्सप्रेस में एमके भद्रकुमार ने लिखा है कि आज के तालिबान ने अफगानिस्तान के सभी समुदायों के बीच जगह बनाई है, उन्होंने पश्चिम और दोनों तरफ अपने वैदेशिक-रिश्ते बेहतर बनाए हैं और वे अपनी वैधानिकता को लेकर उत्सुक हैं। एमके भद्रकुमार पूर्व राजनयिक हैं और वे वर्तमान सरकार की विदेश-नीति से असहमति रखने वालों में शामिल हैं।

भद्रकुमार के अनुसार अफगानिस्तान में 1992 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सत्ता-परिवर्तन हुआ था, जो लम्बे समय तक चला नहीं। 1996 में अहमद शाह मसूद हटे और बगैर ज्यादा बड़े प्रतिरोध के तालिबान आए। इसबार भी करीब-करीब वैसा ही हो रहा है। अलबत्ता तीन तरह के अंतर दिखाई पड़ रहे हैं। पिछली बार के विपरीत इसबार राज-व्यवस्था बदस्तूर नजर आ रही है। इस बात का अंदाज तालिबान के नाटकीय संवाददाता सम्मेलन को देखने से लगता है।

दूसरे सत्ता का अंतिम रूप क्या होगा, इसका पता लगने में कुछ समय लगेगा। उसके पहले कोई अंतरिम व्यवस्था सामने आएगी। इसका मतलब है कि तालिबान सर्वानुमति को स्वीकार करेंगे।

तीसरे, पिछली दो बार के विपरीत इसबार अंतरराष्ट्रीय समुदाय, खासतौर से आसपास के देश, अंतरिम-व्यवस्था का निर्धारण कर रहे हैं। विजेता तालिबान राष्ट्रीय-सर्वानुमति की दिशा में विश्व-समुदाय की सलाह या निर्देश मानने को तैयार हैं। इस प्रकार से नए शीत-युद्ध का खतरा दूर हो रहा है और बड़ी ताकतें तालिबान को सकारात्मक तरीके से जोड़ पा रही हैं।

भद्रकुमार ने यह भी लिखा है कि भारत का अपने दूतावास को बंद करना समझ में नहीं आता है। भद्रकुमार का निष्कर्ष ऐसा क्यों है, पता नहीं। हमारा दूतावास बंद नहीं हुआ है, केवल स्टाफ वापस बुलाया गया है। बहरहाल वे लिखते हैं कि हमें नई अफगान नीति पर चलने का मौका मिला है, जो अमेरिकी संरक्षण से मुक्त हो। ऐसा शायद इसलिए है, क्योंकि सरकार की ज़ीरो सम दृष्टि है कि पाकिस्तानी जीत मायने भारत की हारपर यह भारत का परम्परागत नज़रिया नहीं है। हमें अफगान-राष्ट्र की अंतर्चेतना, परम्पराओं और संस्कृति तथा भारत के प्रति उनके स्नेह-भाव की जानकारी है।

तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने मुज़ाहिदीन-समूहों (पेशावर सेवन) के साथ फौरन सम्पर्क स्थापित किया था, गो कि वे जानते थे कि इनके पाकिस्तान के साथ करीबी रिश्ते हैं। यह कहना पर्याप्त है कि भारतीय बयानिया (नैरेटिव) में खामियाँ हैं। हम एक पुरानी स्ट्रैटेजिक-डैप्थ की अवधारणा से उलझे हुए हैं और मानते हैं कि तालिबान पाकिस्तानी व्यवस्था के हाथ का खिलौना हैं।

Wednesday, August 18, 2021

तालिबान-सरकार को क्या मान्यता मिलेगी?

तालिबान-प्रवक्ता जबीहुल्ला मुज़ाहिद 
अफगानिस्तान में तालिबान की स्थापना करीब-करीब पूरी हो चुकी है। अब दो सवाल हैं। क्या विश्व-समुदाय उन्हें मान्यता देगा?  इसी से जुड़ा दूसरा सवाल है कि भारत क्या करेगा?  आज के टाइम्स ऑफ इंडिया ने सरकारी सूत्र के हवाले से खबर दी है कि विश्व का लोकतांत्रिक-ब्लॉक जो फैसला करेगा भारत उसके साथ जाएगा। इसका मतलब है कि दुनिया में ब्लॉक बन चुके हैं और जिस शीतयुद्ध की बातें हो रही थीं, वह अफगानिस्तान में अब लड़ा जाएगा।

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिद्वंद्विता तो है ही, पर ज्यादा बड़ा टकराव पश्चिमी देशों और रूस के बीच है। इसके अलावा अब चीन भी बड़ा दावेदार है और वह तालिबान के समर्थन में उतर आया है। सोवियत संघ ने 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर धावा बोला था। उसका सामना तब अफ़ग़ान मुजाहिदीन से हुआ था, जिन्हें अमेरिका, ब्रिटेन और पाकिस्तान का समर्थन हासिल था। पिछले दो दिन में तालिबान-विरोधी पुराना नॉर्दर्न अलायंस पंजशीर-प्रतिरोध के नाम से खड़ा हो गया है, जिसके नेता पूर्व उपराष्ट्रपति अमीरुल्ला सालेह हैं, जिनका कहना है कि राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति ही कार्यवाहक राष्ट्रपति होता है। अफगान सेना से जुड़े ताजिक मूल के काफी सैनिक इस समूह में शामिल हो गए हैं।

लोकतांत्रिक-ब्लॉक

सवाल है कि क्या लोकतांत्रिक-ब्लॉक पंजशीर-रेसिस्टेंस को उसी तरह मान्यता देगा, जिस तरह से नब्बे के दशक में बुरहानुद्दीन रब्बानी को मान्यता दी गई थी। ध्यान दें कि अफगानिस्तान में पंजशीर अकेला ऐसा क्षेत्र है, जो तालिबानी नियंत्रण के बाहर है और इस बात की उम्मीद नहीं कि तालिबान उसपर कब्जा कर पाएंगे। पश्चिमी पर्यवेक्षकों का विचार है कि अमेरिका ने गलती की। उसके 3000 सैनिक तालिबान को रोकने के लिए काफी थे। बहरहाल अगले कुछ दिन में तय होगा कि अफगानिस्तान में ऊँट किस करवट बैठने वाला है।