Wednesday, July 14, 2021

अफगानिस्तान में भारत क्या करे?


विदेशमंत्री एस जयशंकर ने मंगलवार को अफगानिस्तान के विदेशमंत्री हनीफ अतमर से ताजिकिस्तान की राजधानी दुशान्बे में मुलाकात की और इस दौरान अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम पर चर्चा की। जयशंकर शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के विदेश मंत्रियों की परिषद और अफगानिस्तान पर एससीओ संपर्क समूह की बैठकों में भाग लेने के लिए मंगलवार को दो दिवसीय दौरे पर दुशान्बे पहुंचे। जयशंकर ने ट्वीट किया,''मेरे दुशान्बे दौरे की शुरुआत अफगानिस्तान के विदेशमंत्री मोहम्मद हनीफ अतमर से मुलाकात के साथ हुई। हाल के घटनाक्रम जानकारी मिली। अफगानिस्तान पर एससीओ संपर्क समूह की बुधवार को हो रही बैठक को लेकर उत्साहित हूं।''

दुशान्बे बैठक काफी अहम

यह बैठक ऐसे समय में हो रही है, जब तालिबानी लड़ाके अफगानिस्तान के अधिकतर इलाकों को तेजी से अपने नियंत्रण में ले रहे हैं, जिसने वैश्विक स्तर पर चिंता बढ़ा दी है। भारत ने अफगान बलों और तालिबान लड़ाकों के बीच भीषण लड़ाई के मद्देनज़र कंधार स्थित अपने वाणिज्य दूतावास से लगभग 50 राजनयिकों एवं सुरक्षा कर्मियों को एक सैन्य विमान के जरिए निकाला है।

एससीओ देशों के साथ होने वाली यह बैठक अफगानिस्तान के लिए भी काफी अहम होगी। अमेरिकी सेना की वापसी की के बाद वहां तालिबान का वर्चस्व बढ़ा है। ऐसे में अफगानिस्तान को वैश्विक सहायता की जरूरत पड़ेगी। यह बैठक अफगानिस्तान के लिए बहुत अहम है। अफ़ग़ानिस्तान में बीते कुछ हफ्तों में एक के बाद एक लगातार कई आतंकी हमले हुए हैं। अमेरिकी सैनिक अगस्त के अंत तक पूरी तरह से अफगानिस्तान से चले जाएंगे। ऐसे में अफगानिस्तान को भारत समेत अन्य देशों से सहायता की आशा है।

भारत की भूमिका

अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने के लिए भारत काफी अहम रोल निभा सकता है। भारत इस देश में कई निर्माण गतिविधियों में 300 करोड़ डॉलर का निवेश कर चुका है। भारत हमेशा से अफगानिस्तान में शांति का समर्थक रहा है और इसके लिए अफगान नेतृत्व और अफगान द्वारा संचालित प्रक्रिया का ही समर्थक भी रहा है। सवाल है कि हम क्या कर सकते हैं और क्या कर रहे हैं?

Monday, July 12, 2021

अफगानिस्तान पर बढ़ता तालिबानी कब्जा और उसका भारत पर असर


अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि अफगानिस्तान में करीब बीस साल से जारी अमेरिका का सैन्य अभियान 31 अगस्त को समाप्त हो जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि अब अफगान लोग अपना भविष्य खुद तय करेंगे। युद्ध-ग्रस्त देश में अमेरिका ‘राष्ट्र निर्माण' के लिए नहीं गया था। अमेरिका के सबसे लंबे समय तक चले युद्ध से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने के अपने निर्णय का बचाव करते हुए बाइडेन ने कहा कि अमेरिका के चाहे कितने भी सैनिक अफगानिस्तान में लगातार मौजूद रहें लेकिन वहां की दुःसाध्य समस्याओं का समाधान नहीं निकाला जा सकेगा। बाइडेन ने बृहस्पतिवार 6 जुलाई को राष्ट्रीय सुरक्षा दल के साथ बैठक के बाद अफगानिस्तान पर अपने प्रमुख नीति संबोधन में कहा कि अमेरिका ने देश में अपने लक्ष्य पूरे कर लिए हैं और सैनिकों की वापसी के लिए यह समय उचित है।

बाइडेन ने कहा कि पिछले बीस साल में हमारे दो हजार अरब डॉलर से ज्यादा खर्च हुए, 2,448 अमेरिकी सैनिक मारे गए और 20,722 घायल हुए। दो दशक पहले, अफगानिस्तान से अल-कायदा के आतंकवादियों के हमले के बाद जो नीति तय हुई थी अमेरिका उसी से बंधा हुआ नहीं रह सकता है। बिना किसी तर्कसम्मत उम्मीद के किसी और नतीजे को प्राप्त करने के लिए अमेरिकी लोगों की एक और पीढ़ी को अफगानिस्तान में युद्ध लड़ने नहीं भेजा जा सकता। उन्होंने इन खबरों को खारिज किया कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के तुरंत बाद तालिबान देश पर कब्जा कर लेगा। उन्होंने कहा, अफगान सरकार और नेतृत्व को साथ आना होगा। उनके पास सरकार बनाने की क्षमता है। उन्होंने कहा, सवाल यह नहीं है कि उनमें क्षमता है या नहीं। उनमें क्षमता है। उनके पास बल हैं, साधन हैं। सवाल यह है कि क्या वे ऐसा करेंगे?

इस प्रकार अमेरिका ने अपनी सबसे लम्बी लड़ाई के भार को अपने कंधे से निकाल फेंका है। यह सच है कि 9 सितम्बर 2001 को न्यूयॉर्क के ट्विन टावर्स पर हमला करने वाला अल-कायदा अब अफगानिस्तान में परास्त हो चुका है, पर वह पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। उसके अलावा इस्लामिक स्टेट भी अफगानिस्तान में सक्रिय है। अल-कायदा को जमीन देने वाले तालिबान फिर से काबुल पर कब्जा करने को आतुर हैं। इन सब बातों को अमेरिका की पराजय नहीं तो और क्या मानें? अफगानिस्तान में अमेरिका ने जिस सरकार को बैठाया है, उसके और तालिबान के बीच सत्ता की साझेदारी को लेकर बातचीत चल रही है। यह भी सही है कि अमेरिकी पैसे और हथियारों से लैस काबुल की अशरफ ग़नी सरकार एक सीमित क्षेत्र में ही सही, पर वह काम कर रही है। अमेरिका सरकार तालिबान और पाकिस्तान पर एक हद तक दबाव बना रही है, ताकि हालात सुधरें, पर अभी समझ में नहीं आ रहा कि यह गृहयुद्ध कहाँ जाकर रुकेगा।

Sunday, July 11, 2021

उड़न-तश्तरियों का रहस्य, जिसे पेंटागन की जाँच भी खोल नहीं पाई


दुनिया हर साल 2 जुलाई को यूएफओ दिवस मनाती है। यूएफओ यानी अनआइडेंटिफाइड फ्लाइंग ऑब्जेक्ट्स या उड़न-तश्तरियाँ। एक वैश्विक संस्था यह दिन मनाती है। इस साल जब यह दिन मनाया जा रहा था तब  यूएफओ को लेकर एक रोचक जानकारी भी हमारे पास थी। अमेरिकी रक्षा विभाग ने यूएफओ पर गठित अपनी टास्क फोर्स की रिपोर्ट गत 25 जून को प्रकाशित की है। इस टीम को आकाश में विचरण करने वाली अनोखी वस्तुओं से जुड़ी जानकारी जमा करने को कहा गया था। जाँच में कोई निर्णायक जानकारी नहीं मिली, पर कुछ महत्वपूर्ण सूत्र जरूर जुड़े हैं। इस रिपोर्ट के बाद अचानक लोगों का ध्यान अंतरिक्ष में जीवन की सम्भावनाओं की ओर भी गया है।

अमेरिका के ऑफिस ऑफ डायरेक्टर ऑफ नेशनल इंटेलिजेंस (ओडीएनआई) की इस रिपोर्ट का लम्बे अरसे से इंतजार था। पिछले साल जून में सीनेट की इंटेलिजेंस कमेटी ने ओडीएनआई  से कहा था कि वह इस मामले में उपलब्ध विवरणों को एकत्र करने के लिए एक टास्क-फोर्स बनाए, जो प्राप्त विवरणों को एक जगह एकत्र करे। इस साल जनवरी में इस टास्क-फोर्स को छह महीने का समय रिपोर्ट दाखिल करने के लिए दिया गया था। अब नौ पेज की यह प्राथमिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है।

सबसे बड़ा रहस्य

यह दस्तावेज इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण रहस्य पर रोशनी डालने वाले बीज-विवरण के रूप में दर्ज जरूर किया जाएगा। इसने हालांकि रहस्य को खोला नहीं है, पर जो विवरण दिया है, उससे नए सवाल खड़े हुए हैं। इस बात की पुष्टि हुई है कि परिघटना सच्ची है, पर यह क्या है, हम नहीं कह सकते। अमेरिकी सेना ने इस परिघटना के लिए यूएफओ की जगह नया शब्द गढ़ा है, यूएपी (अनआइडेंटिफाइड एरियल फेनॉमेना)। वह यूएफओ से जुड़ी दकियानूसी धारणाओं से बचना चाहती है।

Friday, July 9, 2021

साँसों के सौदागर

शुक्रवार 25 जून की सुबह भारतीय मीडिया में खबरें थीं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली के लिए गठित 'ऑक्सीजन ऑडिट कमेटी' ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि 'केजरीवाल सरकार ने कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान ज़रूरत से चार गुना ज़्यादा ऑक्सीजन की माँग की थी।' रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली सरकार को असल में क़रीब 289 मीट्रिक टन ऑक्सीजन की दरकार थी, लेकिन उनके द्वारा क़रीब 1200 मीट्रिक टन ऑक्सीजन की माँग की गई। ज़रूरत से अधिक माँग का असर उन 12 राज्यों पर देखा गया जहाँ ऑक्सीजन की कमी से कई मरीज़ों को अपनी जान गँवानी पड़ी।

दिल्ली में 25 अप्रेल से 10 मई के बीच कोरोना वायरस की दूसरी लहर चरम पर थी। उस समय दिल्ली की जरूरत को लेकर पहले हाईकोर्ट में और फिर सुप्रीम कोर्ट में बहस हुई। उसकी परिणति में ऑडिट टीम का गठन हुआ, जिसने  छानबीन में पाया कि दिल्‍ली सरकार ने जरूरत से चार गुना ज्यादा ऑक्सीजन की माँग की थी। हालांकि अभी अंतिम रूप से निष्कर्ष नहीं निकाले गए हैं, पर मीडिया में प्रकाशित जानकारी के अनुसार कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया है कि दिल्ली को माँग से ज्यादा ऑक्सीजन की आपूर्ति की गई थी।

अभूतपूर्व संकट

कोरोना वायरस की दूसरी लहर के कारण अप्रेल-मई में देश के कई हिस्सों में अस्पतालों में ऑक्सीजन सप्लाई को लेकर कुछ दिन तक विकट स्थिति रही। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री ने स्वयं इस सिलसिले में कई बैठकों में भाग लिया। गृह मंत्रालय ने हस्तक्षेप करके राज्यों को निर्देश दिया कि वे ऑक्सीजन-वितरण योजना का ठीक से अनुपालन करें।

प्रधानमंत्री को जानकारी दी गई थी कि 20 राज्यों ने 6,785 मीट्रिक टन प्रतिदिन की अभूतपूर्व कुल माँग रखी है, जिसे देखते हुए केंद्र ने 21 अप्रेल से 6,882 मीट्रिक टन प्रतिदिन की स्वीकृति दी थी। यह सामान्य से कहीं ज्यादा बड़ी आपूर्ति थी। एक हफ्ते के भीतर 12 राज्यों में ऑक्सीजन की माँग में एकदम से भारी वृद्धि हो गई थी। उसके पहले 15 अप्रेल को केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण ने राज्य सरकारों को पत्र लिखा था कि 12 राज्यों ने 20 अप्रेल के लिए ऑक्सीजन की जिस सम्भावित आवश्यकता जताई थी, वह 4,880 मीट्रिक टन की थी।

Thursday, July 8, 2021

असाधारण मंत्रिमंडल विस्तार


एक तरीके से यह समुद्र-मंथन जैसी गतिविधि है। प्रधानमंत्री ने झाड़-पोंछकर एकदम नई सरकार देश के सामने रख दी है।  इसे विस्तार के बजाय नवीनीकरण कहना चाहिए। अतीत में किसी मंत्रिमंडल का विस्तार इतना विस्मयकारी नहीं हुआ होगा। संख्या के लिहाज से देखें, तो करीब 45 फीसदी नए मंत्री सरकार में शामिल हुए हैं। इस मेगा-कैबिनेट विस्तार का मतलब है कि या तो सरकार अपनी छवि को लेकर चिंतित है या फिर यह इमेज-बिल्डिंग का कोई नया प्रयोग है। नए मंत्रियों के आगमन से ज्यादा विस्मयकारी है कुछ दिग्गजों का सरकार से पलायन। नरेन्द्र मोदी छोटी सरकार के हामी हैं, पर यह सरकार भारी-भरकम हो गई है। यह उनके विचार के साथ विसंगति है, पर जो भी हुआ है वह राजनीतिक कारणों से है। 

इस मंत्रिमंडल विस्तार को जातीय, भौगोलिक और क्षेत्रीय राजनीति के लिहाज से परखने और समझने में समय लगेगा, पर इतना स्पष्ट है कि इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश की आंतरिक राजनीति को संबोधित किया गया है। जिस तरीके से उत्तर प्रदेश का जातीय-रसायन इस मंत्रिपरिषद में मिलाया गया है, उससे साफ है कि न केवल विधान सभा के अगले साल होने वाले चुनाव, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए सरकार ने अभी से कमर कस ली है। दूसरी तरफ सरकार अपनी छवि को सुधारने के लिए भी कृतसंकल्प लगती है। इसलिए इसमें राजनीतिक-मसालों के अलावा विशेषज्ञता को भी शामिल किया गया है।

सरकार ने महसूस किया है कि छवि को लेकर उसे कुछ करना चाहिए। प्रशासनिक अनुभव और छवि के अलावा सामाजिक-संतुलन बल्कि देश के अलग-अलग इलाकों के माइक्रो-मैनेजमेंट की भूमिका भी इसमें दिखाई पड़ती है। कई प्रकार के फॉर्मूलों को इस विस्तार में पढ़ा जा सकता है। स्वाभाविक रूप से मंत्रिमंडल का गठन राजनीतिक गतिविधि है। इसका रिश्ता चुनाव जीतने से ही है। नए मंत्रियों में उत्तर प्रदेश से सात, महाराष्ट्र से पाँच और गुजरात और कर्नाटक से चार-चार शामिल हुए हैं। उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव हैं, जहाँ सोशल-इंजीनियरी की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उत्तर प्रदेश में पार्टी ने न केवल जातीय संरचना को बल्कि राज्य की भौगोलिक संरचना को भी ध्यान में रखा है। गुजरात में भी अगले साल चुनाव हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्थापित किया है कि मैं बड़े से बड़ा फैसला करने को तैयार हूँ। इस परिवर्तन से यह बात भी स्थापित हुई है कि पार्टी और सरकार के भीतर अपनी छवि को लेकर गहरा मंथन है। कुछेक महत्वपूर्ण नेताओं को छोड़ दें, तो इस बदलाव के छींटे पुरानेमंत्रियों पर पड़े हैं। उनमें रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावडेकर, हर्षवर्धन, संतोष गंगवार, रमेश पोखरियाल निशंक जैसे सीनियर नेता भी शामिल हैं। डॉ हर्षवर्धन को महामारी और खासतौर से दूसरी लहर का सामना करने में विफलता की सजा मिली है, पर अर्थव्यवस्था भी मुश्किल में है, फिर भी निर्मला सीतारमन अपनी जगह कायम हैं। 

प्रधानमंत्री ने निर्मला सीतारमन पर भरोसा जताया है। दूसरी तरफ रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावडेकर को लेकर अभी समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्यों हटे हैं। रविशंकर प्रसाद के कंधों पर इलेक्ट्रॉनिक्स-क्रांति की जिम्मेदारी थी। ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया कम्पनियों के खिलाफ मोर्चा भी उन्होंने खोला था। क्या उन्हें विफल माना गया? या उन्हें कोई दूसरी भूमिका देने की योजना है? यही बात प्रकाश जावडेकर पर लागू होती है। इस समय वे सरकार के सबसे महत्वपूर्ण प्रवक्ता माने जाते थे। जितना जबर्दस्त मंत्रिमंडल का विस्तार है, उससे ज्यादा जबर्दस्त है सरकार का संकुचन।