पिछले साल इतिहासकार युवाल नोवा हरारी ने फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित अपने एक लेख में कहा था कि आपातकाल ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को ‘फास्ट फॉरवर्ड’ करता है। जिन फ़ैसलों को करने में बरसों लगते हैं, वे रातोंरात हो जाते हैं। उन्हीं दिनों बीबीसी के न्यूज़ऑवर प्रोग्राम में उन्होंने कहा, महामारी ने वैज्ञानिक और राजनीतिक दो तरह के सवालों को जन्म दिया है। वैज्ञानिक चुनौतियों को हल करने की कोशिश तो दुनिया कर रही है लेकिन राजनीतिक समस्याओं की ओर उसका ध्यान कम गया है।
पिछले साल जबसे
महामारी ने घेरा है, दुनियाभर के समाजशास्त्री इस बात का विवेचन कर रहे हैं कि
इसका जीवन और समाज पर क्या असर होने वाला है। यह असर जीवन के हर क्षेत्र में होगा,
मनुष्य की मनोदशा पर भी। हाल में विज्ञान-पत्रिका ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ ने इस दौरान इंसान के भीतर पैदा हुए
गुहा लक्षण (केव सिंड्रोम) का उल्लेख किया है।
गुहा-मनोदशा
एक साल से ज्यादा समय से लगातार गुफा में रहने के बाद व्यक्ति के मन में अलग-थलग रहने की जो प्रवृत्ति पैदा हो गई है, क्या वह स्थायी है? क्या इंसान खुद को फिर से उसी प्रकार स्वतंत्र और सुरक्षित महसूस कर पाएगा, जैसा पहले था? क्या ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ दुनिया का स्थायी-भाव होगा? कम से कम इस पीढ़ी पर तो यह बात लागू होती है। वैक्सीन लेने के बाद भी हम खुद को पूरी तरह सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं।