Monday, March 15, 2021

सियासी आँधी में घिरे इमरान खान

पाकिस्तानी संसद के ऐवान-ए-बाला यानी सीनेट के चुनाव में हार के बाद प्रधानमंत्री इमरान खान ने वहाँ की राष्ट्रीय असेम्बली में विश्वासमत हासिल कर लिया है। शनिवार 6 मार्च को हुए मतदान में उनके पक्ष में 178 वोट पड़े, जबकि विरोधी दलों ने मतदान का बहिष्कार किया। पर ये 178 वोट खुले मतदान में पड़े हैं, जबकि सीनेट का चुनाव गुप्त मतदान से हुआ था। लगता है कि कुछ सदस्यों को मौके का इंतजार है, पर वे खुलकर सामने आना भी नहीं चाहते।

इस वक़्त सबसे अहम सवाल है कि देश के विरोधी दलों का उगला हदफ़ (निशाना) क्या होगा? पर्यवेक्षकों का कहना है कि एकबार शिगाफ़ (दरार) पड़ जाए, तो बार-बार उसपर वार करना जरूरी होता है। लगता है कि इमरान खान की सत्ता कमज़ोर पड़ रही हैं। अलबत्ता विरोधी दलों ने 26 मार्च को पूरे देश में लांग मार्च का कार्यक्रम बनाया है। इस लांग मार्च के साथ ही देश में फिर से चुनाव कराने की माँग शुरू हो गई है।

फौज किसके साथ?

फिलहाल विपक्ष सीनेट में अपना अध्यक्ष लाने की कोशिश करेगा और उसके बाद पंजाब की सूबाई सरकार को गिराने या बदलवाने की। मरियम नवाज शरीफ का कहना है कि पंजाब में पीटीआई के विधायकों ने अब हमसे सम्पर्क करना शुरू कर दिया है। यानी कहानी अभी खत्म नहीं हुई है, बल्कि उसका अगला अध्याय शुरू होने जा रहा है। सवाल यह भी है कि फौज (जिसे पाकिस्तान में एस्टेब्लिशमेंट या व्यवस्था कहा जाता है) किसके साथ है?

इमरान खान का विश्वासमत हासिल करना भी पाकिस्तान की राजनीति के लिहाज से अटपटा है। अप्रेल 2010 में हुए संविधान के 18वें संशोधन के बाद यह पहला मौका था, जब किसी प्रधानमंत्री ने विश्वासमत हासिल किया है। इसके पहले जरूरी होता था कि नवनियुक्त प्रधानमंत्री अपना पद संभालने के 30 दिन के भीतर विश्वासमत हासिल करे। अब सांविधानिक-व्यवस्था में इसकी जरूरत नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 91 की धारा 7 के अनुसार जब तक बहुमत को लेकर राष्ट्रपति को संदेह नहीं हो, वह अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं करेगा।

इमरान खान को अपनी तरफ से विश्वासमत हासिल करने की कोई जरूरत थी भी नहीं थी। उनसे राष्ट्रपति ने नहीं कहा था। शायद वे असुरक्षा से घिरे हैं और अपना बहुमत साबित करके अपने सुरक्षा-घेरे को मजबूत करना चाहते हैं। इमरान के पक्ष 155 वोट उनकी पार्टी पीटीआई के थे, सात एमक्यूएम (पी) के पाँच-पाँच बलोचिस्तान अवामी पार्टी, और पाकिस्तान मुस्लिम लीग-क़ायद और एक-एक वोट अवामी मुस्लिम लीग और जम्हूरी वतन पार्टी का था।

Saturday, March 13, 2021

टेक्नो-लोकतंत्र की खुली खिड़की और हवाओं को कैद करने की कोशिशें


डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के विनियमन के लिए केंद्र सरकार की नवीनतम कोशिशों को लेकर तीन तरह की दलीलें सुनाई पड़ रही हैं। पहली यह कि विनियमन न केवल जरूरी है, बल्कि इसे
नख-दंत की जरूरत है। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने भी कही है। दूसरी, विनियमन ठीक है, पर इसका अधिकार सरकार के पास नहीं रहना चाहिए। इस दलील में उन बड़ी तकनीकी कंपनियों के स्वर भी शामिल हैं, जिनके हाथों में डिजिटल (या सोशल) मीडिया की बागडोर है। और तीसरी दलील मुक्त-इंटरनेट के समर्थकों की है, जिनका कहना है कि सरकारी गाइडलाइन न केवल अनैतिक है, बल्कि असांविधानिक भी हैं। इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन का यह विचार आगे जाकर आधार, आरोग्य सेतु और  प्रस्तावित डीएनए कानून को भी सरकारी सर्विलांस का उपकरण मानता है।  

लोकतंत्र के तीन स्तम्भ धीरे-धीरे आकार ले रहे हैं। इनमें पहला राज्य है, जिसमें सरकार एक निकाय है, और जिसमें न्यायपालिका और राजनीतिक संस्थाएं शामिल हैं। दूसरे बाजार है, यानी बड़ी तकनीकी कम्पनियाँ। तीसरे स्वयं नागरिक। दुनिया के करीब सात अरब नागरिकों में से हरेक का अपना एजेंडा है। उनके प्रतिनिधित्व का दावा करने वाला एक अलग संसार है।

ग्लोबल ऑडियंस

सूचना के नियमन की कोशिश केवल भारत में ही नहीं है। युवाल नोवा हरारी के शब्दों में वैश्विक समस्याओं के वैश्विक समाधानखोजे जा रहे हैं। हाल में पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को जमानत पर रिहा करने का आदेश देते हुए अदालत ने कहा था, बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस की तलाश का अधिकार शामिल है। संचार पर भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं। एक नागरिक के पास कानून के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है।

स्वतंत्रता का यह एक नया आयाम है। इंटरनेट ने यह वैश्विक-खिड़की खोली है। नागरिक के जानकारी पाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े अधिकारों को पंख लगाने वाली तकनीक ने उसकी उड़ान को अंतरराष्ट्रीय जरूर बना दिया है, पर उसकी आड़ में बहुत से खतरे राष्ट्रीय सीमाओं में प्रवेश कर रहे हैं। सोचना उनके बारे में भी होगा।

Wednesday, March 10, 2021

पीसी चाको के हटने से कांग्रेस को एक और झटका


कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पीसी चाको ने पार्टी से नाता तोड़कर कांग्रेस पार्टी की आंतरिक राजनीति को चौराहे पर खड़ा कर दिया है। ऐसा नहीं है कि इस इस्तीफे से केरल में पार्टी की गुटबंदी खत्म हो जाएगा, पर इतना जरूर है कि केंद्रीय नेतृत्व का ध्यान इस ओर जाएगा। चाको ने कहा है कि पार्टी लगातार कमजोर होती जा रही है। इसके पीछे कोई और नहीं, खुद पार्टी है।

पीसी चाको ने अपना इस्तीफा पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को भेजा। केरल में 6 अप्रैल को होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पहले इस इस्तीफे से पार्टी की संभावनाओं पर भी असर पड़ेगा। यों भी माना जा रहा है कि इसबार वाममोर्चे की सरकार बनने जा रही है, जो केरल की राजनीति में एक नई बात होगी। अभी तक का चलन था कि एकबार वामपंथी सरकार बनती थी, तो उसके बाद कांग्रेसी। पर इसबार शायद वामपंथी सरकार लगातार दूसरी बार बनेगी।

चाको ने केरल में कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं रमेश चेन्नीथला और ओमान चैंडी और उनके दो गुटों पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि दोनों नेता हमेशा सीटें और संगठन के बाद आपस में बांट लेते हैं। केरल में केवल उन नेताओं का भविष्य है जो इनमें से किसी ग्रुप का हिस्सा हैं, अन्य को हमेशा दरकिनार कर दिया जाता है। मैं हाईकमान से कहता रहा हूं कि इस पर रोक लगनी चाहिए, लेकिन आलाकमान भी इन समूहों के दिए प्रस्तावों से सहमत है।''

चाको ने पार्टी के भीतर ग्रुप-23 का जिक्र भी किया। उन्होंने कहा, नेताओं ने मुझसे भी सम्पर्क साधा था, पर मैं किसी पत्र-अभियान के पक्ष में नहीं था। अलबत्ता मैं पत्र में उठाए गए सवालों से सहमत था। अफसोस की बात है कि पार्टी पिछले डेढ़ साल में अपने लिए अध्यक्ष नहीं खोज पाई।

Tuesday, March 9, 2021

अफगानिस्तान में बाइडेन की पहल के जोखिम

 


पिछले साल तालिबान के साथ हुए समझौते के तहत अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की तारीख 1 मई करीब आ रही है। सवाल है कि क्या अमेरिकी सेना हटेगी? ऐसा हुआ, तो क्या देश के काफी बड़े इलाके पर तालिबान का नियंत्रण हो जाएगा? अमेरिका क्या इस बात को देख पा रहा है? ऐसे में भारत की भूमिका किस प्रकार की हो सकती है? ऐसे तमाम सवालों को लेकर आज के इंडियन एक्सप्रेस में सी राजा मोहन का लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें भारतीय नीति के बरक्स इन सवालों का जवाब देने की कोशिश की गई है। इसमें उन्होंने लिखा है:-

इससे न तो 42-साल पुरानी लड़ाई खत्म होगी और न अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप खत्म हो जाएगा। पर पिछले कुछ दिनों में जो बाइडेन प्रशासन द्वारा शुरू किए गए शांति-प्रयासों से अफगानिस्तान के हिंसक घटनाचक्र में, जिसने दक्षिण एशिया और अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, एक नया अध्याय शुरू हो सकता है।

अफगानिस्तान में अपने हितों को देखते हुए, अमेरिका की नई महत्वाकांक्षी नीतिगत संरचना और उसे लागू करने में सामने आने वाली चुनौतियों के मद्देनज़र भारत की इसमें जबर्दस्त दिलचस्पी होगी।

ताजा पहल के बारे में पिछले सप्ताहांत अमेरिका के विशेष दूत जलमय खलीलज़ाद ने अफगानिस्तान से विदेशमंत्री एस जयशंकर के साथ बातचीत की। उम्मीद है कि इस महीने अमेरिकी रक्षामंत्री जनरल लॉयड ऑस्टिन की यात्रा के दौरान इस सवाल पर और ज्यादा बातचीत होगी।  

ट्रंप प्रशासन द्वारा शुरू की गई शांति-प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए बाइडेन प्रशासन ने भी इस क्षेत्र में चल रही लड़ाई को जल्द से जल्द खत्म करने की मनोकामना को रेखांकित किया है। इस सिलसिले में पाँच खास बातें सामने आती हैं।

पहली, बाइडेन की शांति-योजना में यह संभावना खुली हुई है कि अफगानिस्तान में तैनात करीब 2500 अमेरिकी सैनिक कुछ समय तक और रुक सकते हैं। वॉशिंगटन में बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप प्रशासन ने एक निश्चित तारीख की घोषणा करके अमेरिकी पकड़ को ढीला कर दिया है। बाइडेन उसे मजबूत करना चाहेंगे। बाइडेन इस पकड़ को इसलिए बनाए रखना चाहेंगे, क्योंकि तालिबान ने हिंसा के स्तर को कम करने के अपने वायदे को पूरा नहीं किया है। अमेरिका दूसरी तरफ अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ ग़नी पर भी दबाव डालेगा, क्योंकि वह उन्हें भी समस्या का हिस्सा मानता है।

Monday, March 8, 2021

क्या अब पिघलेगी भारत-पाक रिश्तों पर जमी बर्फ?


गुरुवार 25 फरवरी को जब भारत और पाकिस्तान की सेना ने जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम को लेकर सन 2003 में हुए समझौते का मुस्तैदी से पालन करने की घोषणा की, तब बहुतों ने उसे मामूली घोषणा माना। घोषणा प्रचारात्मक नहीं थी। केवल दोनों देशों के डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशंस (डीजीएमओ) ने संयुक्त बयान जारी किया। कुछ पर्यवेक्षक इस घटनाक्रम को काफी महत्वपूर्ण मान रहे हैं। उनके विचार से इस संयुक्त बयान के पीछे दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व की भूमिका है, जो इस बात को प्रचारित करना नहीं चाहता।

दोनों के बीच बदमज़गी इतनी ज्यादा है कि रिश्तों को सुधारने की कोशिश हुई भी तो जनता की विपरीत प्रतिक्रिया होगी। इस घोषणा के साथ कम से कम तीन घटनाक्रमों पर हमें और ध्यान देना चाहिए। एक, अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन की भूमिका, जो इस घोषणा के फौरन बाद अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता के बयान से स्पष्ट दिखाई पड़ती है। अफगानिस्तान में बदलते हालात और तीसरे भारत और चीन के विदेशमंत्रियों के बीच हॉटलाइन की शुरुआत।

उत्साहवर्धक माहौल

सन 2003 के जिस समझौते का जिक्र इस वक्त किया जा रहा है, वह इतना असरदार था कि उसके सहारे सन 2008 आते-आते दोनों देश एक दीर्घकालीन समझौते की ओर बढ़ गए थे। पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री खुर्शीद कसूरी ने अपनी किताब में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के कार्यकाल में हुई बैठकों का हवाला दिया है। भारतीय मीडिया में भी इस आशय की काफी बातें हवा में रही हैं। नवंबर 2008 के पहले माहौल काफी बदल गया था।