Thursday, October 1, 2020

बाबरी-पटाक्षेप अभी नहीं

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आने के बाद यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है। फैसले से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना अपराध नहीं था। पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद के जिस दीवानी मुकदमे पर फैसला सुनाया था, उसमें स्पष्ट था कि मस्जिद को गिराया जाना अपराध था। उस अपराध के दोषी कौन थे, यह इस मुकदमे में साबित नहीं हो सका। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी न्याय-व्यवस्था को कोसना शुरू करें। कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि मस्जिद गिरी ही नहीं, मस्जिद थी ही नहीं वगैरह।

हमारी धर्म निरपेक्षता, न्याय-व्यवस्था और प्रशासनिक के साथ यह राजनीति की परीक्षा की घड़ी भी है। मंदिर-मस्जिद विवाद को राजनीति से अलग करके नहीं देखना चाहिए। अभी इसके व्यापक निहितार्थ देखने को मिलेंगे। पर सबसे बड़ा असर सामाजिक जीवन में देखने को मिलेगा। कई बार हम सोचते हैं कि समय बड़े-बड़े घाव भर देता है। पर भावनाओं के मामले में समय घाव भरता नहीं उन्हें कुरेदता है।

Tuesday, September 29, 2020

प्रेरक पत्रकार हैरल्ड इवांस

मैंने अपना पत्रकारिता का जीवन जब शुरू किया, तब लाइब्रेरी में सबसे पहले एडिटिंग एंड डिजाइन शीर्षक से हैरल्ड इवांस की पाँच किताबों का एक सेट देखा था, जिसमें अखबारों के रूपांकन, ले-आउट, डिजाइन के आकर्षक ब्यौरे थे। इसके बाद उनकी कई किताबें देखने को मिलीं, जो या तो सम्पादन, लेखन या डिजाइन से जुड़ी थीं। फिर 1984 में फ्रंट पेज हिस्ट्री देखी। यह अपने आप में एक रोचक प्रयोग था। अखबारों में घटनाओं की रिपोर्टिंग और तस्वीरों के माध्यम से ऐतिहासिक विवरण दिया गया था। उन दिनों हैरल्ड इवांस की ज्यादातर रचनाएं पत्रकारिता के कौशल से जुड़ी हुई थीं। उसी दौरान रूपर्ट मर्डोक के साथ उनकी कहासुनी की खबरें आईं और अंततः लंदन टाइम्स से उनकी विदाई हो गई।

हैरल्ड इवांस ने मेरे जैसे न जाने कितने पत्रकारों को प्रेरित प्रभावित किया। मुझे खुशी तब हुई, जब सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में एमजे अकबर के नेतृत्व में आनंद बाजार पत्रिका समूह ने नई धज का अखबार टेलीग्राफ शुरू किया, तो उसमें इनसाइट नाम से एक पेज भी था, जो शायद संडे टाइम्स के इनसाइट से प्रेरित था। मैं उन दिनों स्वतंत्र भारत में काम करता था। संडे टाइम्स की एक कॉपी पायनियर के दफ्तर में आती थी, जो डॉ सुरेंद्र नाथ घोष के कमरे में रहती थी। हमें पढ़ने को नहीं मिलती थी। इधर-उधर से या ब्रिटिश लाइब्रेरी जाकर पढ़ लेते थे। अक्तूबर 1983 में मैं नवभारत टाइम्स के लखनऊ दफ्तर में आया, तो वहाँ संडे टाइम्स पढ़ने को मिलता था। राजेंद्र माथुर दिल्ली से एक कॉपी भिजवाते थे। पर तबतक हैरल्ड इवांस संडे टाइम्स से हट चुके थे।

हाल में जब उनके निधन की खबर आई, तब लगा कि युग वास्तव में बदल गया है। पत्रकारिता की परिभाषा बदल गई है और उसे संरक्षण देने वालों का नजरिया भी। हैरल्ड इवांस उस परिवर्तन की मध्य-रेखा थे, जिनके 70 वर्षीय करियर में करीब आधा समय खोजी पत्रकारिता को उच्चतम स्तर तक पहुँचाने में लगा। और फिर सत्ता-प्रतिष्ठान की ताकत से लड़ते हुए वह सम्पादक, एक प्रखर लेखक और प्रकाशक बन गया। 92 साल की वय में उन्होंने संसार को अलविदा कहा। इसके पहले उन्होंने न जाने कितने किस्म के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक घोटालों का पर्दाफाश किया, मानवाधिकार की लड़ाइयाँ लड़ीं और मानवीय गरिमा को रेखांकित करने वाली कहानियों को दुनिया के सामने रखा।

Monday, September 28, 2020

अफ़ग़ान-वार्ता से कुछ न कुछ हासिल जरूर होगा


अफग़ानिस्तान में शांति स्थापना के लिए सरकार और तालिबान के बीच बातचीत दोहा में चल रह है। पहली बार दोनों पक्ष दोहा में आमने-सामने हैं। इस वार्ता के दौरान यह बात भी स्पष्ट होगी कि देश की जनता का जुड़ाव किस पक्ष के साथ कितना है। पिछले चार दशकों में यह देश लगातार एक के बाद अलग-अलग ढंग की राज-व्यवस्थाओं को देखता रहा है। कोई भी पूरी तरह सफल नहीं हुई है। इन व्यवस्थाओं में राजतंत्र से लेकर कम्युनिस्ट तंत्र और कठोर इस्लामिक शासन से लेकर वर्तमान अमेरिका-परस्त व्यवस्था शामिल है, जो अपेक्षाकृत आधुनिक है, पर उसका भी जनता के साथ पूरा जुड़ाव नहीं है। इसमें भी तमाम झोल हैं।

पिछले साल हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव के बाद अशरफ गनी के जीतने की घोषणा हुई, पर अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया। अंततः उनके साथ समझौता करना पड़ा और अब्दुल्ला अब्दुल्ला अब राष्ट्रीय सुलह-समझौता परिषद के अध्यक्ष हैं और इस वार्ता में सरकारी पक्ष का नेतृत्व कर रहे हैं। इस सरकार का देश के ग्रामीण इलाकों पर नियंत्रण नहीं है। तालिबान का असर बेहतर है। उनके बीच भी कई प्रकार के कबायली ग्रुप हैं।

अमेरिकी पलायन

पिछले दो दशक से अमेरिका और यूरोप के देश काबुल सरकार का सहारा बने हुए थे, पर वे अब खुद भागने की जुगत में हैं। कहना मुश्किल है कि विदेशी सेना की वापसी के बाद की व्यवस्था कैसी होगी, पर अच्छी बात यह है कि सभी पक्षों के पास पिछले चार दशक की खूंरेज़ी के दुष्प्रभाव का अनुभव है। सभी पक्ष ज्यादा समझदार और व्यावहारिक हैं।

Sunday, September 27, 2020

संजीदगी पर हावी राजनीतिक शोर

हाल में सम्पन्न हुआ संसद का मॉनसून सत्र पिछले दो दशकों का सबसे छोटा सत्र था। महामारी के प्रसार को देखते हुए यह स्वाभाविक भी था, पर इस जितने कम समय के लिए इसका कार्यक्रम बनाया गया था, उससे भी आठ दिन पहले इसका समापन करना पड़ा। बावजूद इसके संसदीय कर्म के हिसाब से यह सत्र काफी समय तक याद रखा जाएगा। इस दौरान लोकसभा ने निर्धारित समय की तुलना में 160 फीसदी और राज्यसभा ने 99 फीसदी काम किया। इन दस दिनों के लिए दोनों सदनों के पास 40-40 घंटे का समय था, जबकि लोकसभा ने करीब 58 घंटे और राज्यसभा ने करीब 39 घंटे काम किया। यह पहली बार हुआ जब सत्र के दौरान कोई अवकाश नहीं था। दोनों सदनों ने अपने दस दिन के सत्र में 27 विधेयक पास किए और पाँच विधेयकों को वापस लेने की प्रक्रिया पूरी की गई। इन विधेयकों में 11 ऐसे थे, जिन्होंने जून में जारी किए गए अध्यादेशों का स्थान लिया। 

इस सत्र की जरूरत इसलिए भी थी, क्योंकि तमाम संसदीय कर्म अधूरे पड़े थे। इस सत्र के शुरू होने के पहले संसद के पास पहले से 46 विधेयक लंबित थे। इनके अलावा नए 22 विधेयक इस सत्र में लाए जाने थे। कुछ अध्यादेशों के स्थान पर विधेयकों को लाना था और कुछ विधेयकों को वापस लेना था। हमारी प्रशासनिक-व्यवस्था सफलता के साथ तभी चल सकती है, जब संसदीय कर्म कुशलता के साथ सम्पन्न होता रहे। संसदीय बहस, प्रश्नोत्तर और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव सुनने में मामूली बातें लगती हैं, पर ये बातें ही लोकतंत्र को सफल बनाती हैं।

Thursday, September 24, 2020

पत्रकारिता और राजनीति का द्वंद्व

यह आलेख मैंने अगस्त 2018 में लिखा था, जो गंभीर समाचार के पत्रकारिता से जुड़े विशेषांक में प्रकाशित हुआ था। मैं इसे अपने ब्लॉग में लगा नहीं पाया था। इन दिनों राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के संदर्भ में कुछ बातें उठीं, तो इस आलेख का एक अंश मैंने फेसबुक में लगाया। संभव है, कोई पाठक इसे पूरा पढ़ने चाहें, तो मैं इसे यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ। इसके संदर्भ 2018 के ही रहेंगे। 

हाल में एबीपी न्यूज चैनल के तीन वरिष्ठ सदस्यों को इस्तीफे देने पड़े। इन तीन में से पुण्य प्रसून वाजपेयी ने बाद में एक वैबसाइट में लेख लिखा, जिसमें उस घटनाक्रम का विस्तार से विवरण दिया, जिसमें उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इस विवरण में एबीपी न्यूज़ के प्रोपराइटर के साथ, जो एडिटर-इन-चीफ भी हैं उनके एक संवाद के कुछ अंश भी थे। संवाद का निष्कर्ष था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत आलोचना से उन्हें बचना चाहिए।

इस सिलसिले में ज्यादातर बातें पुण्य प्रसून की ओर से या उनके पक्षधरों की ओर से सामने आई हैं। चैनल के मालिकों और प्रबंधकों ने कोई स्पष्टीकरण जारी नहीं किया। एक और खबर ने हाल में ध्यान खींचा है। जेडीयू के उम्मीदवार हरिवंश नारायण सिंह कांग्रेसी उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद को हराकर राज्यसभा के उप-सभापति चुन लिए गए।

हरिवंश मूलतः पत्रकार हैं और लम्बे समय तक उन्होंने रांची के अखबार प्रभात खबर का सम्पादन किया। वे जेडीयू प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर राज्यसभा आए थे। संसद के उच्च सदन की परिकल्पना लेखकों, वैज्ञानिकों, पत्रकारों और ललित कलाओं से जुड़े व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व देने की भी है, पर उसके लिए मनोनयन की व्यवस्था है।