Thursday, June 7, 2018

क्या ‘आप’ से हाथ मिलाएगी कांग्रेस?


सतीश आचार्य का कार्टून साभार
भाजपा-विरोधी दलों की राष्ट्रीय-एकता की खबरों के बीच एक रोचक सम्भावना बनी है कि क्या राष्ट्रीय राजधानी में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का भी गठबंधन होगा? हालांकि दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय माकन ने ऐसी किसी सम्भावना से इंकार किया है, पर राजनीति में ऐसे इंकारों का स्थायी मतलब कुछ नहीं होता.

पिछले महीने कर्नाटक में जब एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में अरविंद केजरीवाल और सोनिया-राहुल एक मंच पर खड़े थे, तभी यह सवाल पर्यवेक्षकों के मन में कौंधा था. इसके पहले सोनिया गांधी विरोधी दलों की एकता को लेकर जो बैठकें बुलाती थीं, उनमें अरविन्द केजरीवाल नहीं होते थे. कर्नाटक विधान-सौध के बाहर लगी कुर्सियों की अगली कतार में सबसे किनारे की तरफ वे भी बैठे थे.

Wednesday, June 6, 2018

संघ से क्या कहेंगे प्रणब मुखर्जी?


पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में होने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रम के संदर्भ में यह कहकर पहेली को जन्म दे दिया है, कि जो कुछ भी मुझे कहना है, मैं नागपुर में कहूंगा. अब कयास इस बात के हैं कि प्रणब दादा क्या कहेंगे? वे जो भी कहेंगे दो कारणों से महत्वपूर्ण होगा. एक, संघ के बारे में उनकी धारणा स्पष्ट होगी. दूसरे, राष्ट्रपति का पद छोड़ने के बाद वे दलगत राजनीति से बाहर हैं. क्या उनके जैसे वरिष्ठ राजनेता के लिए देश में ऐसा कोई स्पेस है, जहाँ से वे अपनी स्वतंत्र राय दे सकें?  

Sunday, June 3, 2018

बंगाल में राजनीतिक हिंसा

हाल में जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव का प्रचार चल रहा था, पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव हो रहे थे। मीडिया पर कर्नाटक छाया था, बंगाल पर ध्यान नहीं था। अब खबरें आ रहीं हैं कि बंगाल में लोकतंत्र के नाम हिंसा का तांडव चल रहा था। पिछले हफ्ते पुरुलिया जिले में बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या का मामला सामने आने पर इसकी वीभत्सता का एहसास हुआ है। 20 साल के त्रिलोचन महतो की लाश घर के पास ही नायलन की रस्सी ने लटकती मिली। महतो ने जो टी-शर्ट पहनी थी, उसपर एक पोस्टर चिपका मिला जिसपर लिखा था, बीजेपी के लिए काम करने वालों का यही अंजाम होगा। जाहिर है कि इस हत्या की प्रतिक्रिया भी होगी। वह बंगाल, जो भारत के आधुनिकीकरण का ध्वजवाहक था। जहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर और शरत चन्द्र जैसे साहित्यकारों ने शब्द-साधना की। कला, संगीत, साहित्य, रंगमंच, विज्ञान, सिनेमा जीवन के तमाम विषयों पर देश का ऐसा कोई श्रेष्ठतम कर्म नहीं है, जो बंगाल में नहीं हुआ हो। क्या आपने ध्यान दिया कि उस बंगाल में क्या हो रहा है? 

Sunday, May 27, 2018

विरोधी-एकता के पेचो-ख़म



कर्नाटक विधान सौध के मंच पर विरोधी दलों की जो एकता हाल में दिखाई पड़ी है, उसमें नयापन कुछ भी नहीं था। यह पहला मौका नहीं था, जब कई दलों के नेताओं ने हाथ उठाकर अपनी एकता का प्रदर्शन करते हुए फोटो खिंचाई है। एकता के इन नए प्रयासों में सोशल इंजीनियरी की भूमिका ज्यादा बड़ी है। यह भूमिका भी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और हरियाणा जैसे उत्तर भारत के कुछ राज्यों पर केन्द्रित है। लोकसभा की सीटें भी इसी इलाके में सबसे ज्यादा हैं। चुनाव-केन्द्रित इस एकता के फौरी फायदे भी मिले हैं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, फूलपुर चुनावों में यह एकता नजर आई और सम्भव है कि अब कैराना में इस एकता की विजय हो। इतना होने के बावजूद इस एकता को लेकर कई सवाल हैं।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद बनी विरोधी-एकता ने कुछ प्रश्नों और प्रति-प्रश्नों को जन्म दिया है। बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की सफलता के बाद पूरे देश में ऐसा ही गठबंधन बनाने की कोशिशें चल रहीं हैं। पिछले साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर गठबंधन के प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा भी था। बावजूद इसके पिछले डेढ़ साल में तीन महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हुए, जिनमें ऐसा गठबंधन मैदान में नहीं उतरा। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन बना, पर उसमें बहुजन समाज पार्टी नहीं थी। गुजरात में कांग्रेस के साथ एनसीपी नहीं थी। कर्नाटक में चुनाव परिणाम आने के दिन बारह बजे तक गठबंधन नहीं था। फिर अचानक गठबंधन बन गया।

Saturday, May 26, 2018

चार साल में ‘ब्रांड’ बन गए मोदी


केन्द्र सरकार की पिछले चार साल की उपलब्धि है नरेन्द्र मोदी को ब्रांड के रूप में स्थापित करना. पिछले चार साल की सरकार यानी मोदी सरकार. स्वतंत्रता के बाद की यह सबसे ज्यादा व्यक्ति-केन्द्रित सरकार है. विरोधी-एकता के प्रवर्तक चुनाव-पूर्व औपचारिक गठबंधन करने से इसलिए कतरा रहे हैं, क्योंकि उनके सामने एक नेता खड़ा करने की समस्या है. जो नेता हैं, वे आपस में लड़ेंगे, जिससे एकता में खलल पड़ेगा, दूसरे उनके पास नरेन्द्र मोदी के मुकाबले का नेता नहीं है.

पिछले चार वर्षों को राजनीति, प्रशासन, अर्थ-व्यवस्था, विदेश-नीति और संस्कृति-समाज के धरातल पर परखा जाना चाहिए. सरकार की ज्यादातर उपलब्धियाँ सामाजिक कार्यक्रमों, प्रशासनिक फैसलों और विदेश-नीति से और अधिकतर विफलताएं सांविधानिक-प्रशासनिक संस्थाओं को कमजोर करने और सामाजिक ताने-बाने से जुड़ी हैं. गोहत्या के नाम पर निर्दोष नागरिकों की हत्याएं हुईं. दलितों को पीटा गया वगैरह. सरकार पर असहिष्णुता बढ़ाने के आरोप लगे.