वैश्विक व्यवस्था
और खासतौर से अर्थ-व्यवस्था का प्रभावशाली हिस्सा बनने के लिए भारत को अपने
सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और सामरिक
रिश्तों को भी पुनर्परिभाषित करना होगा। जो देश आर्थिक रूप से सबल हैं वे सामरिक
रूप से भी मजबूत हैं। उनकी संस्कृति ही दुनिया के सिर पर चढ़कर बोलती है। संयुक्त
राष्ट्र के गठन के समय अंग्रेजी और फ्रेंच दो भाषाओं को औपचारिक रूप से उसकी भाषाएं
माना जाता था। फिर 1948 में इसमें रूसी
भाषा जुड़ी, इसके बाद
स्पेनिश। सत्तर के दशक में चीनी भाषा इसमें शामिल हुई। उसके बाद अरबी को आधिकारिक
भाषा बनाया गया। सत्तर के दशक में पेट्रोलियम की ताकत ने अरबी को वैश्विक भाषा का
दर्जा दिलाया था। सन 77 में जब तत्कालीन
विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था, तब से यह माँग की जा रही
है कि हिंदी को भी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना चाहिए। उसे आधिकारिक भाषा बनाने
के लिए भारी खर्च की व्यवस्था करनी होगी इसलिए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक
भाषा नहीं बनाया जा सकता। अपनी बात कहने का अधिकार उन्हें ज्यादा है जिनके पास
सामर्थ्य है।
Saturday, November 8, 2014
Sunday, November 2, 2014
राजनीति के साथ गवर्नेंस का मसला भी है काला पैसा
काले धन का मसला राजनीति नहीं गवर्नेंस से जुड़ा है। भारतीय
जनता पार्टी ने इसे चुनाव का मसला बनाया था, पर अब उसे इस मामले में प्रशासनिक कौशल
का परिचय देना होगा। सवाल केवल काले धन का पता लगाने और उसे वापस लाने का नहीं है,
बल्कि बुनियाद पर प्रहार करने का है। काला धन जन्म क्यों लेता है और इस चक्र को
किस तरह रोका जाए? कुछ लोगों का अनुमान है कि भारत में काले धन की व्यवस्था सकल राष्ट्रीय
उत्पाद की 60 से 65 फीसदी है। यानी लगभग 60 से 65 लाख करोड़ रुपए के कारोबार का
हिसाब-किताब नहीं है। इससे एक ओर सरकारी राजस्व को घाटा होता है दूसरे
मुद्रास्फीति बढ़ती है। पर इसे रोकने के लिए आप क्या करते हैं?
Saturday, November 1, 2014
जानकारी देने में घबराते क्यों हो?
सूचना पाने के अधिकार से जुड़ा कानून बन जाने भर से काम
पूरा नहीं हो जाता। कानून बनने के बाद उसके व्यावहारिक निहितार्थों का सवाल सामने
आता है। पिछले साल जब देश के छह राजनीतिक दलों को नागरिक के जानकारी पाने के
अधिकार के दायरे में रखे जाने की पेशकश की गई तो दो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं।
इसका समर्थन करने वालों को लगता था कि राजनीतिक दलों का काफी हिसाब-किताब अंधेरे
में होता है। उसे रोशनी में लाना चाहिए। पर इस फैसले का लगभग सभी राजनीतिक दलों ने
विरोध किया। पर प्रश्न व्यापक पारदर्शिता और जिम्मेदारी का है। देश के तमाम
राजनीतिक दल परचूनी की दुकान की तरह चलते हैं। केवल पार्टियों की बात नहीं है पूरी
व्यवस्था की पारदर्शिता का सवाल है। जैसे-जैसे कानून की जकड़ बढ़ रही है वैसे-वैसे
निहित स्वार्थ इस पर पर्दा डालने की कोशिशें करते जा रहे हैं।
Sunday, October 26, 2014
कांग्रेस की गांधी-छत्रछाया
पी चिदंबरम के ताज़ा वक्तव्य से इस बात का आभास नहीं मिलता
कि कांग्रेस के भीतर परिवार से बाहर निकलने की कसमसाहट है। बल्कि विनम्रता के साथ
कहा गया है कि सोनिया गांधी और राहुल को ही पार्टी का भविष्य तय करना चाहिए। हाँ,
सम्भव है भविष्य में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बन जाए।
इस वक्त पार्टी का मनोबल बहुत गिरा हुआ है। इस तरफ तत्परता से ध्यान देने और
पार्टी में आंतरिक परिवर्तन करने का अनुरोध उन्होंने ज़रूर किया। पर यह अनुरोध भी
सोनिया और राहुल से है। साथ ही दोनों से यह अनुरोध भी किया कि वे जनता और मीडिया
से ज्यादा से ज्यादा मुखातिब हों। इस मामले में उन्होंने भाजपा को कांग्रेस से
ज्यादा अंक दिए हैं।
Thursday, October 23, 2014
बदलते अंधेरे और बदलते चिराग़
इस साल लालकिले
के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, मेड इन
इंडिया के साथ-साथ दुनिया से कहें ‘मेक इन इंडिया.’ भारत की यात्रा पर आए चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा, ‘चीन दुनिया का कारखाना है और भारत दुनिया का दफ्तर.’
उधर सरसंघचालक मोहन भागवत ने विजयादशमी पर अपने संदेश में कहा, ‘हम अपने देवी और देवताओं की मूर्तियां व अन्य उत्पाद भी चीन से खरीद रहे
हैं,
जिस पर पूरी
तरह प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए.’ जाने-अनजाने दीपावली की
रात आप अपने घर में एलईडी के जिन नन्हें बल्बों से रोशनी करने वाले हैं उनमें से
ज्यादातर चीन में बने हैं. वैश्वीकरण की बेला में क्या हम इन बातों के निहितार्थ और
अंतर्विरोधों को समझ रहे हैं?
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