प्रमोद मुतालिक भाजपा में
शामिल क्यों हुए और पाँच घंटे के भीतर बाहर क्यों कर दिए गए? क्या वजह है कि पार्टी को जसवंत सिंह, आडवाणी
और हरिन पाठक जैसे वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करनी पड़ती है? यह कहानी सिर्फ भाजपा की नहीं है. बूटा सिंह,
सतपाल महाराज, सीके जाफर शरीफ, डी पुरंदेश्वरी और जगदम्बिका पाल जैसे नेताओं ने
कांग्रेस क्यों छोड़ी? राम कृपाल यादव और राम
विलास पासवान ने अपना भाजपा विरोध क्यों त्यागा? बंगाल में माकपा विधायक पार्टी छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल क्यों हो
रहे हैं? ये सवाल मन में तो आते हैं पर हम उन्हें पूछते
नहीं. हमने मान लिया है कि राजनीति में सब जायज है.
Tuesday, March 25, 2014
Monday, March 24, 2014
राजनीति में उल्टा-पुल्टा
लालू प्रसाद यादव का साथ छोड़कर बिहार में रामकृपाल सिंह
भाजपा में शामिल हो गए। इसके पहले राम विलास पासवान की पार्टी ने भाजपा के साथ
गठबंधन किया। बिहार में भारतीय जनता पार्टी के एक हाथ में जाति का कार्ड है।
नरेंद्र मोदी को पिछड़ी जाति के नेता के रूप में भी पेश किया जा रहा है। उधर
मुलायम सिंह यादव और मायावती ब्राह्मण वोटर का मन जीतने की कोशिश में लगे हैं। कांग्रेस
पार्टी ने जाटों को आरक्षण देने की घोषणा की है। लगभग हर राज्य में जातीय, धार्मिक
और क्षेत्रीय आधार पर बने राजनीतिक गठजोड़ों ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। टिकट
वितरण शुरू होते ही अचानक पार्टियों से भगदड़ शुरू हो गई है। अब कोई नहीं देख रहा
है कि किस पार्टी में जा रहे हैं। कल तक उसके बारे में कुछ कहते थे। आज कुछ और
कहते हैं। आरजेडी के गुलाम गौस ने लालटेन छोड़कर जेडीयू का तीर थाम लिया। वहीं
पप्पू यादव ने फिर राजद में आ गए हैं। बीजेपी में नरेंद्र मोदी के लिए वाराणसी और
राजनाथ सिंह के लिए लखनऊ की सीट खाली कराना मुश्किल हो रहा है।
वोट जो सिर्फ बैंक नहीं है
भारतीय राजनीति में अनेक
दोष हैं, पर उसकी कुछ विशेषताएं दुनिया के तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती
हैं। यह फर्क उसके राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। बीसवीं सदी के शुरू में इस आंदोलन ने
राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल ली और तबसे लगातार इसकी शक्ल राष्ट्रीय रही। इस आंदोलन
के साथ-साथ हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद, दलित चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के
आंदोलन भी चले। इनमें कुछ अलगाववादी भी थे। पर एक वृहत भारत की संकल्पना कमजोर
नहीं हुई। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ। छोटे
देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर जनता एक समूचे भारत के पक्ष
में थी। यह एक नई राजनीति थी, जिसकी धुरी था लोकतंत्र। कुछ लोग कहेंगे कि भारत
हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक अवधारणा है। पर वह सांस्कृतिक अवधारणा थी। लोकतंत्र
एकदम नई अवधारणा है। पर यह निर्गुण लोकतंत्र नहीं है। इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य
हैं।
Sunday, March 16, 2014
आप चाहेंगे तो सब बदलेगा
इस राज़ को एक
मर्दे फिरंगी ने किया फाश/हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते/जम्हूरियत एक
तर्जे हुकूमत है कि जिसमें/बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं
करते
चुनावी
लोकतंत्र को लेकर हमारे समाज में हमेशा अचम्भे और अविश्वास का भाव रहा है। इकबाल
की ये मशहूर पंक्तियाँ लोकतंत्र की गुणवत्ता पर चोट करती हैं। पर सच यह है कि
खराबियाँ समाज की हैं, बदनाम लोकतंत्र होता है। सन 2009 की बात है किसी आपराधिक
मामले में गिरफ्तार हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना
बजरंगी का वक्तव्य अखबारों में प्रकाशित हुआ। उनका कहना था, मैं राजनीति में आना चाहता हूँ। उनकी माँ
को यकीन था कि बेटा राजनीति में आकर
मंत्री बनेगा। जौनपुर या उसके आसपास के इलाके से वे जीत भी सकते हैं।
मुन्ना बजरंगी
ही नहीं तमाम लोग राजनीति में आना चाहते हैं। लोकतांत्रिक दुनिया में एक नया
कीर्तिमान स्थापित करने वाले मधु कोड़ा अपनी पार्टी के अकेले विधायक थे। फिर भी
मुख्यमंत्री बने। उन्होंने लोकतंत्र को क्या दिया?जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा है, 'दुनिया जिसे
राजनीति के नाम से जानती है वह केवल भ्रष्टाचार है और कुछ नहीं।' सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के इंग्लैंड में स्विफ्ट अपने दौर के श्रेष्ठ
पैम्फलेटीयर थे। उन्होंने उस दौर की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियों टोरी और ह्विग के
लिए पर्चे लिखे थे। वे श्रेष्ठ व्यंग्य लेखक थे। अखबारों में सम्पादकीय लेखन के
सूत्रधार। कहा जा सकता है कि दुनिया के पहले सम्पादकीय लेखक थे। पर राजनीति के
बारे में उनकी इतनी खराब राय क्यों थी?
ऐसा क्यों बोले केजरीवाल?
पत्रकारों को जेल
भेजने की धमकी इतने मुखर रूप में इससे पहले शायद किसी ने नहीं दी होगी। इसके पीछे
दुर्भावना से ज्यादा नासमझी नजर आती है। अरविंद केजरीवाल या उनकी टोली जिस
राजनीतिक राह पर चल रही है, उसकी सदाशयता की परीक्षा समय पर होगी, पर उसके पीछे
बचकानापन है यह बात साफ दिखाई पड़ रही है। इस नासमझी के कारण वे अपनी राजनीतिक
जमीन को हार भी सकते हैं, जो ठीक नहीं होगा। उन्हें पहली बात यह समझनी चाहिए कि वे
राष्ट्रीय क्षितिज पर दो कारणों से उभरे हैं। पहला व्यवस्था की बेरुखी से जनता
नाराज़ है और उसे वैकल्पिक शक्तियों की तलाश है। दूसरे, आम आदमी पार्टी खुद को
विकल्प के रूप में पेश कर रही है और जनता पहली नज़र में उस पर भरोसा करती है। यह
भरोसा टूटना नहीं चाहिए। पूरे मीडिया पर बिका होने का आरोप राजनीतिक है। और उस
आरोप को वापस लेना राजनीति है।
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