Friday, December 2, 2011

रिटेल बाजार खुलने से आसमान नहीं टूट पड़ेगा

ऐसा नहीं कि हमारे खुदरा कारोबार में बड़े प्लेयर पहले से नहीं थे। बिग बाजार, स्पेंसर, मोर और ईजी डे के स्टोर पहले से खुले हुए हैं। ईज़ी डे का पार्टनर पहले से वॉलमार्ट है। दुनिया की कौन सी चीज़ हमारे उपभोक्ता को उपलब्ध नहीं है। फर्क अब यह पड़ेगा कि मल्टी ब्रांड स्टोर खोलने में विदेशी कम्पनियाँ भी सामने आ सकेंगी। परोक्ष रूप में भारती-वॉलमार्ट पहले से मौजूद है। क्या हम यह कहना चाहते हैं कि देशी पूँजी पवित्र और विदेशी पूंजी पापी है? बेशक हमें अपने उत्पादकों के हित भी देखने चाहिए। वॉलमार्ट अपनी काफी खरीद चीन से करके अमेरिकी उपभोक्ता को सस्ते में पहुँचाता है। हमारे उत्पादक बेहतर माल बनाएंगे तो वह भारतीय माल खरीदेगा। हमें उनसे नई तकनीक और अनुभव चाहिए। आप देखिएगा भारतीय कारोबारी खुद आगे आ जाएंगे। नए शहरों और छोटे कस्बों में इतना बड़ा बाजार है कि वॉलमार्ट उसके सामने बौना साबित होगा। वस्तुतः सप्लाई चेन का गणित है। यदि बिचौलिए कम होंगे तो माल सस्ता होगा और किसान को प्रतियोगिता के कारण बेहतर कीमत मिलेगी। इसके अलावा भी अनेक तर्क हैं। तर्क इसके विपरीत भी हैं, पर यह फैसला ऐसी आफत नहीं लाने वाला है जैसी कि साबित की जा रही है। हमें देखना यह चाहिए कि आर्थिक गतिविधियों का लाभ गरीबों तक पहुँचे। आर्थिक गतिविधियों को रोकने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। इन बातों के पीछे की राजनीति को भी पढ़ने की कोशिश करें। उत्तर प्रदेश सरकार ने रिलायंस फ्रेश स्टोर नहीं खुलने दिए बाकी खुलने दिए। इससे क्या हासिल हुआ? और क्या साबित हुआ?

लगता है संसद का शीत सत्र भी हंगामों की भेंट चढ़ जाएगा। खुदरा कारोबार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की सरकारी नीति के विरोध में खिंची तलवारें बता रही हैं कि इस मामले का समाधान जल्द नहीं निकलेगा। आर्थिक उदारीकरण के शेष बचे कदम उठाने की कोशिशें और मुश्किल हो जाएंगी। राजनीतिक भ्रम की यह स्थिति देश के लिए घातक है। उदारीकरण को लेकर हमारे यहाँ कभी वैचारिक स्पष्टता नहीं रही। दो दशक के उदारीकरण का अनुभव एक-तरफा संकटों और समस्याओं का भी नहीं रहा है। उसके दो-तरफा अनुभव हैं। इस दौरान असमानता, महंगाई और बेरोजगारी की जो समस्याएं उभरी हैं वे उदारीकरण की देन हैं या हमारी राज-व्यवस्था की अकुशलता के कारण हैं? इस राजनीतिक अराजकता में शामिल सभी दल किसी न किसी रूप में उदारीकरण की गंगा में स्नान कर चुके हैं, पर मौका लगते ही वे इसके विरोध को वैतरणी पार करने का माध्यम समझे बैठे हैं।

Wednesday, November 30, 2011

मीडिया अपनी साख के बारे में सोचे, लोकपाल से न घबराए

हमारे देश में प्रेस की आज़ादी नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है। अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन की तरह प्रेस नाम की संस्था को मिले अधिकार से यह कुछ अलग है। पहली नज़र में यह अधिकार अपेक्षाकृत कमज़ोर लगता है, पर व्यावहारिक रूप से देखें तो जनता का अधिकार होने के नाते यह बेहद प्रभावशाली है। संविधान निर्माताओं ने इस अधिकार पर पाबंदियों के बारे में नहीं सोचा था। पर 1951 में हुए पहले संविधान संशोधन के माध्यम से इन स्वतंत्रताओं पर अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत युक्तियुक्त पाबंदियाँ भी लगाईं गईं। ये पाबंदियाँ अलग-अलग कानूनों के रूप में मौज़ूद हैं। भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ रिश्तों, लोक-व्यवस्था, शिष्टाचार और सदाचार, अश्लीलता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि और अपराध उद्दीपन को लेकर कानून बने हैं। इसी तरह पत्रकारों की हित-रक्षा का कानून वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट बना है। इन कानूनों को लागू करने में कोई दिक्कत नहीं तो दायरा लोकपाल का हो या उच्चतम न्यायालय का इससे फर्क क्या पड़ता है?

Monday, November 28, 2011

अर्थनीति को चलाने वाली राजनीति चाहिए

सन 1991 में जब पहली बार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को देश में लागू किया गया था तब कई तरह की आशंकाएं थीं। मराकेश समझौते के बाद जब 1995 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना तब भी इन आशंकाओं को दोहराया गया। पिछले बीस साल में इन अंदेशों को बार-बार मुखर होने का मौका मिला, पर आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। दिल्ली में कांग्रेस के बाद एनडीए की सरकार बनी। वह भी उस रास्ते पर चली। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की सरकारें आईं और गईं, पर उन्होंने भी उदारीकरण की राह ही पकड़ी। इस तरह मुख्यधारा की राजनीति में उदारीकरण की बड़ी रोचक तस्वीर बनी है। ज्यादातर बड़े नेता उदारीकरण का खुला समर्थन नहीं करते हैं, पर सत्ता में आते ही उनकी नीतियाँ वैश्वीकरण के अनुरूप हो जाती हैं। आर्थिक उदारी के दो दशकों का अनुभव यह है कि हम न तो उदारीकरण के मुखर समर्थक हैं और न विरोधी। इस अधूरेपन का फायदा या नुकसान भी अधूरा है।

नीतीश सरकार के छह साल

नीतीश सरकार के छः साल:न्याय के साथ
विकास की वास्तविक हकीकत


युवा पत्रकार गिरजेश कुमार ने नीतीश सरकार की उपलब्धियों पर यह आलेख लिखा है। बिहार में नीतीश सरकार को विकास का श्रेय मिला है, पर व्यावहारिक अर्थ में यह विकास कैसा है? साथ ही वहाँ का मीडिया क्या कर रहा है? अपनी राय दें।

डेढ़ दशक तक जंगल राज भुगत चुके बिहार के लोगों के लिए 24 नवंबर 2005 की सुबह जब स्पष्ट बहुमत के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता में आया तो लगा कि अब शायद बिहार का कायाकल्प हो जाएगा। बीमारू और सबसे पिछड़े राज्य के रूप में जाने जानेवाले बिहार की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पिछले पन्द्रह वर्षों के लालू-राबड़ी राज में जर्जर हो चुकी थी ऐसे में नयी सरकार के सामने दो चुनौतियाँ थी,एक जर्जर हो चुके सिस्टम को पटरी पर लाना और दूसरी जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरना। इस नयी सरकार ने पिछले २४ नवंबर को 6 साल पुरे कर लिए। अपनी दूसरी पारी के एक साल पूरा होने पर नीतीश सरकार ने “न्याय के साथ विकास यात्रा” नामक रिपोर्ट कार्ड जारी किया। ज़ाहिर है सरकार अपनी रिपोर्ट कार्ड में अपनी कमियाँ नहीं गिनाती लेकिन आखिर कितना बदला बिहार? यह सवाल अब भी मौंजू है? यह सवाल राजनीतिक गलियारों में भी उठना लाजिमी था।और उठा भी लेकिन राजनीतिक रोटी की आँच तले गुम हो गया। मीडिया ने तारीफों के पुल बाँधे और लोगों ने जैसे खुली आँखों से बिहार के विकास की तस्वीर खींच ली। रिपोर्ट कार्ड में बिहार में समृद्धि और खुशहाली का दावा किया गया है और तरक्की की राह पर अग्रसर बताया गया है लेकिन दावों को आँकड़ों की कसौटी पर कसकर देखा जाए तो वास्तविक हकीकत सामने आ जायेगी।

Saturday, November 26, 2011

लहू पुकारता है इशरत जहां का

सन 2002 के गुजरात दंगे और उसके बाद की घटनाएं देश की न्याय-व्यवस्था और राजनीति के लिए कसौटी बन गई हैं। सितम्बर में जब उच्चतम न्यायालय ने इन दंगों में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की भूमिका को लेकर फैसला सुनाया तब उसके दो मतलब निकाले गए। एक यह कि उन्हें क्लीन चिट मिल गई। और दूसरे यह कि उनके खिलाफ निचली अदालत में मुकदमे का रास्ता साफ हो गया है। सच यह है कि उन्हें क्लीन चिट नहीं मिली थी। पर उस फैसले को पेश इसी तरह किया गया। न्याय प्रक्रिया में देरी और जाँच में रुकावटें इस किस्म के भ्रम पैदा करती हैं। सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में कुछ पुलिस अफसरों की गिरफ्तारी के बाद से पहिया घूमा है और कई तरह के मामले सामने आ रहे हैं, जिनसे व्यवस्था के प्रति आश्वस्ति बढ़ती है। इनमें सबसे ताज़ा मामला है इशरत जहां का।

15 जून 2004 की सुबह अहमदाबाद के एक बाहरी इलाके में चार नौजवानों की लाशें पड़ी थीं। पुलिस का दावा था कि ये लश्करे तैयबा के आतंकी थे, जो मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या करना चाहते थे। पुलिस की विशेष टीम ने उन्हें मार गिराया। मरने वालों में एक मुम्बई की छात्रा इशरत जहाँ थी। उसकी उम्र 19 साल थी। उस पर किसी किस्म का आपराधिक मामला कभी दर्ज नहीं हुआ।