Thursday, July 22, 2010

फेसबुक मे पचास करोड़वाँ सदस्य

फेसबुक में पचास करोड़वें सदस्य के शामिल होते ही उत्साह की लहर है। फेसबुक बड़ी कम्पनी है। उसके पास डेटा का भंडार है। सारी दुनिया की कम्पनियाँ अब समझना चाहती हैं कि फेसबुक के डेटा का फायदा किस तरह उठाया जाय। फेसबुक ने कई तरह के एप्लीकेशंस को विकसित करने में मदद की है। इनमें ज्यादातर गेम्स के हैं। 


भारतीय संदर्भ में फेसबुक पर भारतीय राजनीति, जातिप्रथा, हंस के कार्यालय में विश्वरंजन और अरुंधती रॉय के बीच संवाद की संभावना से लेकर विश्व कप और शराब कैसे पिएं जैसे मसलों पर पर रोचक विमर्श चलने लगे हैं। शेरो-शायरी, जोक्स और फैक्टॉइड्स शेयर करने का बेहतर मौका मिलता है यहाँ। यहाँ पता लगता है कि हमारे बीच कितने अच्छे फोटोग्राफर मौजूद हैं। बहुत सी बातें पहले से सोचकर हुईं और बहुत सी बातें अनजाने हो रहीं हैं। 


हमारे मीडिया ने अभी फेसबुक की लोकप्रियता पर ध्यान नहीं दिया है। 

Wednesday, July 21, 2010

बाजार से भागकर कहाँ जाओगे?




पत्रकारों की तीन या चार पीढ़ियाँ हमारे सामने हैं। एक, जिन्हें रिटायर हुए पन्द्रह-बीस साल या उससे ज्यादा समय हो गया। दूसरे वे जो या तो रिटायर हो रहे हैं या दो-एक साल में होंगे। तीसरे जो 35 से 50 की उम्र के हैं और चौथे जिन्हें आए दस साल से कम का समय हुआ है या जो अभी शामिल ही हुए हैं। मीडिया के बारे में इन सब की राय एक जैसी नहीं है। 75 या 80 साल की उम्र वालों का अनुभव सिर्फ अखबारों का है। उसके बाद वाले इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट मीडिया से भी वाकिफ हैं। एकदम नई पीढ़ी को बड़े बदलावों का इंतज़ार है। पुरानी पीढ़ी मीडिया को संकटग्रस्त मानती है। वह इसे घटती साख और कम होते असर की दृष्टि से देखती है। नई पीढ़ी की दिलचस्पी अपने मेहनताने में है। अपने भविष्य और करियर में। दोनों मामले मीडिया के कारोबारी मॉडल से जुड़े हैं।


अक्सर हम लोग मीडिया के अंतर्विरोधों के लिए मार्केट को जिम्मेदार मानते हैं। हम यह नहीं देखते कि मार्केट न होता तो इतना विस्तार कैसे होता। इस विस्तार से गाँवों और कस्बों तक में बदलाव हुआ है। कई प्रकार की सामंती प्रवृत्तियों पर प्रहार हुआ है। जनता की लोकतांत्रिक भागीदारी बढ़ी है। हमारे पास इस विस्तार का कोई दूसरा मॉडल है भी नहीं। मार्केट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह आपको वैकल्पिक रास्ता खोजने का मौका देता है। आज भी यदि कोई संज़ीदा अखबार या गम्भीर चैनल शुरू करना चाहे तो उसपर रोक नहीं है। बाज़ार नई प्रवृत्तियों को खरीदने की कोशिश करता है। संज़ीदा पाठक या बाज़ार है तो यह उसे भी खरीद लेगा, जैसे रूपर्ट मर्डोक ने लंदन टाइम्स जैसा संज़ीदा अखबार खरीदा। इस मार्केट पर पाठक और लोकतंत्र का दबाव होगा तो यह नियंत्रण में रहेगा। फिर भी यह दीर्घकालीन हल नहीं है।


मीडिया, खासतौर से हिन्दी का जो कारोबारी मॉडल हमारे सामने है, वह पिछले डेढ़ दशक में उभरा है। पहले प्रेस आयोग को लगता था कि भारतीय प्रेस को इज़ारेदारी(मोनोपॉली) से बचाना चाहिए। वक्त के साथ यह अंदेशा सही साबित नहीं हुआ। बड़े मीडिया हाउसों के मुकाबले छोटे और स्थानीय स्तर के व्यापारियों ने हिन्दी के अखबार निकाले। अखबारों की बड़ी चेनें इनके सामने टूट गईं। ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इस पर कभी आगे चर्चा करेंगे। हिन्दी के पहले दस अखबारों में सिर्फ दो पुराने और बड़े मीडिया समूहों से जुड़े हैं। इनमें से एक के पास विस्तार का कोई भावी कार्यक्रम नज़र नहीं आता। हिन्दी को छोड़ दें तो देश की अन्य भाषाओं के अखबारों में से कोई भी अंग्रेजी अखबारों की परम्परागत चेन से नहीं निकला है। नई ओनरशिप खाँटी देशी है। उसके विकसित होने के पीछे तीन कारक हैं। एक, स्वभाषा प्रेम जो हमारे राज्यों के पुनर्गठन का आधार बना। दूसरे, स्थानीयता। और तीसरे राजनीति और राजव्यवस्था पर प्रभाव। इस तीसरे कारक के कारण बिल्डर या इसी किस्म के कारोबारी मीडिया की तरफ आकृष्ट हुए हैं। कुछ साल पहले तक चिट फंड कम्पनियों वाले इधर आए थे। ये सब मीडिया पर इतने कृपालु क्यों हुए हैं? मीडिया के इनफ्लुएंस के कारण ऐसा है। यह इनफ्लुएंस पाठक पर कम सरकार पर ज्यादा है। दूसरे अब इसमें मुनाफा भी है।


बिजनेस और राजनीति को भारतीय भाषाओं की अहमियत नज़र आई है। बिजनेस को इसमें फायदा दिखाई पड़ता है और राजनीति को वोट। भारतीय भाषाई अखबारों के शुरूआती मालिक स्थानीय कारोबारी थे। उनका बिजनेस मॉडल देशी था। अब वे बिजनेस-प्रबंध की अहमियत समझने लगे हैं। विस्तार के लिए पूँजी की ज़रूरत है। उसके लिए ये अखबार पूँजी बाज़ार की ओर जा रहे हैं। अखबार की गुणवत्ता, साख और करियर के सवाल इन बातों से जुड़े हैं। ये सवाल या तो पाठक के हैं या पत्रकार के। कारोबारियों के नहीं। कारोबारी को यहां तुरत फायदा नज़र आ रहा है, जिसे फिलिप मेयर हार्वेस्टिंग मार्केट पोज़ीशन कहते हैं। अखबार ईज़ी मनी के ट्रैप में हैं। यह ईज़ी मनी शेयर बाज़ार में भी है। पर यह सब ऐसा ही नहीं रहेगा। शेयर बाज़ार को भी ज्यादा ट्रांसपेरेंट बनाने की कोशिश होगी।


हाल में पेड न्यूज़ के जिस मसले पर हम माथा-पच्ची करते रहे हैं, वह सिर्फ मीडिया का मसला ही तो नहीं था। अनुमान है कि चुनाव के दौरान करीब 5000 करोड़ रुपया इस मद में खर्च हुआ। यह रुपया किसके पास से किसके पास गया? ऐसी पब्लिसिटी की किसी ने रसीद नहीं दी होगी। और न पक्की किताबों में इसका ब्योरा रखा गया होगा। इसका मतलब काली अर्थ-व्यवस्था में गया। यह काली अर्थव्यवस्था सिर्फ मीडिया हाउसों तक सीमित नहीं है। मीडिया-कर्म के विचार से इस काम से हमारी साख को धक्का लगा। यह धक्का किसे लगा?  पाठकों को, नेताओं को, चुनाव आयोग को या पत्रकारों को? मालिकों को क्यों नहीं लगा? अखबार तो उनके थे। अपने अखबार की साख गिरती देखना उन्हें खराब क्यों नहीं लगा?

दरअसल बहुत दूर की कोई नहीं सोचता। टेक्नॉलजी का बदलाव पूरे औद्योगिक ढाँचे को बदल देगा। अनेक उद्योग आने वाले वर्षों में गायब हो जाएंगे। अनेक कम्पनियाँ जो आज चमकती नज़र आ रहीं हैं, अगले कुछ साल में व्यतीत हो जाएंगी। ऐसा ही सूचना के साथ होने वाला है। अखबार या मीडिया इनफ्लुएंस बेचता है। पाठक उसके प्रभाव को मानता है। पर कारोबार को शायद यह बात समझ में नहीं आती। वह कॉस्ट कम करने और प्रॉफिट बढ़ाने के परम्परागत विचार पर कायम है। वह अपने दीर्घकालीन अस्तित्व के बारे में नहीं सोच रहा। उसकी बॉटमलाइन मुनाफा है। उसका ज़ोर ऐसी तकनीक खरीदने पर है जो लागत (कॉस्ट) कम करे। ऐसा वह बेहतर पत्रकारिता की कीमत पर कर रहा है। पत्रकारिता पर इनवेस्ट करना नादानी लगती है और उसकी सलाह देने वाले नादान। न्यूज़रूम पर इनवेस्ट करना घाटे का सौदा लगता है। आप कैसा भी अखबार निकालें, पैसा आता रहेगा तो आप इनोवेशन बंद कर देंगे। अंततः मीडिया न्यूज़ फैक्ट्री में तब्दील हो जाएगा।


पाठक की मीडिया से अपेक्षा सिर्फ खबरें बेचने की नहीं है। खासतौर से उस मीडिया से जो उसे धोखा देकर खबर के नाम पर विज्ञापन छापता है। इसपर भी शर्मिन्दा नहीं है। यह सूचना का युग है। इसमें सूचना की बहुलता हमारे दुष्कर्म का भंडाफोड़ भी कर देती है, पर उसकी परिणति क्या है? नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हर्बर्ट सायमन के शब्दों में इससे खबरदारी की मुफलिसी(पोवर्टी ऑफ अटेंशन) पैदा हो रही है। जनता हमपर ध्यान नहीं देगी। उसके बाद हम उन पर्चों जैसे बेजान हो जाएंगे जो हर सुबह हमारे अखबारों के साथ चिपके चले जाते हैं। और जिन्हें हम सबसे पहले अलग करते हैं। जो शानदार रंगीन छपाई के बावजूद हमारी निगाहों में नहीं चढ़ते।


मीडिया का मौजूदा मॉडल मार्केट-केन्द्रित है। वह ज़ारी रहेगा। उसे आप बदल नहीं पाएंगे। एक रास्ता यह है कि आप वैकल्पिक अखबार तैयार करें और उसे सफल बनाकर दिखाएं। पैसा लगाने वाले तब सामने आएंगे। पर अंततः मीडिया पर लगने वाली पूँजी और प्रॉफिट का गणित अलग ही होगा। उसपर वह पूँजी लगे, जिसे अपनी साख की फिक्र भी हो। संयोग से इसपर विचार भी शुरू हो गया है। उसपर फिर कभी।  

अफगानिस्तान में विश्व समुदाय

राष्ट्रपति हामिद करज़ाई को विश्वास है कि सन 2014 तक अफगानिस्तान की सुरक्षा व्यवस्था इतनी दुरुस्त हो जाएगी कि वह पूरे देश का जिम्मा ले सके। आज अमेरिका और नाटो देशों की फौजें यह काम कर रहीं हैं। बावजूद इसके आए दिन विस्फोट हो रहे हैं। मंगलवार को काबुल सम्मेलन के दिन भी हुए। जबकि उस रोज सेना ने समूचे देश को तकरीबन बंद कर दिया था। काबुल सम्मेलन ने करज़ाई को मज़बूती देने का समर्थन किया है जो स्वाभाविक है।


करज़ाई यह भी चाहते हैं कि देश के विकास के लिए जो रकम आ रही है उसका ज्यादा से ज्यादा हिस्सा उनके मार्फत खर्च हो। अभी तकरीबन 20 फीसद उन्हें मिलता है बाकी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के मार्फत खर्च होता है। करजाई सरकार को सबसे पहले भ्रष्टाचार कम करना चाहिए। सरकारी मशीनरी के भ्रष्ट होने के कारण जनता का उस पर विश्वास नहीं है।


यह ज़रूरी है कि अफगानिस्तान की सरकार न सिर्फ सुरक्षा बल्कि पूरे देश के विकास की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले। अफगानिस्तान को लम्बे अर्से तक अंतरराष्ट्रीय निगरानी में नहीं रखा जा सकता। पर पूरा देश जिस तरह की अराजकता का शिकार है उसे बड़ी से बड़ी विदेशी सेना भी नहीं सम्हाल सकती। यहाँ तालिबान को पाकिस्तानी सेना लाई थी। अल-कायदा को भी वही लाई। पूरे समाज को मध्य युगीन माहौल में पटक दिया गया है। यहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और कुशल नागरिक प्रशासन  की ज़रूरत है। उसके लिए एक ओर कड़ी सुरक्षा व्यवस्था चाहिए और दूसरी ओर आधुनिक सामाजिक-विमर्श की ज़रूरत है।


हिलेरी क्लिंटन को आज भी लगता है कि बिन लादेन पाकिस्तान में है और इस बात की जानकारी पाकिस्तानी सरकार में किसी न किसी को है। इतना साफ है कि पाकिस्तानी व्यवस्था पर भरोसा नहीं किया जा सकता। सिर्फ पाकिस्तान के कारण दक्षिण एशिया में माहौल बिगड़ा हुआ है। पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना और सिविल सोसायटी के मजबूत होने पर ही बेहतर परिणाम आ सकेंगे। ऐसा होने के बजाय प्रतिगामी ताकतें बीच-बीच में सिर उठा रहीं हैं।


अफगानिस्तान में बेहतर परिणाम के लिए भारत को भी शामिल किया जाना चाहिए, पर पाकिस्तान बजाय भारत के चीन को यहाँ लाना चाहता है। यह नज़रिया हालात को बेहतर करने के बज़ाय बिगाड़ेगा।


लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें 

Tuesday, July 20, 2010

पाक सुप्रीमकोर्ट में संविधान उछाला

पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में 17 सदस्यों के बेंच के सामने याचिका दायर करने वाले व्यक्ति  ने कहा, मैं चाहता हूँ कि देश के संविधान के ऊपर कुरान शरीफ हो। ऐसा कहने के बाद उस व्यक्ति ने संविधान की प्रति अदालत में उछाल दी जो फर्श पर जाकर गिरी। 


ऐसा करते हुए बेशक उस व्यक्ति ने अपनी धार्मिक आस्था को व्यक्त किया जो कहीं से अनुचित नहीं था। पाकिस्तान में धार्मिक नियमों को पूरी तरह लागू करने की माँग लम्बे अरसे से चली आ रही है। पर सिविल कानून के प्रति ऐसी उपेक्षा का भाव सदमा पहुँचाता है। हालांकि उस व्यक्ति ने बाद में माफी माँग ली, पर क्या इतना काफी है? 


इस्लाम के पास एक पूर्ण राजनैतिक और न्यायिक व्यवस्था है, फिर भी अनेक मुस्लिम देशों ने संविधान बनाए हैं। राज-व्यवस्था समय के साथ बदलाव भी माँगती है। देखते हैं कि इस घटना पर पाकिस्तान में क्या प्रतिक्रिया होती है। 

चीन का थ्री गॉर्जेस बाँध

चीन में यांग्त्सी नदी पर बने 'थ्री गॉर्जेस बाँध' पर दुनिया का सबसे बड़ा बिजलीघर है। इसकी क्षमता 22,500 मेगावॉट है। यह हर लिहाज से किसी भी तरह की बिजली का सबसे बड़ा उत्पादन केन्द्र है। यह बाँध 2006 में तैयार हो गया था, पर कुछ काम पिछले साल तक चले। 


इन दिनों इस बाँध की परीक्षा हो रही है। नदी में भारी बाढ़ है। इस बाँध ने काफी पानी रोक रखा है, जिससे इसके आगे के इलाकों में पानी भरने से रोका गया है। बाँध का एक उद्देश्य बाढ़ को नियंत्रित करना भी है। सैटेलाइट चित्र से आप समझ सकते हैं कि किस तरह से पहाड़ी इलाके में पानी का बहाव रोका गया गया है। 

इन दिनों आई बाढ़ से इस इलाके में क्या माहौल है और बाँध ने पानी किस तरह रोका है, इसपर देखें बीबीसी की रपट