Thursday, July 15, 2010

नई फीफा रैंकिंग

विश्व कप प्रतियोगिता खत्म होने के बाद फीफा की रैंकिंग में ब्राज़ील की टीम नम्बर एक से नम्बर तीन पर पहुँच गई है। स्पेन की टीम 2 से 1 पर और नीदरलैंड्स की टीम 4 से 2 पर आ गई है। जर्मन टीम 6 से 4 पर पहुँच गई है। सबसे बड़ा सदमा फ्रांस को लगा है। उसकी टीम 9 से हटकर 12 स्थान नीचे 21 पर पहुँच गई है। उरुग्वे की टीम 10, पैराग्वे 15, जापान 13, पेरू 15 और बेल्जियम की टीम 11 सीढ़ी ऊपर चढ़ गईं हैं। सबसे बड़ा धक्का केमरून को लगा है जो 19वें स्थान पर थी और अब 21 सीढ़ी नीचे उतर कर 40वें नम्बर पर आ गई है।


यह रैंकिंग 14 जुलाई को घोषित की गई है। अगली रैंकिंग 11 अगस्त को घोषित होगी। खुशी की बात यह है कि भारत की टीम एक सीढ़ी चढ़कर 133 से 132 पर आ गई है।

RankingTeamPts
Jul 10
+/- Ranking
May 10
+/- Pts
May 10
1Spain Spain18831Up318
2Netherlands Netherlands16592Up428
3Brazil Brazil1536-2Down-75
4Germany Germany14642Up382
5Argentina Argentina12892Up213
6Uruguay Uruguay115210Up253
7England England11251Up57
8Portugal Portugal1062-5Down-187
9Egypt Egypt10533Up86
10Chile Chile9888Up100
11Italy Italy982-6Down-202
12Greece Greece9751Up11
13USA USA9691Up12
13Serbia Serbia9692Up22
15Croatia Croatia968-5Down-73
16Paraguay Paraguay96115Up141
17Russia Russia956-6Down-59
18Switzerland Switzerland9406Up74
19Slovenia Slovenia9176Up57
20Australia Australia9110Equal25
21France France890-12Down-154
22Norway Norway8780Equal-4
23Ghana Ghana8749Up74
24Mexico Mexico872-7Down-23
25Ukraine Ukraine870-2Down-5
26Côte d'Ivoire Côte d'Ivoire8431Up-13
27Slovakia Slovakia8297Up52
28Turkey Turkey8101Up-20
29Denmark Denmark7857Up18
30Nigeria Nigeria773-9Down-110
31Czech Republic Czech Republic7692Up-24
32Japan Japan76813Up86
33Algeria Algeria759-3Down-62
34Gabon Gabon7558Up55
35Sweden Sweden7472Up-14
36Republic of Ireland Republic of Ireland7345Up25
37Israel Israel733-11Down-124
38Peru Peru72615Up148
39Colombia Colombia725-4Down-51
40Cameroon Cameroon710-21Down-177
41Scotland Scotland6992Up0
42Romania Romania697-14Down-156
43Bulgaria Bulgaria672-4Down-39
44Korea Republic Korea Republic6603Up28
45Burkina Faso Burkina Faso6463Up35
46Honduras Honduras644-8Down-90
47Venezuela Venezuela5922Up-16
48Belgium Belgium58911Up48
49Costa Rica Costa Rica584-9Down-126
50Latvia Latvia579-4Down-73


पूरी रैंकिंग देखें






प्रगतिशील इस्लाम


फ्रांस की संसद ने बुर्का पहनने पर पाबंदी लगाने का प्रस्ताव पास कर दिया है। हालांकि अभी यह कानून नहीं बना है। उसके लिए सितम्बर में इस प्रस्ताव को उच्च सदन यानी सीनेट से भी पास कराना होगा, पर इस कदम को जिस तरह का समर्थन प्राप्त है उससे लगता है कि यह प्रस्ताव आसानी से पास हो जाएगा। 

इस कदम का मतलब कई तरह से लगाया जा रहा है। पहली नज़र में इसे इस्लाम विरोधी या मुसलमानों से छेड़खानी करने वाला कदम माना जा रहा है। यों फ्रास की संवैधानिक व्यवस्था से ताल्लुक रखने वाले जानते हैं कि यह देश गहराई से सेक्युलर है। यहाँ 1905 से लागू संवैधानिक व्यवस्था ने धर्म और राज-व्यवस्था को पूरी तरह अलग कर रखा है। यहाँ जनगणना में व्यक्ति के धर्म को दर्ज नहीं किया जाता। इस वजह से कहा नहीं जा सकता कि फ्रास में कितने व्यक्ति किस धर्म को मानते हैं। यह एक बात है। दूसरी बात यह कि यहाँ बहुसंख्यक ईसाई रहते हैं। इसलिए यह अंदेशा है कि सेक्युलरिज्म की आड़ में मुसलमानों की पहचान को ही निशाना बनाया गया है। फ्रांस के बाद अब ब्रिटेन में भी बुर्के पर पाबंदी की माँग उठ रही है। 

क्या बुर्का पहनना इस्लाम की बुनियादी ज़रूरत है? शालीन लिबास पहनना सभ्यता की पहली निशानी है। आधुनिकता की आड़ में नंगेपन का जैसा बोलबाला है, वह समझ में नहीं आता। पर क्या फ्रांस के कानून के पीछे नंगेपन की संस्कृति के दर्शन होते हैं? परिधान कैसा पहना जाय यह व्यक्ति का बुनियादी अधिकार है। पर बुर्का पहनना भी क्या बुनियादी अधिकार की सीमा का उल्लंघन नही है? यों तमाम मुसलमान स्त्रियाँ बुर्के का समर्थन करतीं हैं। उन्हें बुर्का पहनने में आपत्ति नहीं है। हो सकता है कोई महिला समर्थक न हो, तो क्या उसे अपनी बात कहने का अधिकार है? बुनियादी बात यह है कि पहली माँग उनकी तरफ से ही आनी चाहिए। साथ ही उन्हें आश्वस्त होना चाहिए कि बुर्के पर पाबंदी के पीछे कोई दुर्भावना नहीं है। इक्कीसवीं सदी के समाज को डेढ़ हजार साल पुराने नज़रिए से न देखें। 

 बुर्के पर पाबंदी लगने पर कट्टरपंथियों की ओर से विरोध के स्वर उठेंगे। इससे कट्टरपंथ को मजबूती मिलेगी। सारी दुनिया में कट्टरपंथ की आँधी है। खासकर पाकिस्तान में इसका उभार है। चौक डॉट कॉम में   मुहम्मद गिल का लेख  लेख पठनीय है। हमें लगता है कि इस्लामी दुनिया में सब कट्टरपंथी ही बसते हैं। ऐसा नहीं है। आयशा उमर का यह लेख  आपको अपनी राय बदलने को प्रेरित कर सकता है। 

दरअसल इस्लाम के बारे में इतनी निगेटिव दृष्टि है कि हम सोच नहीं पाते कि उनमें समझदारी की बातें भी करने वाले हैं। बेशक वे कम हैं, पर हैं ज़रूर । इसी 14 जुलाई के पाकिस्तानी अखबार डॉन में छपा इरफान हुसेन का यह लेख पढ़ें। हाल में नवभारत टाइम्स में युसुफ अंसारी ने एक लेख लिखा जिसमे कहने की कोशिश की गई थी कि मुसलमानों की प्रगतिशील बातों को मीडिया में जगह नहीं मिलती। देखें युसुफ किरमानी का लेख। मैं यहाँ कट्टरपंथी बातें नहीं दे रहा। उन्हें आप कहीं से भी पढ़ सकते हैं। मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि मुलमानों के भीतर जो समझदार तबका है उसे मज़बूत किया जाना चाहिए। ऐसे विचारों  के बारे में जानकारी बढ़ाएं। 



Wednesday, July 14, 2010

रियलिटी शो


मलेशिया के एक रियलिटी टीवी शो में नए इमाम का चयन किया जा रहा है। इसमें इमाम बनने के इच्छुक कुछ नौजवानों को जमा किया गया है। वे धर्म के बाबत अपनी जानकारी देते हैं। जन्म से मृत्यु तक के धार्मिक संस्कारों के बारे में अपने ज्ञान का परिचय देते हैं। धर्म गुरु उनके ज्ञान की परीक्षा लेते हैं। इस कार्यक्रम को जनता और धर्मगुरुओं दोनों का आशीर्वाद प्राप्त है,  सो सफल होना चाहिए। बीबीसी की वैब साइट ने इस आशय की खबर दी है।


इस रियलिटी शो से हमारे शो-संचालकों को भी सीख लेनी चाहिए। आस्था या संस्कार चैनल वाले पुरोहितों का चुनाव कर सकते हैं। कम से कम युवा ज्योतिषियों का चुनाव तो हो ही सकता है। हर नेता-अभिनेता और उद्योगपति को भविष्य की फिक्र है। हमने स्वयंवर करा दिए, करोड़पति बना दिए, एंकर हंट कर डाले। हीरो-हीरोइन भी चुन लिए जाएंगे। गायक और अब डांसर चुने ही जा रहे हैं। 

क्या हम नेताओं का रियलिटी शो कर सकते हैं? और क्या माफिया भी खोजे जा सकते हैं? अखबारों के सम्पादक, चैनलों के हैड, राज्यो के मुख्यमंत्री, देश के प्रधानमंत्री, कम्पनियों के सीईओ, सरकारों के चीफ सेक्रेटरी, फिल्मों के डायरेक्टर भी तो खोजे जा सकते हैं। जिन्दगी में जो कुछ खोजना है, क्यों न टीवी के मार्फत खोजा जाय। हो सकता इनके बीच कहीं हमें अपनी गरीबी, भुखमरी, फटेहाली, अंधविश्वास, अज्ञान वगैरह का हल भी मिल जाय। बहरहाल यह बदलते वक्त का सच है। 


छोटी बातें और मिलावटी गवर्नेंस

हत्याओं, आगज़नी और इसी तरह के बड़े अपराधों को रोकना बेशक ज़रूरी है, पर इसका मतलब यह नहीं कि छोटी बातों से पीठ फेर ली जाय। सामान्य व्यक्ति को छोटी बातें ज्यादा परेशान करती हैं। सरकारी दफ्तरों में बेवजह की देरी या काम की उपेक्षा का असर कहीं गहरा होता है। हाल में लखनऊ के रेलवे स्टेशन पर एक फर्जी टीटीई पकड़ा गया। कुछ समय पहले गाजियाबाद में फर्जी आईएएस अधिकारी पकड़ा गया। दिल्ली मे नकली सीबीआई अफसर पकड़ा गया। जैसे दूध में मिलावट है वैसे ही सरकार भी मिलावटी लगती है।

लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें

Monday, July 12, 2010

संकट और समाधान के दोराहे पर


यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे? मनी और मसल पावर की ही जीत होगी?  काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। रविवार की दोपहर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन हॉल में उदयन शर्मा फाउंडेशन के संवाद-2010 में विचार व्यक्त करने और दूसरों को सुनने के लिए जिस तरह से मीडिया से जुड़े लोग जमा हुए उससे इतनी आश्वस्ति ज़रूर होती है कि सब लड़ाई को इतनी आसानी से हारने को तैयार नहीं हैं। गोकि इस मसले को अलग-अलग लोग अलग-अलग ढंग से देखते हैं।

खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।   
राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।

पत्रकारिता एक नोबल प्रोफेशन है। और नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था,  इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।

कुछ महीने पहले इसी कांस्टीट्यूशन क्लब में एडीटर्स गिल्ड और वीमेंस प्रेस कोर ने मिलकर एक गोष्ठी की थी, जिसमें टीएन नायनन ने कहा था कि सम्पादक को खड़े होकर ना कहना चाहिए। रविवार की गोष्ठी में किसी ने गिरिलाल जैन का उल्लेख किया, जिन्होंने सम्पादकीय विभाग में आए विज्ञापन विभाग के व्यक्ति से कहा कि इस फ्लोर पर सम्पादकीय विभाग की बातों पर चर्चा होती है, बिजनेस की नहीं। कह नहीं सकते कि उस अखबार में आज क्या हालात हैं। पर हमें गिरिलाल जैन के कार्यकाल का अंतिम दौर याद है। उस मसले पर इलस्ट्रेटेड वीकली में कवर स्टोरी छपी। यह बात उस दौर के मीडिया हाउसों के मालिकों के व्यवहार और उसमें आते बदलाव पर रोशनी डालती है।

सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है। बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं। सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।

इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानकारी पाने का हमारा अधिकार जाने-अनजाने दुनिया की सबसे अनोखी संवैधानिक व्यवस्था है। अमेरिकी संवैधानिक व्यवस्था की तरह यह केवल प्रेस की फ्रीडम नहीं है। अपने  लोकतांत्रिक कर्तव्यों को निभाने के लिए हमें सूचना की मुक्ति चाहिए। यह सूचना बड़ी पूँजी या कॉरपोरेट हाउसों की गिरफ्त में कैद रहेगी तो इससे नागरिक हितों को चोट पहुँचेगी। राइट टु इनफॉरमेशन ही नहीं हमें फ्रीडम ऑफ इनफॉरमेशन चाहिए। सूचना का अधिकार हमें सरकारी सूचना का अधिकार देता है। पर हमें सार्वजनिक महत्व की हर सूचना की ज़रूरत है। पूँजी को मुक्त विचरण की अनुमति इस आधार पर मिली है कि उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संगति है। उसकी आड़ में मोनोपली, कसीनो या क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रवेश अनुचित है। मीडिया की ताकत पूँजी नहीं है। जनता या पाठक-दर्शक है। यदि मीडिया का वर्तमान ढाँचा अपनी साख को ध्वस्त करके सूचना को खरीदने और बेचने लायक कमोडिटी में तब्दील करना चाहता है तो मीडिया की ओनरशिप के बारे में सोचा जाना चाहिए।

चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है। पेड न्यूज समस्या नहीं समस्या का एक लक्षण है। उसे लेकर पब्लिक स्क्रूटनी शुरू हुई है, यह उसके समाधान का लक्षण है।