Monday, May 10, 2010

टेक्नॉलजी के तूफान में पत्रकारिता

इंडियन रीडरशिप सर्वे 2010 की पहली तिमाही की रपट का संकेत है कि टीवी, रेडियो, इंटरनेट, अखबार और पत्रिका पर एक भारतीय औसतन 125 मिनट का समय खर्च करता है, जबकि 2007 में यह 117 था। मेरा अनुमान है कि यह समय प्रतिमाह का है। एक महीने में 125 मिनट का समय खास नहीं है। इकोनॉमिस्ट ने नील्सन के सर्वे के आधार पर अनुमान लगाया है कि औसत अमेरिकन एक महीने में 210 मिनट से ज्यादा समय ऑनलाइन वीडियो, ब्रॉडकास्ट टीवी और इससे जुड़ी गतिविधियों को देता है। इसके अलावा 154 मिनट वह इंटरनेट को देता है। उसका अनुमान है कि अमेरिकी किशोर करीब साढ़े सात घंटे से दस घंटे इस मीडिया को देता है। अमेरिकी आँकड़ों से तुलना करें तो अभी हमारे यहाँ काफी सम्भावनाएं हैं। यह सम्भावना टेक्नॉलजी और मीडिया-कारोबार के लिए जितनी महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण उन लोगों के लिए है, जो इसके सॉफ्टवेयर यानी कंटेंट के बारे में सोचते हैं।

जिस वक्त अखबारों का जन्म हो रहा था, उन्हीं दिनों वैश्विक व्यवस्था सामंतवाद से हटकर पूँजीवाद की ओर बढ़ रही थी। व्यापार के कारण पाबंदियाँ खत्म हो रहीं थीं। व्यापारियों और सामंतों के बीच हितों का टकराव था। इस टकराव ने तमाम लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को जन्म दिया। इसके बीच औद्योगिक क्रांति हुई। युरोपीय कारोबारी हितों ने उपनिवेशों को जन्म दिया। उपनिवेशों के मध्यवर्ग ने देर-सबेर राष्ट्रीय आंदोलन शुरू किए। अपनी व्यवस्थाएं बनाईं। इसमें अखबार की भूमिका थी। भारत के औपनिवेशिक दौर में दो या तीन तरह के अखबार थे। एक अंग्रेजों के, दूसरे राष्ट्रवादी और तीसरे अंग्रेज समर्थक देशी अखबार। अनेक परतें और होंगी, पर मैं इन्हें मोटे तौर पर अभी तीन हिस्सों में देख रहा हूँ। तीनों का हमारे सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव में कोई न कोई योगदान है। इस बदलाव का वाहक इन अखबारों के कंटेंट के कारण था। काफी छोटे स्तर पर ही सही, अखबार सहमतियों और मतभेदों को उजागर करते थे। दूसरे देशों और सुदूर इलाकों से वे जानकारियाँ लाते थे, जो पाठकों के लिए ज़रूरी थी। उस समय के लिहाज से आधुनिक तकनीक अखबार लेकर आए। टेकनॉलजी और बिजनेस ने उस वैचारिक क्रांति को बढ़ाया।

Sunday, May 9, 2010

अखबारी दुनिया मे जाकर मेरे जैसे साधारण व्यक्ति को धक्का लगता है। मैं 1971 में इस दुनिया से जुड़ा था। वह रोमांटिक दौर था। आज के मुकाबले जीवन में आदर्श ज्यादा थे। काफी ढोंग भी था। मेरी उम्र भी आदर्शों वाली थी। ऐसे लोग भी आस-पास नज़र आते थे, जो जैसा कहते थे, उसके आसपास होते थे। उस दौर में भी ऐसे लोग थे, जो व्यवस्था का दोहन करते थे, और सम्मान भी पाते थे। यशपाल के झूठा-सच और नागार्जुन के उपन्यासों में ऐसे पात्र मिले जो आज़ादी के आंदोलन के दौरान ढोंगी जीवन को जीते थे। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी पेंशन मिली,  पद्म पुरस्कार भी। ज्यादातर पुरस्कार इसी तरह दिए जाते हैं। ढोंग की एक लम्बी सीढ़ी है।

इन दिनों संचार मंत्री ए राजा को लेकर जो कहानियाँ सामने आ रहीं हैं, वे सच हैं या नहीं, कहना मुश्किल है, पर इनके बारे में सुनकर आश्चर्य नहीं होता। मैं अपने आसपास ऐसे लोगों को देख चुका हूँ, जो बेशर्मी से सिस्टम का फायदा उठाते हैं। मीडियाकर्मियों की तादाद बड़ी है। उनमें से ज़्यादातर कुछ मूल्यों से जुड़े होते हैं। या कम से कम पहचानते हैं. पर व्यक्ति की परख तब होती है, जब उसे बेईमान होने का मौका मिले और वह बेईमान बनने से इनकार कर दे। मैने बहुत गौर से ऐसे हालात और व्यक्तियों को दोखा है। अक्सर उन लोगों का ईमान डोलता है, जिन्हें बहुत कुछ मिल चुका है। ग़रीब आजमी पर चोरी का इल्ज़ाम कोई भी लगा सकता है, पर खाते-पीते लोग चोरी करते हैं, तो परेशानी होती है। पर क्या करें।

लगता है हम आमतौर पर ईमानदारी को घटिया मूल्य मानते हैं। या यह मानते हैं कि एडवेंचर से घबराने वाले दब्बू लोगों की वैल्यू ईमानदारी है। हमारे भीतर आत्मबल होता और कुछ खोने की ताकत होती, तो मीडिया की वह दशा नहीं होती जो आज है।
अंग्रेज़ी में एकदम नए शब्दों की जानकारी देने वाली वेबसाइट अर्बन डिक्शनरी काफी रोचक है.
http://www.urbandictionary.com/

Saturday, May 8, 2010

अमेरिका के बारे में क्या आप इन तथ्यों से परिचित हैं?

Economist "Did you know?"