Tuesday, April 23, 2013

हमारी निष्क्रियता हमारे पाखंड


 इन सवालों को हिन्दू या मुसलमानों के सवाल मानकर हम किसी एक तरफ खड़े हो सकते हैं पर हमें व्यावहारिक उत्तर चाहिए। टोपी पहन कर किसी एक समुदाय को और टीका लगाकर किसी दूसरे को खुश करने की राजनीति खतरनाक है। इसीलिए कश्मीरी पंडितों के जीवन-मरण के सवाल को हम साम्प्रदायिक मानते हैं और मुसलमानों की आर्थिक बदहाली को छिपाकर उनके भावनात्मक मसलों को उठाते हैं। इतिहास का पहिया उल्टा घुमाया नहीं जा सकता पर यदि आज हमारे सामने 1947 पर वापस जाने का विकल्प हो तो लाखों मुसलमान भी अपने घरों को छोड़कर जाना नहीं चाहेंगे। विभाजन ने हमें बांटा ही नहीं, राजनीतिक पाखंडों से भी लैस कर दिया है। यह खतरनाक है।
बड़ी संख्या में हिन्दू परिवार पाकिस्तान छोड़कर भागना चाहते हैं। बांग्लादेश में 1971 के अपराधियों को लेकर आंदोलन चल रहा है। और रिफ्यूजी कैम्पों में रह रहे कश्मीरी पंडित सवाल पूछ रहे हैं कि क्या हमारा भी कोई देश है। पिछले महीने राज्यसभा में गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिंह ने स्वीकार किया कि घाटी में रहने वाले पंडितों को एक पत्र मिला है कि वे कश्मीर छोड़कर चले जाएं। घाटी में रहने वाले पंडितों की संख्या अब बेहद मामूली है। कुल मिलाकर चार हजार के आसपास। पर 1947 में उनकी संख्या डेढ़ से दो लाख के बीच थी। यानी कुल आबादी की 15 फीसदी के आसपास। 1947 की आज़ादी उनके लिए मौत का संदेश लेकर आई थी। सन 1948 के फसादों और 1950 के भूमि सुधारों के बाद तकरीबन एक लाख पंडित कश्मीर छोड़कर चले गए। उनपर असली आफत आई 1989 के बाद। 14 सितंबर, 1989 को चरमपंथियों ने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू की हत्या की। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के नेता मक़बूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या उसके डेढ़ महीने बाद हुई। फिर 13 फ़रवरी, 1990 को श्रीनगर के टेलीविज़न केंद्र के निदेशक लासा कौल की हत्या हुई। तकरीबन चार लाख पंडित उस दौरान बेघरबार हुए या मारे गए। ये लोग आज शरणार्थी शिविरों में निहायत अमानवीय स्थितियों में रह रहे हैं। पंडितों को जितनी शिकायत आतंकवादियों से है उतनी भारतीय राजव्यवस्था से भी है।

Monday, April 22, 2013

गूगल का अर्थ डे डूडल

आज 22 अप्रेल है पृथ्वी दिवस। हम धीरे-धीरे महसूस कर रहे हैं अपनी धरती के महत्व को। इंटरनेट सर्च इंजन गूगल ने अपने लोगो का रचनात्मक इस्तेमाल जानकारी बढ़ाने के लिए किया है। आज उसका डूडल धरती के क्रिया-कलाप की जानकारी बड़े रोचक अंदाज़ में देता है। गूगल डूडल के बारे में मैं पहले भी लिखता आया हूँ। आपने भी ध्यान दिया होगा कि गूगल बड़े रोचक ढंग से इसका इस्तेमाल कर रहा है। मैने नीचे अपनी कुछ पुरानी पोस्ट के लिंक भी दिए हैं, जिनमें इस बात को रेखांकित किया था।  कुछ लोगों ने गूगल की तर्ज पर लोगो बनाने शुरू कर कर दिए हैं।लोगूगल ऐसी ही साइट है। 

गूगल ने उगाया अपना डूडल
सन 2012 का गूगल डूडल एनीमेटेड था। पर गूगल ने इस एनीमेशन को कम्प्यूटर पर तैयार करने के बजाय अच्छी तरह उगाया था। उस उगाने का रोचक विवरण पढ़ें यहाँ





डूडल का आयडिया कहाँ से आया और कैसे विकसित हुआ यहाँ पढ़ें

गूगल डूडल्स
डूडल फॉर गूगल प्रतियोगिता
गूगल पर अनंत पै
गूगल लोगो के बारे में पढ़ें विकीपीडिया में

ब्रेक के बाद... और अब वक्त है राजनीतिक घमासान का


बजट सत्र का उत्तरार्ध शुरू होने के ठीक पहले मुलायम सिंह ने माँग की है कि यूपीए सरकार को चलते रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। उधर मायावती ने लोकसभा के 39 प्रत्याशियों की सूची जारी की है। दोनों पार्टियाँ चाहेंगी तो चुनाव के नगाड़े बजने लगेंगे। उधर टूजी मामले पर बनी जेपीसी की रपट कांग्रेस और डीएमके के बाकी बचे सद्भाव को खत्म करने जा रही है।  कोयला मामले में सीबीआई की रपट में हस्तक्षेप करने का मामला कांग्रेस के गले में हड्डी बन जाएगा। संसद का यह सत्र 10 मई को खत्म होगा। तब तक कर्नाटक के चुनाव परिणाम सामने आ जाएंगे। भाजपा के भीतर नरेन्द्र मोदी को लेकर जो भीतरी द्वंद चल रहा है वह भी इस चुनाव परिणाम के बाद किसी तार्किक परिणति तक पहुँचेगा।  राजनीति का रथ एकबार फिर से ढलान पर उतरने जा रहा है। 

Sunday, April 21, 2013

पाकिस्तानी न्यायपालिका में इतनी हिम्मत कहाँ से आई?

परवेज़ मुशर्रफ को पाकिस्तान की एक अदालत ने गिरफ्तार करके दो हफ्ते के लिए हिरासत में भेज दिया है। पाकिस्तान में किसी पूर्व सेनाध्यक्ष और वह भी मुशर्रफ जैसे तानाशाह को जेल भेज देना अभूतपूर्व बात है। इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मुशर्रफ पाकिस्तान क्यों लौटे और इस मामले की तार्किक परिणति क्या होगी, इसे समझने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा। इसमे दो राय नहीं कि मुशर्रफ ने नवाज़ शरीफ का तख्ता पलटा। पर इसमें भी दो राय नहीं कि उन्होंने नवाज शरीफ को जिन्दा बाहर जाने दिया। और यही नहीं मुशर्रफ ने ही नवाज शरीफ को देश में वापस भी आने दिया। यह सब क्या सेना की कमज़ोर पड़ती और नागरिक शासन की बेहतर होती स्थिति का संकेत है? ऐसा है तो पीपीपी की गठबंधन सरकार के एक प्रधानमंत्री को इस्तीफा क्यों देना पड़ता? क्यों देश के राजदूत हुसेन हक्कानी की चिट्ठी को लेकर देश की अदालत ने बजाय नागरिक सरकार के सेना के नजरिए को तरज़ीह दी? पाकिस्तान की न्यायपालिका न्यायप्रिय है तो वह मुम्बई पर हमले के जिम्मेदार लोगों को सज़ा देने में हिचक रही है? क्या वजह है कि हाफिज़ सईद अदालती क्लीन चिट के सहारे खुले आम घूम रहे हैं? बहरहाल पाकिस्तान बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रहा है। और उसके बारे में कोई भी राय बनाने के पहले अगले महीने हो रहे चुनाव और उसके बाद के घटनाक्रम को गौर से देखना होगा।

पप्पू बनाम फेकू यानी ट्विटरगढ़ की जंग


इस महीने चार अप्रेल को राहुल गांधी के सीआईआई भाषण के बाद ट्विटर पर पप्पूसीआईआई के नाम से कुछ हैंडल तैयार हो गए। इसके बाद 8 अप्रेल को नरेन्द्र मोदी की फिक्की वार्ता के बाद फेकूइंडिया जैसे कुछ हैंडल तैयार हो गए। पप्पू और फेकू का संग्राम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गया और तमाम अंतरराष्ट्रीय वैबसाइटों पर पप्पू और फेकू का मतलब बताने वालों की लाइन लगी रही। ट्विटर से फेसबुक पर और फेसबुक से ब्लॉगों पर राजनीतिक घमासान शुरू हो गया है। लगता है अगली चुनावी लड़ाई सोशल मीडिया पर ही लड़ी जाएगी। वोटरों, लेखकों और पत्रकारों के नज़रिए से देखें तो ऐसा ही लगता है। पर राजनेता शायद अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं।