मार्क ट्वेन ने अपने शुरुआती वर्षों में अखबारों में भी काम किया। उनकी पुस्तक ‘रफिंग इट’ से एक छोटा सा अंश आप पढ़ें :
“13 साल की उम्र से ही मुझे कई तरह के रोज़ी-रोज़गारों में हाथ लगाना पड़ा। पर मेरे काम से कोई खुश नज़र नहीं आया। एक दिन के लिए परचूनी की दुकान पर क्लर्क का काम मिला, पर उस दौरान उसकी दुकान की इतनी चीनी मैने फाँक ली कि मालिक ने मुझे चलता किया। एक हफ्ता कानून की पढाई की, पर वह काम इतना लिखाऊ(प्रोज़ी) और थकाऊ था कि अपुन से नहीं बना। फिर लोहार का काम सीखा। वहाँ धौंकनी नहीं सम्हली और उस्ताद ने बाहर कर दिया। कुछ समय के लिए किताब की दुकान में मुंशी बना। वहाँ कस्टमर इतना परेशान करते थे कि आराम से कोई किताब पढ़ ही नहीं पाता था। एक ड्रग स्टोर में काम किया, वहाँ मेरे नुस्खे अभागे साबित हुए।
अपने अच्छे दिनों में मैं वर्जीनिया डेली टेरीटोरियल एंटरप्राइज़ को लैटर्स लिखता था। जब वे छपते तब मुझे बड़ा विस्मय होता। सम्पादकों के बारे में मेरी अच्छी राय भी बिगड़ने लगी। छापने के लिए उनके पास और कुछ नहीं था क्या। तभी मुझे एक रोज़ चिट्ठी मिली कि वर्जीनिया चले आइए और ‘एंटरप्राइज़’ के सिटी एडीटर बन जाइए। सो अपुन वर्जीनिया पहुँच गए, नया काम करने।
अखबार के प्रधान सम्पादक और प्रोपराइटर एम गुडमैन से मैने कहा, मुझे क्या काम करना है और कैसे करना है कुछ बताएं। उन्होंने कहा, शहर में जाओ। तमाम तरह के लोगों से मिलो। उनसे हर तरह के सवाल करो। जो जानकारी मिले उसे नोट करते रहो। दफ्तर आकर उसे लिख दो। उन्होंने फिर कहाः
“यह कभी मत लिखना कि ज्ञात हुआ है या जानकारी मिली है या कहा जाता है। सीधे घटनास्थल तक जाओ, पक्की जानकारी लाओ और लिखो ऐसा-ऐसा है। वर्ना लोग तुम्हारी खबर पर विश्वास नहीं करेंगे। पक्की बात से ही किसी अखबार को इज्जत मिलती है।“
मैं अपने पहले दिन को कभी नहीं भूलूँगा। मैने हरेक से सवाल पूछे। पूछ-पूछकर बोर कर दिया। मुझे अपने सम्पादक के वचन याद थे, बात पक्की होनी चाहिए। पर यहाँ तो किसी को कुछ पता नहीं था। पाँच घंटे खपाने के बाद भी मेरी नोटबुक खाली थी। मैने मिस्टर गुडमैन को सारी बात बताई। वह बोलेः
“तुमसे पहले डैन यह काम करता था। उसका कमाल था कि तब भी जब आगज़नी नहीं होती, या मुकदमों की सुनवाई नहीं होती, कब भी वह सिर्फ भूसा गाड़ियों की खबरें निकाल लाता था। क्या ट्रकी से कोई भूसा गाड़ी तक नहीं आ रही है? आ रही है तो तुम भूसा बाज़ार की एक्टिविटीज़ पर खबर बना सकते हो। यह टॉपिक मज़ेदार नहीं है, पर बिजनेस न्यूज़ तो है।
मैंने शहर का मुआयना फिर किया। किसी ने किसी की हत्या कर दी थी। मैने हत्यारे का शुक्रिया अदा किया। मज़ा आ गया। फिर देखा गाँव की ओर से एक भूसागाड़ी घिसटती चली आ रही है। मैने उसे 16 से गुणा किया। फिर 16 दिशाओं से उसे शहर में प्रवेश दिलाया। इससे 16 अलग-अलग आइटम बनाए। वर्जीनिया में भूसे के कारोबार का कुछ ऐसा नजारा पेश किया जैसा इतिहास में कभी नहीं हुआ।
इसके बाद मैने कुछ वैगन देखे जो बागी इंडियन इलाकों की तरफ से आ रहे थे। उन्हें कुछ हादसों का सामना करना पड़ा था। मुझे हालात ने जितनी अनुमति दी उतनी बढ़िया रपट बना दी। पर मेरे मुकाबले दूसरे अखबारों के रिपोर्टर भी तो थे। मैं चाहता था कि मेरी रपटों में उनकी रपटों से अलग कुछ और बातें हों, जो अलग नज़र आएं। एक वैगन कैलीफोर्निया की ओर जाता नज़र आया। उसके मालिक से पता करके पहले मैंने यह इतमीनान कर लिया कि अगले रोज यह इस शहर में नहीं होगा। इसके बाद उसमें बैठे यात्रियों के नाम लिखे। अपनी रपट में मैंने उस वैगन को इंडियनों की ऐसी हिंसा का शिकार बनाया जैसी इतिहास में कभी हुई न थी। लोगों के नाम की लिस्ट मेरे पास थी। मेरी खबर में वे हताहत थे।
मेरे दो कॉलम पूरे हो गए। उन्हें जब मैंने पढ़ा तो मुझे लगा कि वह धंधा मुझे मिल गया, जिसकी तलाश थी। खबरें और जोशीली खबरें ही किसी अखबार की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। और मुझमें ऐसी खबरें लिखने की क्षमता है। इस इलाके के सारे लोगों को अपने पेन से मार सकता हूँ, अगर्चे ज़रूरत पड़ी और अखबार ने माँग की।…..’’
मार्क ट्वेन ने यह किताब 1870-71 में लिखी थी। इसमें पत्रकारिता से जुड़े कुछ प्रसंग हैं, जिनमें आज के संदर्भ खोजे जा सकते हैं। उनका स्मित व्यंग्य 140 साल बाद भी प्रासंगिक है। सेंसेशनल, एग्रेसिव, वायब्रेंट, एक्सक्ल्यूसिव और एंटरटेनिंग शब्द आज हवा में हैं। मीडिया में कम्पटीशन है। नया करने की चुनौती है। अखबारों और चैनलों में कुछ डिग्री का फर्क है। इसकी एक वजह है चैनलों का छोटा इतिहास और अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व। हैंगोवर से मुक्त। जो ओपन है और इंडस्ट्री की ज़रूरत को पहचानता है। अखबार उसी रास्ते पर जाना चाहते हैं। कुछ नाटकीय, हैरतंगेज़ और अविश्वसनीय। मीडिया विश्वसनीय रहे या न रहे अपनी बला से।
विश्वसनीयता की फिक्र किसे है? हाल में आर वैद्यनाथन का एक लेख पढ़ने को मिला। वे किसी ऐसी जगह गए, जहां 500 के आसपास पोस्ट ग्रेजुएट छात्र मौज़ूद थे। उन्होंने छात्रों से पूछा, आप में से कितने लोगों को मीडिया पर यकीन है? कोई दसेक हाथ उठे। हो सकता है, इससे ज्यादा लोगों को यकीन हो। कम से कम हिन्दी पाठक को है। वह कम पढ़ा-लिखा है। उसे मीडिया का सहारा है। फिर भी लगता है, इस यकीन में कमी आ रही है। या हम पाठक को धोखा दे रहे हैं। सेंशेनल शब्द आज वैसा अग्राह्य नहीं है, जैसा पहले होता था। हिन्दी में इसका एक पर्याय तेज-तर्रार है। ईमानदारी और सार्वजनिक हित पत्रकारिता की साख बढ़ाने वाले तत्व हैं। तेज़-तर्रारी और सौम्यता उसकी एप्रोच या तौर-तरीका है। पत्रकार संदेशवाहक है। लड़ाई उसकी नहीं है। खबर को सरल, रोचक और सबकी पसंदीदा बनाना एक काम है। ऑब्जेक्टिव, फेयर और एक्यूरेट बनाना दूसरा। दोनों में कोई टकराव नहीं। खबरों में रोचकता बढ़ी है, पड़ताल, होमवर्क और संतुलन में कमी आई है। सनसनी का तड़का है। पिछले कुछ दिनों की खबरें देखें। आईपीएल, सानिया-शोएब, भोपाल मामला, रुचिका मामला, हॉरर (या ऑनर) किलिंग्ज़, नितीश-नरेन्द्र मोदी ऐसे मामले हैं, जिन्हें न्याय कामना के बजाय सनसनी की वज़ह से कवर किया गया। बेशक मीडिया की सकारात्मक भूमिका थी, पर इसमें छिद्र हैं। न्याय करने से ज्यादा यह दिखाने की इच्छा है कि हम न्याय कर रहे हैं। हर खबर में सनसनी का न्यूज़-पैग खोजने की कोशिश हो रही है। पिछले पच्चीस साल से भोपाल से जुड़े एक्टिविस्ट अक्सर दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करते रहे। किसी को ख्याल नहीं आया कि वहाँ अन्याय हो रहा है। अदालत का फैसला आने के बाद अचानक मीडिया ने तेजी पकड़ी। ऐसा ही नक्सली हिंसा के साथ है। मीडिया-प्रतिनिधि नक्सली इलाकों के भीतर जाकर सच्चाई को सामने लाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं।
बर्गर जेनरेशन तेजी से निकल कर आती है। मिनटों में फैसला करती हैं और आगे बढ़ जाती है। हाल में पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ीं हैं। इसका असर क्या होगा, हर पखवाड़े कीमतों में बदलाव किस तरह होगा और सरकार सब्सिडी को घटाकर क्या करने वाली है, इसके बारे में कुछ खास काम दिखाई नहीं पड़ा। बजाय इसके एक सुपर मॉडल की आत्महत्या ज्यादा महत्वपूर्ण खबर है। हिन्दी के अखबारों मे डिटेल्स एकदम कम हो गए हैं। मौसम और मॉनसून तक के बारे में वैज्ञानिक सामग्री कम है। इस बार अल-नीनो की जगह ला-नीना का असर दिखाई पड़ेगा। क्या है यह ला-नीना? इससे देश की अर्थ-व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा? ऐसी खबरें नज़र नहीं आतीं।
दो साल पहले बिहार में कोसी की बाढ़ के साथ यही हुआ। अरसा गुज़र जाने के बाद कोसी नज़र आई। कैलीफोर्निया की आपदा फौरन नज़र आती है। अपनी आपदा दिखाई नहीं पड़ती। छोटी खबरें और छोटे पैकेज आसानी से पसंद किए जाते हैं, पर किसी न किसी जगह डिटेल्स भी चाहिए। अक्सर कवरेज एक-तरफा और अपूर्ण लगती है। ऐसा मार्केट की वजह से नहीं शॉर्ट कट्स की वजह से है। पत्रकार मेहनत करना नहीं चाहता। जल्दी स्टार बनना चाहता है। ऐसे में वे पत्रकार हार रहे हैं, जो समय लगाकर क्रेडिबल खबरें लिखना चाहते हैं।
खबर वजनदार तब होती है जब वह हमारे आसपास की हो, काफी लोगों की दिलचस्पी की हो और उसका इम्पैक्ट हो। यानी महत्वपूर्ण व्यक्ति से जुड़ी हो। अक्सर लोग सवाल उठाते हैं कि खबरों से गाँव कहाँ चला गया। एक जवाब है, जहाँ अखबार बिकता है वहाँ की खबरें ही तो होंगी। दिल्ली के अखबार के पास गाँव के लिए जगह कहाँ है। ऐसा है तो दिल्ली के स्लम्स की खबरें क्यों नहीं हैं? क्योंकि स्लम्स में रहने वाले पाठक नहीं हैं। मीडिया और पाठकों का तबका जो इस बिजनेस-सिस्टम से बाहर है, वह खबर के बाहर है।
सनसनी और खबरों की स्लांटिंग के पीछे सिर्फ मार्केट नहीं है। इसके पीछे एक कारण कम समय में कम मेहनत से ज्यादा इम्पैक्ट वाली खबर बनाने की इच्छा भी है। तथ्य संकलन में समय लगाने का वक्त नहीं है। खबर को जाँचने-बाँचने वाले भी नहीं हैं। उससे किसकी प्राइवेसी भंग हो रही है, किसके व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, यह देखने वाले भी नहीं। अपनी ताकत को लेकर एक प्रकार की एरोगैंस पत्रकार के भीतर है। वह न्यायपालिका तक पर प्रहार कर रहा है। यह शुभ लक्षण नहीं है। वह अपने को अब असाधारण मानता है क्योंकि वह बड़े लोगों के सम्पर्क में है। इसमें कोई दोष नहीं बशर्ते वह यह याद रखे कि वह मैसेंजर है, मैसेज नहीं।