मोदी सरकार के
लिए भूमि अधिग्रहण कानून संकट पैदा करने वाला है। शायद सरकार ने इसके जोखिमों के
बारे में विचार नहीं किया। इसके इर्द-गिर्द भाजपा विरोधी आंदोलन खड़ा हो रहा है
जिससे केंद्र सरकार पर तो खतरा पैदा नहीं होगा, पर राजनीतिक रूप से उसे अलोकप्रिय
बना सकता है। दूसरी ओर यह कानून हमारे तमाम अंतर्विरोधों को खोलेगा और विरोधी
आंदोलन की राजनीति चलाने वालों की नींद भी हराम करेगा। इतना कड़ा कानून बनाने के
बाद कांग्रेस के सामने भी इससे अपना पिंड छुड़ाने का खतरा पैदा होगा।
क्या सरकार को
किसी की व्यक्तिगत सम्पत्ति पर कब्जा करने का अधिकार होना चाहिए? क्या राजनीतिक कारणों से राष्ट्रीय महत्व के सवालों को
उलझाना उचित है? क्या हमारे पास सामाजिक विकास और आर्थिक
संवृद्धि के संतुलन का कोई फॉर्मूला नहीं है? देश की एक तिहाई आबादी शहरों में रह रही है और लगभग इतनी ही आबादी शहरों में रहने की योजना
बना रही है या वहाँ जाने को मजबूर हो रही है। शहर बसाने के लिए जमीन कहाँ से आएगी? गाँवों में केवल किसान ही नहीं रहते हैं। वहाँ की दो तिहाई
से ज्यादा आबादी भूमिहीनों या बेहद छोटी जोत वाले किसानों की है, जिनकी आजीविका
केवल अपने ही खेत के सहारे नहीं है। उन्हें काम देने के लिए उनके आसपास आर्थिक
गतिविधियों को संचालित करने की जरूरत है। इतने लोगों के लिए उद्योग बनाने के लिए
जगह कहाँ है?
भावनात्मक खेल
क्या राजनीति हमें
मुद्दों से दूर ले जा रही है? इसके विपरीत देखना यह भी
है कि जमीन को लेकर हमारा रुख क्या है। सेज के नाम पर काफी जमीन ले ली गई। उसका
क्या हुआ? बिल्डर लॉबी करोड़ों से खेल रही है। उसके सारे
काम गैर-कानूनी तरीकों से संचालित हो रहे हैं। यानी दूसरे पहलू भी हैं। इन सवालों
और उनके जवाबों की लम्बी सूची है। उनपर खुले दिमाग से बात क्यों नहीं होनी चाहिए? क्या संसद में इस विषय पर खुली और सार्थक बहस सम्भव है? सम्भव है तो संसद के पिछले सत्र में इस
महत्वपूर्ण मसले पर बात क्यों नहीं हो पाई और सरकार को अध्यादेश क्यों लाना पड़ा?
अध्यादेश की
राजनीति भी आलोचना के घेरे में है। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गुरुवार
को राज्यसभा में कांग्रेस पर तंज कसते हुए कहा कि 636 अध्यादेशों को याद रखना
चाहिए, जिनमें से 80 फीसदी आनंद शर्मा की पार्टी की सरकार में आए
थे। जवाहर लाल नेहरू की सरकार में 70 अध्यादेश लाए गए थे। कम्युनिस्टों के सहयोग
से चली की संयुक्त मोर्चा सरकार 18 महीने में 77 अध्यादेश लाई थी। इसलिए संसद की
उपेक्षा की बात करना अनुचित है।"
राज्य सरकारों की
आपत्ति
एक मीडिया
रिपोर्ट के अनुसार जब यह कानून बन रहा था तब हरियाणा और केरल की सरकारों ने पीपीपी
आधार पर चलाई जा रही परियोजनाओं के लिए किए जाने वाले अधिग्रहण के लिए 80 फीसदी
भूस्वामियों की सहमति की शर्त को हटाने का आग्रह किया था। असम, हरियाणा और हिमाचल
प्रदेश की सरकारों ने कहा था कि प्रभावित परिवारों की परिभाषा बहुत ज्यादा व्यापक
है। इसी तरह सामाजिक प्रभाव आकलन को लेकर कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और मणिपुर की
माँग थी कि यह काम केवल बड़ी परियोजनाओं के लिए किया जाना चाहिए। ये सभी राज्य
सरकारें कांग्रेसी थीं। सम्भव है कि राजनीतिक कारणों से उन्होंने बाद में अपने
स्वर धीमे किए हों, पर ऐसे राजनीतिक कारण क्यों हैं जो व्यावहारिक जमीन से नहीं
निकले हैं? सरकारों की भिन्न राय बताती है कि यह कानून
स्थानीय जरूरतों को ध्यान रखकर नहीं बनाया गया है। क्या वह पवित्र गाय है, जिसके
बारे में बात की ही नहीं जा सकती?
देश में क्रोनी कैपिटलिज्म
के खुले प्रमाण हैं। बिल्डर माफिया उभर कर आया है। पर क्या केवल इसके आधार पर
समूचे कारोबार को ब्रांड किया जा सकता है? कुछ लोग मानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था खुद में क्रोनी
कैपिटलिज्म है। पर आप किस सातवें आसमान से व्यवस्था खोजकर लाने वाले हैं? जिस तरह संसद ने भूमि
अधिग्रहण कानून पास किया उसी तरह उसमें बदलाव पर विचार क्यों नहीं किया जाना चाहिए? जेटली का कहना
था, ‘मैं कांग्रेस से हाथ जोड़कर अपील करता हूं, आप सत्ता में रहे
हैं। ऐसा माहौल मत बनाएं, जिसमें इन्फ्रास्ट्रक्चर और इंडस्ट्री को बुरा
समझा जाए।’
सवाल है कि भाजपा
को यह बात तब समझ में नहीं आई जब वह इस कानून को अव्यावहारिक बनाने में कांग्रेसी
नेतृत्व से भी दो कदम आगे बढ़कर काम कर रही थी। कानून बनने के पहले ग्रुप ऑफ
मिनिस्टर्स और कैबिनेट की बैठक में इस सवाल पर काफी शिद्दत से बहस हुई थी। उसके
पहले इसे ग्रामीण विकास की स्थायी समिति के पास भेजा गया था, जिसने मई 2012 में इसे अपनी रपट के साथ
वापस भेजा था। इस समिति में भाजपा के सदस्य भी थे।
पाँच करोड़
विस्थापित
मोटा अनुमान है
कि 1951 से अब तक सरकार
ने तकरीबन पाँच करोड़ एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया। इस अधिग्रहण के कारण तकरीबन
पाँच करोड़ लोग विस्थापित हुए, जिनमें से तकरीबन 75 फीसदी लोगों का पुनर्वास अभी तक नहीं हो पाया है। इसका एक
बड़ा कारण यह है कि आबादी के काफी बड़े हिस्से को न तो वैकल्पिक रोज़गार की
जानकारी है, न रोज़गार का
ढाँचा है और न आर्थिक निवेश है। जिन लोगों की ज़मीन ली गई, उनमें ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें एक पैसा मुआवज़ा
नहीं मिला। ज़मीन की मिल्कियत के दस्तावेज़ तक लोगों के पास नहीं हैं। हैं भी तो
उनमें तमाम खामियाँ हैं।
सन 1894 का कानून अंग्रेज सरकार
ने बनाया था। आज़ादी के बाद की सरकारों ने भी अंग्रेज सरकार के नक्शे-कदम पर अधिग्रहण
किया। बाँधों, नहरों, सड़कों, बिजलीघरों, सरकारी उद्योगों, खनन और परिवहन के लिए
काफी ज़मीन पर कब्ज़ा किया गया। इससे भारी विस्थापन हुआ। जिनकी ज़मीन गई उनके
अलावा भूमि-हीन खेत मज़दूरों, मछुआरों और दस्तकारों के जीवन पर भी इसका असर पड़ा। न तो
सरकारों के पास विस्थापन और पुनर्वासन की नीतियाँ थीं, न शिक्षा और प्रशिक्षण
था। खेती की ज़मीन की कीमत भी काफी कम थी। खासतौर से छोटे किसानों पर यह दोहरी मार
थी।
राजनीति का सहारा
पिछले बीस साल
में स्थितियाँ और बदल गईं। शहरीकरण में तेजी आई है। खेती की ज़मीन आवासीय ज़मीन
में बदली। इस समस्या के आर्थिक पहलुओं के साथ राजनीतिक पहलू भी हैं। बंगाल में वाम
मोर्चे की सरकार पर आर्थिक विकास और औद्योगीकरण में तेजी लाने का दबाव था। वामपंथी
दलों की अपनी नीतियों के कारण बंगाल से कारोबारी दूर चले गए थे। जब सरकार ने अपनी
नीतियाँ बदलीं तो ममता बनर्जी की पार्टी ने लगभग वामपंथी तरीके से आंदोलन खड़ा
किया और वाम मोर्चे को सत्ताच्युत कर दिया। इस वक्त भूमि अधिग्रहण कानून का सबसे
बड़ा विरोध ममता बनर्जी ही कर रहीं हैं। वे किसी भी कीमत पर उद्योगों के लिए
किसानों की ज़मीन लेने के खिलाफ हैं।
कांग्रेस चाहती थी
कि इस कानून को किसानों की सफलता के रूप में पेश किया जाए। शायद इसीलिए सोनिया
गांधी के वीटो की खबर को प्रचारित किया गया। आज भी कांग्रेस इसके सहारे फिर से
मुख्यधारा में वापसी चाहती है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने भूमि अधिग्रहण कानून को
लागू करने के पहले सात शर्तें पूरी करने की सलाह दी थी। इसमें मुआवजे से ज्यादा
मनुष्यों की सुरक्षा के अलावा खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण की रक्षा और मानवीय भागीदारी पर ज़ोर है। पर इसकी
कीमत क्या हमारा उद्योग जगत दे सकेगा?
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