Tuesday, June 3, 2014

रक्षा में विदेशी निवेश के अलावा विकल्प ही नहीं है

इस हफ्ते 4 जून से शुरू हो रहे संसद के पहले सत्र में नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों पर रोशनी पड़ेगी. संसद के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति का अभिभाषण इस सरकार का पहला नीतिपत्र होगा. सरकार के सामने फिलहाल तीन बड़ी चुनौतियाँ हैं. महंगाई, आर्थिक विकास दर बढ़ाने और प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त करने की. मंहगाई को रोकने और विकास की दर बढ़ाने के लिए सरकार के पास खाद्य सामग्री की सप्लाई और विदेशी निवेश बढ़ाने का रास्ता है. सरकार एफसीआई के पास पड़े अन्न भंडार को निकालने की योजना बना रही है. इस साल मॉनसून खराब होने का अंदेशा है, इसलिए यह कदम जरूरी है.


नई सरकार के कुछ सकारात्मक कदमों का विदेशी निवेशकों तक अच्छा संदेश गया है. डॉलर की वापसी हो रही है. इससे रुपए की कीमत बढ़ी है. इसका असर पेट्रोलियम की कीमतों पर पड़ेगा. यों अंतरराष्ट्रीय पेट्रोलियम बाजार में इस वक्त तेजी का रुख है. पर डॉलर की कीमत गिरने से यह झटका उतना तेज नहीं लगेगा जितना लगता. इधर वाणिज्य मंत्रालय ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढाने के लिए एक कैबिनेट नोट जारी किया है, जिसने देश का ध्यान खींचा है. इसमें सबसे बड़ी पेशकश रक्षा उद्योग में एफडीआई 100 फीसदी करने का सुझाव है, जो अप्रत्याशित रूप से क्रांतिकारी कदम है. 

पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार सन 2009 से 2013 के बीच रक्षा सामग्री के आयात में भारत पहले स्थान पर था. हम अपनी सुरक्षा तकनीक में स्वावलम्बी नहीं हैं. रक्षा जरूरतों से जुड़ी लगभग 60 फीसदी सामग्री बाहर से आती है. इसके कारण विदेशी मुद्रा बाहर जाती है और रोजगार की सम्भावनाएं खत्म हो जाती हैं. कुछ साल पहले तक चीन रक्षा सामग्री का सबसे बड़ा आयातक था, पर उसने काफी तेजी से अपना आयात घटाया. अब वह दुनिया में चौथा सबसे बड़ा निर्यातक है. बेशक चीन आज भी बड़ा आयातक है, पर भारत से नीचे. ऐसा क्यों है, इसे समझने की जरूरत है.

भारतीय सेनाएं इस वक्त आधुनिकीकरण के दौर में हैं और यह खर्च बढ़ने वाला है. रक्षा आधुनिकीकरण की जो योजना है उसके अनुसार अगले कुछ साल में हम तकरीबन 20 लाख करोड़ रुपए इस मद में खर्च करने वाले हैं. सन 2014-15 के अंतरिम बजट में 2,24,000 करोड़ रुपए रक्षा व्यय के लिए मुकर्रर हैं. अब नई सरकार जो बजट पेश करेगी, उसमें रक्षा व्यय की वास्तविक तस्वीर सामने आएगी. नई सरकार अपने काम-काज के तरीकों में बदलाव लाने की कोशिश कर रही है. सरकार ने एक झटके में ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स और एम्पावर्ड ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की परम्परा समाप्त कर दी है. ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की व्यवस्था भी हमें ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से मिली है, पर उस व्यवस्था में ऐसे ग्रुप की ज़रूरत कभी-कभार पड़ती है। इस तरह के ग्रुपों की शुरूआत 1989 में केन्द्र में बहुदलीय सरकार बनने के बाद शुरू हुई थी। एनडीए के कार्यकाल में 32 जीओएम बनाए गए और यूपीए-1 के कार्यकाल में 40। यूपीए-2 में बने समूहों की संख्या इससे थोड़ी ज्यादा ही थी. तमाम मसलों पर अलग-अलग राय होने के कारण आम सहमति बनाने के लिए मंत्रियों के छोटे ग्रुपों की ज़रूरत महसूस हुई. इन्हें बनाने का उद्देश्य कैबिनेट की कार्यक्षमता को बढ़ाने का था, पर हुआ इसका उल्टा. तमाम फैसले ठप पड़ गए.

पिछली सरकार ने पिछले साल जुलाई में एफडीआई के लिए कुछ नए कदमों की घोषणा की थी. इसमें दूरसंचार, बीमा और रक्षा उद्योग में निवेश की सीमा बढ़ाने का फैसला शामिल था. नागरिक उड्यन, एयरपोर्ट, मीडिया और फार्मा के क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने पर कोई फ़ैसला फिर भी नहीं हो पाया. इऩफ्रास्ट्रक्चर का काफी काम अधूरा पड़ा है. वाणिज्य मंत्रालय के कैबिनेट नोट में रक्षा के अलावा रेलवे, बीमा और समाचार पत्र उद्योग में भी विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव है. खबर यह भी है कि सरकार पर्यावरणीय बंदिशों के कारण रुकी पड़ी 80,000 करोड़ रुपए की परियोजनाओं को मंजूरी देने जा रही है.

सेना के आधुनिकीकरण पर खर्च होने वाले 20 लाख करोड़ रुपए में से आधी रकम साजो-सामान पर खर्च होगी. पर स्वदेशी रक्षा उद्योग की मौजूदा क्षमता सिर्फ 35 हजार करोड़ रुपए वार्षिक की आपूर्ति कर पाने की है. यानी हम अपनी मौजूदा क्षमता के आधार पर स्वदेशी रक्षा सामग्री की आपूर्ति कर ही नहीं सकते. वह तब जब उसकी तकनीक भी हमारे पास हो. मोटा अनुमान है कि रक्षा सामग्री के स्वदेशीकरण के लिए हमें मझगाँव डॉक लिमिटेड जैसे दो और संस्थानों की जरूरत होगी. इसके अलावा एचएएल जैसे तीन, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स और भारत डायनामिक्स जैसी 4 से 6 नई कम्पनियों की जरूरत होगी. इस नई क्षमता को तैयार करने के लिए कम से कम 50 हजार करोड़ रुपए का बुनियादी निवेश फौरन करना होगा. यह सामर्थ्य न तो सरकार के पास है और न निजी क्षेत्र के पास.

भारत में विदेशी पूँजी निवेश को लेकर कई प्रकार के संदेह हैं, खासतौर से रक्षा के क्षेत्र में अंदेशे बहुत ज्यादा हैं. जबकि शेयर बाजार में लगी विदेशी पूँजी के मुकाबले कारखानों में लगी पूँजी ज्यादा सुरक्षित होती है. जिस रक्षा सामग्री को हम विदेश से खरीदते हैं, उसे विदेशी श्रम से तैयार किया जाता है, जबकि भारतीय कारखाने में भारतीयों को रोजगार मिलेगा. ऐसे कारखाने भारतीय पूँजीपतियों के सहयोग से भी लगाए जा सकते हैं. हम लाइसेंस के आधार पर आज भी युद्धक विमान बना रहे हैं. पर लाइसेंस के आधार पर उत्पादन और स्वतंत्र उत्पादन दो अलग बातें हैं. हम भारत में तैयार सामग्री का निर्यात भी कर सकते हैं. विदेशी पूँजी को भारत में सामग्री बनाना सस्ता पड़ेगा तो वह निवेश करने को उत्साहित भी होगा. भारत का कार उद्योग इसका उदाहरण है. रक्षा उद्योग भारी संख्या में रोजगार भी देता है.

विदेशी उपकरणों की खरीद में घोटाले भी होते हैं. ऑगस्टा वेस्टलैंड हैलिकॉप्टर और टैट्रा ट्रक विवाद सामने हैं. इसके कारण विदेशी कम्पनियाँ ब्लैक लिस्ट होती जा रही हैं. हमें रक्षा में आला दर्जे की मेटलर्जी और इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए विदेशी मदद की जरूरत है. हमकर सकते हैं, इसका सबसे अच्छा उदाहरण ब्रह्मोस मिसाइल है, जिसके लिए भारतीय और रूसी पूँजी से संयुक्त क्षेत्र की एक अलग कम्पनी बनाई गई. यह मिसाइल दुनिया में सबसे अनोखी है और इसके जोड़ की मिसाइल अमेरिका के पास भी नहीं है. विदेशी सहयोग से रक्षा सामग्री विकसित रिवर्स इंजीनियरी के कौशल की जरूरत भी है, जो काम चीन ने किया. विचित्र बात है कि हम विदेश में बनी सामग्री खरीदने को तैयार हैं पर उसे अपने ही देश में बनाने की अनुमति देने में अड़ंगे लगाते हैं. बेहतर हो कि यह चलन जल्द से जल्द खत्म हो.
प्रभात खबर में प्रकाशित


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