सरकार क्या करेगी और कितनी सफल होगी, कहना मुश्किल है, पर पीेमओ अब सक्रिय हुआ है और सरकार को दिशा दे रहा है, इसमें दो राय नहीं। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के रास्ते को त्याग कर सरकार ने अपने काम को पुरानी परम्परा से जोड़ा है। ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की व्यवस्था भी हमें ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से मिली है, पर उस व्यवस्था में ऐसे ग्रुप की ज़रूरत कभी-कभार पड़ती है।यूपीए सरकार ने अपनी छवि सुधारने और प्रेस को ब्रीफ करने जैसे काम के लिए जीओएम बना दिए थे और बाकी काम राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) को दे दिए। इससे सरकार निकम्मी हो गई। इस तरह के ग्रुपों की शुरूआत 1989 में केन्द्र में बहुदलीय सरकार बनने के बाद शुरू ही थी। एनडीए के कार्यकाल में 32 जीओएम बनाए गए और यूपीए-1 के कार्यकाल में 40। यूपीए-2 में बने समूहों की संख्या 200 तक बताते है। तमाम मसलों पर अलग-अलग राय होने के कारण आम सहमति बनाने के लिए मंत्रियों के छोटे ग्रुपों की ज़रूरत महसूस हुई। लगभग इसी वजह से संसदीय व्यवस्था में कैबिनेट की जरूरत पैदा हुई थी। जब तक ताकतवर प्रधानमंत्री होते थे तब तक कैबिनेट प्रधानमंत्री के करीबी लोगों की जमात होती थी। इससे व्यक्ति का रुतबा और रसूख जाहिर होता था। पर यूपीए के कार्यकाल में ये ग्रुप गठबंधन धर्म की मजबूरी और फैसले करने से घबराते नेतृत्व की ओर इशारा करने लगे। फिलहाल वर्तमान सरकार की गति तेज है। पर अभी तक यह कार्यक्रम तय करने के दौर में है। कार्यक्रम बनाना मुश्किल काम नहीं है। उनपर अमल करना दिक्कततलब होता है। कुछ समय बाद इस सरकार के कौशल का पता भी लग जाएगा।
नई
सरकार कैसी होगी, यह बात एक हफ्ते के कामकाज को देखकर नहीं बताई जा सकती, पर उसकी
गति तेज होगी और वह बड़े फैसले करेगी यह नज़र आने लगा है। नरेंद्र मोदी की सरकार
बनने के पहले ही उसकी धमक दिल्ली की गलियों में सुनाई पड़ने लगी थी। सोमवार को शपथ
ग्रहण समारोह हुआ। मंगलवार को नवाज शरीफ से बातचीत। बुधवार को अध्यादेश की मदद से भारतीय
दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण(ट्राई) के पूर्व अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र को प्रधान
सचिव नियुक्त किया। नई सरकार का यह पहला अध्यादेश था। उसे लेकर राजनीतिक क्षेत्रों
में विरोध व्यक्त किया गया है, पर मोदी सरकार ने इतना स्पष्ट किया कि फैसला किया
है तो फिर संशय कैसा। ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद कई अन्य अफसर पीएमओ
में आएंगे। स्वाभाविक है कि भरोसे के अफसर होने भी चाहिए। अलबत्ता यह याद दिलाया
जा सकता है कि मनमोहन सिंह के पीएमओ के अफसरों की नियुक्ति में भी फैसले उनके नहीं
थे। ऐसा नहीं लगता कि देश की नीतियों मे कोई बुनियादी बदलाव आने वाला है, पर इतना
जरूर लगता है कि काम के तरीके में बुनियादी बदलाव आ चुका है।
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मई को चुनाव परिणाम आने के बाद अगले रोज़ यह जानकारी मिलने लगी थी कि सभी विभागों
के सचिव नई सरकार के सामने पेश करने के लिए प्रेजेंटेशन तैयार करने में जुट गए
हैं। उन्हें यह भी बताना है कि पिछली सरकार कहाँ गच्चा खा गई थी और उसके कौन से
ऐसे काम हैं, जिन्हें जल्दी पूरा होना चाहिए। यानी उस सरकार के कामों पर पानी नहीं
फेरना है, बल्कि उन्हें गति प्रदान करनी है। प्रधानमंत्री ने सभी मंत्रियों को
पहले 100 दिन के लक्ष्य तैयार करने का निर्देश दिया है। सरकार अचानक
इंफ्रास्ट्रक्चर, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, आर्थिक विकास और महंगाई की बात कर रही
है। नीतियों के समयबद्ध अनुपालन की बातें हो रहीं हैं।
भारत
दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक है। हमारा रक्षा उद्योग इतना विकसित नहीं
कि सेना की जरूरतों को पूरा कर सके। विदेशी खरीद के कारण घोटाले होते हैं। ऑगस्टा
वेस्टलैंड हैलिकॉप्टर और टैट्रा ट्रक विवाद सामने हैं। रक्षा क्षेत्र में फिलहाल
26 फीसदी विदेशी निवेश की अनुमति है, जबकि उससे आगे के लिए कैबिनेट कमेटी ऑन
सिक्योरिटी और परोक्ष रूप से रक्षामंत्री की अनुमति अनिवार्य कर दी गई। हमें रक्षा
में आला दर्जे की मेटलर्जी और इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए विदेशी मदद की जरूरत है। और
रिवर्स इंजीनियरी के कौशल की जो काम चीन ने किया। हम विदेश में बनी सामग्री खरीदते
हैं और उसे अपने ही देश में बनाने की अनुमति देने में अड़ंगे लगाते रहे हैं। जबकि
इससे हमारा रोज़गार बढ़ेगा और सामग्री की कीमत भी घटेगी। हम चाहेंगे तो उसका
निर्यात भी कर सकेंगे। विदेशी पूँजी निवेश को पिछली सरकार ने आठ सदस्यों की समिति
बनाई जिसके अध्यक्ष थे अरविंद मायाराम। समिति ने रक्षा क्षेत्र में सरकार की मंजूरी
से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) सीमा 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने की
सिफारिश की थी। कुल 20 क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने का सुझाव दिया था, सरकार ने सिर्फ़ 12 को ही मंज़ूरी दी।
मोदी सरकार अब विदेशी निवेशकों को संदेश दे रही है कि फैसले अब जल्दी होंगे। नई
सरकार बनने के पहले ही डॉलर के मुकाबले रुपया मजबूत हो गया है। इससे पेट्रोलियम की
कीमतें घटेंगी, जिसका असर महंगाई पर पड़ेगा।
खबर
है कि सरकार पर्यावरणीय बंदिशों के कारण रुकी पड़ी 80,000 करोड़ रुपए की
परियोजनाओं को मंजूरी देने जा रही है। पिछले साल दिसम्बर में पाँच राज्यों की
विधान सभाओं के चुनाव परिणाम आने के बाद 22 दिसंबर को फिक्की की सभा में राहुल
गांधी उद्योग और व्यवसाय के प्रति संवेदनशील नज़र आए। संयोग से उसी दिन पर्यावरण
मंत्री जयंती नटराजन ने इस्तीफा दिया था। उस इस्तीफे को लोकसभा चुनाव के पहले की
संगठनात्मक कवायद माना गया था। पर अंदरखाने की खबर थी देश के कॉरपोरेट सेक्टर को
सरकार से शिकायतें थीं। दूसरा सच यह था कि पीएमओ की चलती नहीं थी। यह बात एक मौके
पर नहीं दसियों मौकों पर उजागर हुई थी। दो साल पहले प्रधानमंत्री के आर्थिक
सलाहकार कौशिक बसु ने इसे ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ कहा था। फिलहाल देश को इस लकवे से मुक्ति मिली।
केवल
सीमा बढ़ाने से ही निवेश नहीं बढ़ेगा। प्रशासनिक बदलाव भी जरूरी है।
सरकारी मशीनरी
आज भी आपत्तियाँ लगाने को कौशल मानती है। रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट में
जो प्रस्ताव पेश किए थे वे बदल गए। उसके पहले सरकार को खुदरा बाजार में विदेशी
निवेश की अनुमति देने का आदेश वापस लेना पड़ा। पेंशन, इंश्योरेंस, बैंकिंग और टैक्स सुधार के तमाम
कानूनों को सरकार संसद से पास नहीं करा पाई। मोदी सरकार के सामने तमाम ऐसे कानूनों
को पास कराने की जिम्मेदारी है, जो पिछली सरकार ने तैयार कराए थे। इस अर्थ में
निरंतरता जारी रहेगी, पर काम-काज की तेजी में बदलाव आएगा।
हरिभूमि में प्रकाशित
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