कांग्रेस के कुछ नेताओं का कहना है कि नरेंद्र मोदी ने हमारे एजेंडा को चुरा लिया है. इस बात में काफी सचाई सम्भव है, पर राजनीति में किसका एजेंडा स्थायी है? कांग्रेस को अब मोदी के एजेंडा की नहीं अपने एजेंडा की चिंता करनी चाहिए. अभी चार राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव आने वाले हैं. क्या वह उनके लिए तैयार है?
संसद
के वर्तमान सत्र का उद्देश्य नए सदस्यों को शपथ दिलाना और संयुक्त अधिवेशन में
राष्ट्रपति का अभिभाषण सुनना है. 9 जून को राष्ट्रपति का अभिभाषण और उसके बाद
धन्यवाद प्रस्ताव ही इस सत्र की महत्वपूर्ण गतिविधि है. इस माने में यह
औपचारिकताओं का सत्र है. इसमें ज्यादा से ज्यादा सरकार की दशा-दिशा का पता लगेगा,
पर वास्तविक संसदीय राजनीति इसके बाद अगले महीने होने वाले बजट सत्र में दिखाई
पड़ेगी.
नरेंद्र
मोदी की सरकार गवर्नेंस को लेकर संवेदनशील है. उसके सभी मंत्री इसलिए अपना सारा
समय नीतियों और परिस्थितियों को समझने में लगा रहे हैं. सबसे महत्वपूर्ण काम वित्त
मंत्रालय का है, जिसे जुलाई में बजट पेश करना है. सबसे मुश्किल काम भी फिलहाल वही
है. फिलहाल इस समय सदन से बाहर की गतिविधियाँ ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, जिनसे देश की
भावी राजनीति की शक्ल तय हो रही है. संयोग से उत्तर प्रदेश के बदायूँ में अति
पिछड़ी जाति की दो दलित बालिकाओं के साथ गैंगरेप ने समूची राजनीति का ध्यान खींचा
है.
अचानक
बदायूँ ‘राजनीतिक पर्यटन’ का केंद्र बन गया. खासतौर से
कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी का उस इलाके में जाकर जनता से बात करना ध्यान
खींचता है. खासतौर से इसलिए कि लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी एकबार
अपने इस्तीफे की पेशकश कर चुके हैं और उन्होंने लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करने
से इनकार कर दिया है. क्या कारण है कि उन्होंने सदन में सक्रिय रहने के बजाय मैदान
में सक्रिय रहने को महत्व दिया है? क्या उनके पास भावी
राजनीति की कोई योजना है? दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी
लोकसभा में प्रचुर बहुमत हासिल करने के बाद भी एनडीए को और ज्यादा ताकतवर करने की
कोशिश कर रही है. पिछले हफ्ते नरेंद्र मोदी ने अद्रमुक नेता जे जयललिता और बीजू
जनता दल के नवीन पटनायक से मुलाकात करके इस दिशा में कदम बढ़ाए हैं. क्या वे
विपक्ष को एकदम कमज़ोर करना चाहते हैं? या वे चाहते हैं कि
विपक्ष के रूप में कांग्रेस की जगह कोई और समूह सामने आए ताकि कांग्रेस की राजनीति
हमेशा के लिए खत्म हो जाए. महत्वपूर्ण यह भी है कि कांग्रेस इस दिशा में क्या कर
रही है.
पिछले
साल जून में भाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सम्हालने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपनी
पार्टी के कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का आह्वान किया था. उस समय तक वे अपनी पार्टी की ओर से
प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं बने थे. उन्होंने इस बात को कई बार कहा था. क्या
वे अपनी इस बात को अमली जामा पहनाने को तत्पर हैं? मोदी की
बात शब्दशः सही साबित नहीं हुई. पर सोलहवीं लोकसभा की रंगत बदली हुई है. पार्टी के
पास कुल 44 सदस्य हैं. राहुल गांधी की उम्र से एक ज्यादा. लोकसभा के इतिहास में पहली बार कांग्रेस इतनी क्षीणकाय है.
देश
के दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से पार्टी का कोई प्रतिनिधि सदन
में नहीं है. इन इलाकों की आवाज़ अब कांग्रेस के माध्यम से सदन में नहीं उठेगी. पर
कांग्रेस की ओर से ऐसा प्रयास दिखाई नहीं पड़ता कि वह अद्रमुक, तृणमूल कांग्रेस और
बीजू जनता दल के साथ मिलकर विपक्ष को कुछ मजबूत बनाने की कोशिश करे. दूसरी ओर
देखें तो लोकसभा में भारी हार के बावजूद देश के 13 राज्यों में अब भी कांग्रेस की प्रत्यक्ष
या उसके गठबंधन की सरकार है. बेशक यह उसकी ताकत है, पर जल्द ही महाराष्ट्र,
हरियाणा, झारखंड और सम्भवतः दिल्ली विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. इनमें पराजय
का मतलब है ढलान पर तेजी से उतरते पार्टी के रथ का भयंकर गति को प्राप्त करना.
पर
उससे बड़ा संकट नेतृत्व का है. पार्टी का नेता कौन है? अपनी
प्रकृति के अनुसार यह खानदानी पार्टी है. पिछले चार दशक में 1991 से 1996 के बीच
नरसिम्हाराव के दौर को छोड़ दें तो यह पार्टी खानदान के बाहर सोच नहीं पाई है. अब
यह क्या करेगी? और जब नेता राहुल को ही बनना है तो संशय किस
बात का? पिछली 25 मई को कांग्रेस संसदीय दल ने सोनिया
गांधी को जब अपना अध्यक्ष चुना तब सबको लगा कि स्वाभाविक रूप से लोकसभा में पार्टी
का नेतृत्व राहुल गांधी करेंगे. भले ही वे चुनाव की भावावेशी वक्तृताओं में सफल न हुए
हों, पर अब उन्हें अपनी बातें कहने का मौका मिलेगा. पर राहुल ने हाथ खींच लिए. अब वे
'न अंदर हैं और न बाहर.'
कांग्रेस
कार्यसमिति की बैठक में कहा गया था कि कांग्रेस के सामने इससे पहले भी चुनौतियाँ
आईं हैं और उसका पुनरोदय हुआ है. इस बार भी वह ‘बाउंसबैक’ करेगी. पर व्यवहार में ऐसा लगता नहीं कि पार्टी 2019 के चुनाव में अपनी
वापसी को लेकर किसी गहरे विचार-मंथन में है. राहुल की संसदीय भूमिका का इतिहास
कमज़ोर है. देखना होगा कि वे अब करते क्या हैं. पार्टी को आधिकारिक विपक्ष के रूप
में मान्यता मिल भी जाए, पर सदन में उसके नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े होंगे.
मल्लिकार्जुन खड़गे मँजे हुए नेता हैं, पर वे सदन में अपने भाषणों के लिए याद नहीं
किए जाते. देश की राजनीति में उत्तर भारत की भूमिका बढ़ी है और कांग्रेस ने लोकसभा
में नेतृत्व की जिम्मेदारी ऐसे नेता को दी है, जिसे हिंदी बोलने में दिक्कत होगी.
पार्टी
के पास अभी राज्यसभा में 68 सदस्य हैं. सरकार को कई मौकों पर कांग्रेस के सहयोग की
जरूरत होगी. वहीं पार्टी को सरकार की खिंचाई करने और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के
कई मौके मिलेंगे. राज्यसभा के कुल 245 सदस्यों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों का
बहुमत नहीं है. जबकि कांग्रेस के पास प्रभावशाली संख्या है. 2015 के अंत तक
राज्यसभा की केवल 23 सीटें खाली होने वाली हैं, इसलिए कांग्रेस की स्थिति में
अभी ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. यह पार्टी को सोचना है कि इस स्थिति का लाभ कैसे
उठाए.
पिछली
सरकार के समय के 60 विधेयक अभी राज्यसभा में विचाराधीन हैं. दूसरी ओर लोकसभा भंग
हो जाने के बाद वहाँ पड़े 68 विधेयक लैप्स हो गए हैं. सरकार चाहेगी तो इनमें से
कुछ को फिर से पेश कर सकती है. इनमें डायरेक्ट टैक्स कोड, न्यायिक जवाबदेही,
जीएसटी, माइक्रोफाइनेंस और महिला विधेयक भी शामिल हैं. कांग्रेस पार्टी की इन
विधेयकों को पास कराने में सकारात्मक भूमिका हो सकती है. देश की जनता संसदीय
कार्यवाही को भी अब ध्यान से देखती है.
पर
असली बात दूसरे मोर्चे पर है. पराजित सेना के सिपाही एक-दूसरे की जान के
प्यासे हो जाते हैं. और डूबते जहाज से चूहे निकल कर भागने लगते हैं. पार्टी में
भीतरी असंतोष को मुखर करने की कोई व्यवस्था नहीं है. अब हार के बाद कार्यकर्ता
हताश है. उसका गुस्सा बाहर नहीं आया तो कोई बड़ा विस्फोट होगा. इधर मिलिंद देवड़ा,
प्रिया दत्त, सत्यव्रत चतुर्वेदी जैसे नेताओं ने सौम्य तरीके से शुरूआत की है. केरल
के वरिष्ठ नेता मुस्तफा और राजस्थान के विधायक भंवरलाल शर्मा ने इसी बात को कड़वे ढंग
से कहा है. पार्टी की केरल शाखा ने केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ प्रस्ताव पास करने
की तैयारी कर ली थी, जिसे अंतिम क्षण में रोका गया. इसी किस्म की बातें इधर-उधर हो
रहीं हैं. पार्टी की समझदारी की परीक्षा इसी घड़ी में होनी है.
प्रभात खबर पॉलिटिक्स में प्रकाशित
अभी क्या करना है, 2019 बहुत दूर है,यह वह पार्टी है जो न सपने देखती है न बेचती है यह सपने तोड़ती है अभी तो सदमे से उभरने का भी ख्याल नही. 2017 तक हाल देखेंगे फिर योजना बनाएंगे इस बीच राज्य विधान सभाओं के चुनाव होंगे उसमें अपना घिसा सिक्का एक बार चला कर देखेंगे, नहीं चला तो सिक्का बदलना भी पड़ सकता है, यदि मोदी सरकार ने कुछ अभूतपूर्व कर दिया तो फिर चिंता होगी
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