Tuesday, May 22, 2018

कर्नाटक से बना विपक्षी एकता का माहौल


कर्नाटक के चुनाव ने 2019 के लोकसभा चुनाव के नगाड़े बजा दिए हैं. बुधवार को बेंगलुरु के कांतिवीरा स्टेडियम में होने वाला समारोह एक प्रकार से बीजेपी-विरोधी मोर्चे का उद्घाटन समारोह होगा. एचडी कुमारस्वामी ने समारोह में राहुल गांधी, सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, शरद पवार, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, के चंद्रशेखर राव, मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, एमके स्टालिन, अजित सिंह जैसे तमाम राजनेताओं को बुलावा भेजा है. इसमें शायद शिवसेना भी शामिल होगी, जो औपचारिक रूप से एनडीए के साथ है. समारोह में शिरकत मात्र से गठबंधन नहीं बनेगा, पर मूमेंटम जरूर बनेगा. 

Sunday, May 20, 2018

कर्नाटक में हासिल क्या हुआ?

येदियुरप्पा की पराजय के बाद सवाल है कि क्या कर्नाटक-चुनाव की तार्किक परिणति यही थी? एचडी कुमारस्वामी की सरकार बन जाने के बाद क्या मान लिया जाए कि कर्नाटक की जनता उन्हें राज्य की सत्ता सौंपना चाहती थी?  इस सवाल का जवाब मिलने में कुछ समय लगेगा, क्योंकि राजनीति में तात्कालिक परिणाम ही अंतिम नहीं होते।


बीजेपी की दृष्टि से देखें तो कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन अपवित्र है। येदियुरप्पा ने कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों से अंतरात्मा की आवाज पर समर्थन माँगा था, जिसमें विफल रहने के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उधर कांग्रेस-जेडीएस के नज़रिए से देखें, तो दो धर्मनिरपेक्ष दलों ने साम्प्रदायिक भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन किया। यह राजनीति अब से लेकर 2019 के चुनाव तक चलेगी। बीजेपी के विरोधी दल एक साथ आएंगे।


उपरोक्त दोनों दृष्टिकोणों के अंतर्विरोध हैं। बीजेपी का पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। निर्दलीयों और अन्य दलों के सदस्यों की संख्या इतनी नहीं थी कि बहुमत बन पाता। ऐसे में सरकार बनाने का दावा करने की कोई जरूरत नहीं थी। अंतरात्मा की जिस आवाज पर वे कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को तोड़ने की उम्मीद कर रहे थे, वह संविधान-विरोधी है। संविधान की दसवीं अनुसूची का वह उल्लंघन होता। दल-बदल कानून अब ऐसी तोड़-फोड़ की इजाजत नहीं देता। कांग्रेस और जेडीएस ने समझौता कर लिया था, तो राज्यपाल को उन्हें ही बुलाना चाहिए था। बेशक अपने विवेकाधीन अधिकार के अंतर्गत वे सबसे बड़े दल को भी बुला सकते हैं, पर येदियुरप्पा सरकार के बहुमत पाने की कोई सम्भावना थी ही नहीं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप सही हुआ।


कर्नाटक के बहाने राज्यपाल, स्पीकर और सुप्रीम कोर्ट की भूमिकाओं को लेकर, जो विचार-विमर्श शुरू हुआ है, वह इस पूरे घटनाक्रम की उपलब्धि है। कांग्रेस की याचिका पर अदालत में अब सुनवाई होगी और सम्भव है कि ऐसी परिस्थिति में राज्यपालों के पास उपलब्ध विकल्पों पर रोशनी पड़ेगी कि संविधान की मंशा क्या है। हमने ब्रिटिश संसदीय पद्धति को अपनाया जरूर है, पर उसकी भावना को भूल चुके हैं। राज्यपालों और पीठासीन अधिकारियों की राजनीतिक भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। कर्नाटक के राज्यपाल पहले नहीं हैं, जिनपर राजनीतिक तरफदारी का आरोप लगा है। सन 1952 से लेकर अबतक अनेक मौके आए हैं, जब यह भूमिका खुलकर सामने आई है।


विधायिका के पीठासीन अधिकारियों के मामले में आदर्श स्थिति यह होती है कि वे अपना दल छोड़ें। आदर्श संसदीय व्यवस्था में जब स्पीकर चुनाव लड़े तो किसी राजनीतिक दल को उसके खिलाफ प्रत्याशी खड़ा नहीं करना चाहिए। हमारी संसद में चर्चा के दौरान जो अराजकता होती है, वह भी आदर्शों से मेल नहीं खाती। कर्नाटक प्रकरण हमें इन सवालों पर विचार करने का मौका दे रहा है। कर्नाटक का यह चुनाव सारे देश की निगाहों में था। इसके पहले शायद ही दक्षिण के किसी राज्य की राजनीति पर पूरे देश की इतनी गहरी निगाहें रहीं हों। इस चुनाव की यह उपलब्धि है। मेरा यह आलेख दैनिक हरिभूमि में प्रकाशित हुआ है। इसका यह इंट्रो मैंने 20 मई की सुबह लिखा है। इस प्रसंग को ज्यादा बड़े फलक पर देखने का मौका अब आएगा। 
हमें कोशिश करनी चाहिए कि यथा सम्भव तटस्थ रहकर देखें कि इस चुनाव में हमने क्या खोया और क्या पाया। राजनीतिक शब्दावली में हमारे यहाँ काफी प्रचलित शब्द है जनादेश। तो कर्नाटक में जनादेश क्या था? कौन जीता और कौन हारा? चूंकि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तो किसी की जीत नहीं है। पर क्या हार भी किसी की नहीं हुई? चुनाव में विजेता की चर्चा होती है, हारने वाले की चर्चा भी तो होनी चाहिए। गठबंधन की सरकार बनी, पर यह चुनाव बाद का गठबंधन है। 

Wednesday, May 16, 2018

हाथी निकला, पूँछ रह गई

टी-20 क्रिकेट की तरह आखिरी ओवर में कहानी बदल गई. कर्नाटक के चुनाव परिणाम जब क्लाइमैक्स पर पहुँच रहे थे तभी उलट-फेर हो गया. बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनने में तो सफल हो गई, पर बहुमत से पाँच छह सीटें दूर रहने की वजह से पिछड़ गई. उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा. पहले से अनुमान था जेडीएस किंगमेकरबनेगी. अब कोई पेच पैदा नहीं हुआ तो एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनेगी. कुमारस्वामी ने अपना दावा भी पेश कर दिया है. उधर येदियुरप्पा का भी दावा है. राज्यपाल के पास सबसे बड़े दल को बुलाने का विकल्प है, पर कुमारस्वामी बहुमत दिखा रहे हैं, तो सम्भव है कि उन्हें ही बुलाया जाए.  

फिलहाल बैकफुट पर है भाजपा

कर्नाटक चुनाव ने एक साथ कई विसंगतियों को जन्म दिया है। कांग्रेस पार्टी चुनाव हारने के बाद सत्ता पर काबिज रहना चाहती है। तीसरे नम्बर पर रहने के बाद भी एचडी कुमारस्वामी अपने सिर पर ताज चाहते हैं। जैसे कभी मधु कोड़ा थे, उसी तरह वे भी कांग्रेस के रहमोकरम पर मुख्यमंत्री पद की शोभा बढ़ाएंगे। कांग्रेस बाहर से राज करेगी या भीतर से, यह सब अभी तय नहीं है।  

मंगलवार की दोपहर लगने लगा कि बीजेपी न केवल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, बल्कि बहुमत के करीब पहुँच रही है. तभी सस्पेंस थ्रिलर की तरह कहानी में पेच आने लगा। उधर कांग्रेस हाईकमान ने बड़ी तेजी से कुमारस्वामी को बिना शर्त समर्थन देने का फैसला किया। सोनिया गांधी ने एचडी देवेगौडा से बात की और शाम होने से पहले राज्यपाल के नाम चिट्ठी भेज दी गई। इस तेज घटनाक्रम के कारण बीजेपी बैकफुट पर आ गई। 

Sunday, May 13, 2018

राहुल गांधी का पहला इम्तहान

कर्नाटक की रैलियों में नरेन्द्र मोदी ने कहा कि इस चुनाव के बाद कांग्रेस पीपीपी (पंजाब, पुदुच्चेरी और परिवार) पार्टी बनकर रह जाएगी। उधर राहुल गांधी ने कहा, हम मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे हैं और राज्य में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं। दो दिन बाद पता चलेगा कि किसकी बात सच है। बीजेपी के मुकाबले यह चुनाव कांग्रेस के लिए न केवल प्रतिष्ठा का बल्कि जीवन-मरण का सवाल है। कांग्रेस को अपनी 2013 की जीत को बरकरार रख पाई, तभी साल के अंत में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में सिर उठाकर खड़ी हो सकेगी।

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस के सिर पर पराजय का साया है। बेशक उसने इस बीच पंजाब में जीत हासिल की है, पर एक दर्जन से ज्यादा राज्यों से हाथ धोया है। सन 2015 में बिहार के महागठबंधन को चुनाव में मिली सफलता पिछले साल हाथ से जाती रही। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद पार्टी सात सीटों पर सिमट गई। पिछले साल गुजरात के चुनाव में पार्टी तैयारी से उतरी थी, पर सफलता नहीं मिली। 

Friday, May 11, 2018

कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा का सीन


दो महीने पहले जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव का बिगुल बजना शुरू हुआ था, तब लगता था कि मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच है। पर अब लगता है कि जेडीएस को कमजोर आँकना ठीक नहीं होगा। चुनावी सर्वेक्षण अब धीरे-धीरे त्रिशंकु विधानसभा बनने की सम्भावना जताने लगे हैं। ज्यादातर विश्लेषक भी यही मानते हैं। इसका मतलब है कि वहाँ का सीन चुनाव परिणाम के बाद रोचक होगा।

त्रिशंकु विधानसभा हुई तब बाजी किसके हाथ लगेगी? विश्लेषकों की राय में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी, पर जरूरी नहीं कि वह सरकार बनाने की स्थिति में हो। वह सबसे बड़ी पार्टी बनने में कामयाब होगी, तो इसकी वजह राहुल गांधी या सोनिया गांधी की रैलियाँ नहीं हैं, बल्कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की चतुर राजनीति है। माना जा रहा है कि देश में मोदी को टक्कर देने की हिम्मत सिद्धारमैया ने ही दिखाई है। प्रचार के दौरान सिद्धारमैया अपना मुकाबला येदियुरप्पा से नहीं, मोदी से बता रहे हैं।  

इतना होने के बाद भी विश्वास नहीं होता कि बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह का चुनाव-मैनेजमेंट आसानी से व्यर्थ होगा। सच है कि इस चुनाव ने बीजेपी को बैकफुट पर पहुँचा दिया है। कांग्रेस अपने संगठनात्मक दोषों को दूर करके राहुल गांधी के नेतृत्व में खड़ी हो रही है। गुजरात में बीजेपी जीती, पर कांग्रेसी डेंट लगने के बाद। केन्द्र के खिलाफ एंटी इनकम्बैंसी भी बढ़ रही है। कर्नाटक के बाद अब बीजेपी को राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की चिंता करनी होगी। 

Wednesday, May 9, 2018

संशय में कर्नाटक का मुस्लिम वोट


कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में लिंगायत और वोक्कालिगा वोट के अलावा जिस बड़े वोट आधार पर विश्लेषकों की निगाहें हैं, वह है मुसलमान। मुसलमान किसके साथ जाएगा? अलीगढ़ में जब मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर घमासान मचा है, उसी वक्त कर्नाटक में कांग्रेस यह साबित करने की कोशिश में है कि वह मुसलमानों की सच्चे हितैषी है। पर कांग्रेस इस वोट को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। उसे डर है कि मुसलमानों का वोट कहीं बँट न जाए। इस वोट को लेकर उसका मुकाबला एचडी देवेगौडा की जेडीएस से है। कर्नाटक की सभाओं में राहुल गांधी मुसलमानों से कह रहे हैं कि जेडीएस बीजेपी की बी टीम है, उससे बचकर रहना।
कर्नाटक में दलित और मुस्लिम वोट कुल मिलाकर 30 फीसदी के आसपास है। इसमें 13-14 फीसदी वोट मुसलमानों का है। जेडीएस ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी और असदुद्दीन ओवेसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के साथ गठबंधन किया है। सवाल है कि क्या जेडीएस इस वोट बैंक का लाभ उठा पाएगी?

Sunday, May 6, 2018

हमारे ‘हीरो’ नहीं हैं जिन्ना


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्रसंघ के हॉल में लगी मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर के विवाद की रोशनी में हम अपने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कुछ स्रोतों को देख सकते हैं। एक दलील है कि जिन्ना की वजह से देश का विभाजन हुआ। स्वतंत्र भारत में उनकी तस्वीर के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह माँग बीजेपी के एक सांसद ने की है, इसलिए एक दूसरा पक्ष भी खड़ा हो गया है। वह कहता है कि तस्वीर नहीं हटेगी। जिन्ना भारतीय इतिहास का हिस्सा हैं। आजादी के बाद से अब तक इस तस्वीर के लगे रहने से भारतीय राष्ट्रवाद को कोई ठेस नहीं लगी, तो अब क्या लगेगी?

इस बीच सोशल मीडिया पर संसद भवन में लगी एक तस्वीर वायरल हुई है। इस तस्वीर में देश के कुछ महत्वपूर्ण राजनेताओं के साथ जिन्ना भी नजर आ रहे हैं। वायरल-कर्ताओं का सवाल है कि संसद भवन से भी क्या जिन्ना की तस्वीर हटाओगे? इस तस्वीर में जिन्ना के साथ जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी नज़र आते हैं। जिन्ना की तस्वीर हटती या नहीं हटती, उसकी खबर मीडिया में नहीं आई होती, तो हंगामा नहीं होता। अब हंगामा हो चुका है। अब फैसला कीजिए कि करें क्या? पहली बार में ही इसे हटा देना चाहिए था। सोचिए कि इस हंगामे से किसका भला हुआ? कुछ लोग हिन्दुओं के एक वर्ग को यह समझाने में कामयाब हुए हैं कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है और दूसरी ओर मुसलमानों के एक तबके के मन में यह बैठाया जा रहा है कि भारत में उनका रहना दूभर है। 

Saturday, May 5, 2018

वोट मुसलमान का, सियासत किसी और की...

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने पहले तो एचडी देवगौड़ा की तारीफ की और फिर अगले ही रोज कहा कि जेडीएस को वोट देने का मतलब है वोट की बरबादी। क्या उनके इन उल्टे-सीधे बयानों के पीछे कोई गहरी राजनीति है? वे वोटर को बहका रहे हैं या अपने प्रतिस्पर्धियों को? क्या बीजेपी और जेडीएस का कोई छिपा समझौता है? क्या बीजेपी ने कांग्रेस को हराने के लिए जेडीएस को ढाल बनाया है? भारतीय राजनीति में सोशल इंजीनियरी का स्वांग तबतक चलेगा, जबतक वोटर को अपने हितों की समझ नहीं होगी। मुसलमान वोटर पर भी यही बात लागू होती है।
कर्नाटक की सोशल इंजीनियरी उत्तर भारत के राज्यों से भी ज्यादा जटिल है। ऐसे में देवेगौडा की तारीफ या आलोचना मात्र से कुछ फीसदी वोट इधर से उधर हो जाए, तो हैरत नहीं होनी चाहिए। इस इंजीनियरी में सिद्धरमैया और अमित शाह में से किसका दिमाग सफल होगा, इसका पता चुनाव परिणाम आने पर लगेगा। इतना समझ में आ रहा है कि बीजेपी की कोशिश है कि दलितों और मुसलमानों के एकमुश्त वोट कांग्रेस को मिलने न पाएं। इसमें जेडीएस मददगार होगी।
सोशल इंजीनियरी का स्वांग
क्या जेडीएस खुद को चारे की तरह इस्तेमाल होने देगी? उसका बीएसपी और असदुद्दीन ओवेसी की एआईएमआईएम के साथ समझौता है और उसका अपना भी वोट-आधार है। उसके गणित को भी समझना होगा। सन 2015 में जबसे ओवेसी बिहार में चुनाव लड़ने गए हैं, उनकी साख घटी है। माना जाता है कि वे कांग्रेस को मिलने वाला मुसलमान वोट काटने के लिए जाते हैं।
राज्य में दलित और मुसलमान दो सबसे बड़े सामाजिक वर्ग हैं। ये दोनों एक साथ आ जाएं, तो बड़ी ताकत बन सकते हैं, पर क्या ऐसा सम्भव है? प्रश्न है कि दलित और मुसलमान क्या टैक्टिकल वोटिंग करेंगे? दलित ध्रुवीकरण अभी राज्य में नहीं है, पर मुसलमान वोट सामान्यतः बीजेपी को हराने वाली पार्टी को जाता है। सिद्धरमैया भी चाहते हैं कि बीजेपी और जेडीएस का याराना नजर आए। इससे मुसलमानों की जेडीएस से दूरी बढ़ेगी। हाल में कांग्रेस ने जेडीएस के कुछ मुस्लिम नेताओं को अपनी तरफ तोड़ा भी है।

Thursday, May 3, 2018

सामाजिक-टकराव के दौर में पत्रकारिता

मई की महीना वैश्विक और हिन्दी-पत्रकारिता की दो तारीखों के लिए याद किया जाता है. हर साल 3 मई को दुनिया प्रेस-फ्रीडम डे मनाती है. और 30 मई को हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाते हैं. मौका है कि हम अपने बारे में बात करें. वैश्विक-पत्रकारिता विसंगतियों से गुज़र रही है. संचार-तकनीक में क्रांतिकारी बदलाव आया है. सोशल मीडिया ने सबको अपनी बात कहने का मौका दिया है. वहीं फेक-न्यूज़ ने मीडिया के नकारात्मक पहलू को उजागर किया है. हाल में टाइम्स ऑफ इंडिया एमडी विनीत जैन ने फेक-न्यूज़ को लेकर कई ट्वीट किए.

फेक-न्यूज़ पर चर्चा चल ही रही थी कि किसी ने टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर की हैडलाइन को नकारात्मक अर्थों में बदल कर सोशल मीडिया पर चला दिया. विनीत जैन ने इस छेड़छाड़ के मास्टर-माइंड को खोज निकालने की घोषणा की है. शायद वे सफल हो जाएं, पर इससे फेक-न्यूज़ का खतरा खत्म नहीं होगा. पिछले चार सौ साल में पत्रकारिता और लोकतंत्र का साथ-साथ विकास हुआ है. दोनों एक-दूसरे पूरक हैं. 

Sunday, April 29, 2018

कर्नाटक-चुनाव के राष्ट्रीय निहितार्थ


कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए नाम वापसी के बाद अब मुकाबले साफ हो गए हैं। वहाँ दो नहीं तीन राजनीतिक शक्तियाँ मुकाबले में हैं। कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस। जेडीएस के साथ बहुजन समाज पार्टी भी चुनाव मैदान में है, जिसके 18 प्रत्याशी मैदान में है। जेडीएस और बसपा-गठबंधन के निहितार्थ चुनाव परिणाम आने के बाद बेहतर समझ में आएंगे, क्योंकि मुकाबला केवल उन 18 सीटों पर ही महत्वपूर्ण नहीं होगा, जहाँ बसपा चुनाव लड़ रही है। कर्नाटक में दलित-वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा है, तकरीबन उतनी ही, जितनी उत्तर प्रदेश में है। कई मानों में कर्नाटक की सामाजिक-संरचना उत्तर प्रदेश जैसी है। बीएसपी वहाँ प्रवेश करना चाहती है।

राज्य में ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति में अबकी बार बीजेपी के हिन्दुत्व की परीक्षा है। दक्षिण भारत के इस हिस्से में अतीत में काफी धर्मांतरण हुआ है। खाड़ी देशों में रोजगार के कारण यहाँ का मुस्लिम-समुदाय समृद्ध है। राज्य में तीन राजनीतिक शक्तियों के कारण चुनाव-परिणामों को लेकर संदेह है कि वह किसी एक पक्ष में जाएंगे भी या नहीं। राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से ये चुनाव कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए जीवन और मरण का सवाल बने हुए हैं। यह चुनाव इस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों को प्रभावित ही नहीं करेगा, बल्कि सन 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा। बीजेपी जीती तो तीनों हिन्दी राज्यों में बीजेपी के चुनाव-प्रचार में जान पड़ेगी। नहीं जीती तो सम्भव है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो जाएं।

Friday, April 27, 2018

निराशाराम!!!

एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के मामले में जोधपुर कोर्ट ने बाबा आसाराम को उम्र कैद की सज़ा सुनाई है। उनके साथियों को भी सजाएं हुईं हैं। आसाराम बापू का नाम उन बाबाओं में लिया जाता है, जिनका गहरा राजनीतिक रसूख रहा है। देश के बड़े-बड़े नेता उनके दरबार में मत्था टेकते रहे हैं। कांग्रेस पार्टी ने एक वीडियो जारी किया है, जिसमें नरेन्द्र मोदी के साथ आसाराम नजर आ रहे हैं। सच यह है कि बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस के बड़े नेता भी उनके भक्त रहे हैं। भक्तों की बड़ी संख्या राजनीति को इस धंधे की तरफ खींचती है।  

संयोग है कि पिछले दो-तीन साल में एक के बाद अनेक कथित संतों का भंडाफोड़ हुआ है। बाबा रामपाल, आसाराम बापू और फिर गुरमीत राम रहीम की जेल-यात्रा ने भारत की बाबा-संस्कृति को लेकर बुनियादी सवाल खड़े किए हैं। क्या बात है, जो इन बाबाओं के पीछे इतनी बड़ी संख्या में भक्त खड़े हो जाते हैं? आसाराम बापू के संगठन का दावा है कि दुनियाभर में उनके चार करोड़ भक्त हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं कि बाबा पर लगे आरोप सही हैं। वे मानते हैं कि उन्हें फँसाया गया है।

Thursday, April 26, 2018

संतन को कहा सीकरी सों काम


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संतों को राज्याश्रय नहीं जनाश्रय चाहिए। उनका रहन-सहन भी आम लोगों जैसा होता है। इस नजरिए से आज के प्रसिद्ध संतों को संत कहना अनुचित है। उनकी जीवन शैली को देखें, तो यह अंतर बड़ा साफ नजर आता है। सम्भव है आज भी उस परम्परा के संत हमारे बीच हों, पर ज्यादातर प्रसिद्ध संत देश की संत परम्परा के उलट हैं। ऐसा क्यों है, विचार इसपर होना चाहिए। बहरहाल इस अंतर को पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी के संत कुम्भनदास (1468-1583) के उदाहरण से समझा जा सकता है। कुम्भनदास अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि थे। वे ब्रज में गोवर्धन से कुछ दूर जमुनावतो गाँव में रहते थे। अपने गाँव से वे पारसोली चन्द्रसरोवर होकर श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने जाते थे। उनका जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। उन्होंने 1492 में महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी।

कुम्भनदास पूरी तरह से विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। उन्होंने किसी के सामने हाथ नहीं पसारा। अलबत्ता उनकी रचनाओं की लोकप्रियता के कारण एक दौर ऐसा आया जब बड़े-बड़े राजा-महाराजा उनका दर्शन करने में सौभाग्य मानने लगे। आर्थिक संकट और दीनता के बावजूद उन्होंने राज्याश्रय को स्वीकार नहीं किया। बादशाह अकबर की राजसभा में किसी गायक ने कुम्भनदास का पद गाया, तो बादशाह ने उस पद के लेखक कुम्भनदास को फतेहपुर सीकरी बुलाया।

कुम्भनदास जाना नहीं चाहते थे,  पर दूतों का विशेष आग्रह देखकर वे पैदल ही गए। पर उन्हें अकबर का ऐश्वर्य दो कौड़ी का लगा। वहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ, पर कुम्भनदास को इसका खेद ही रहा कि जिसका चेहरा देखने से दुःख होता है, उसे सलाम बोलना पड़ा। उनका यह पद संत-परम्परा को स्थापित करता है कि जो फक्कड़ है, वही संत है।

संतन को कहा सीकरी सों काम/आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम/जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम/कुम्भनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।


Tuesday, April 24, 2018

न्यायिक-मर्यादा पर हावी होती राजनीति

जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस को उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने खारिज कर दिया है, पर यह विवाद जल्द ही खत्म नहीं होगा. पिछले हफ्ते के घटनाक्रम ने हमारी न्याय-व्यवस्था को धक्का पहुँचाया है. कपिल सिब्बल ने रविवार को कहा था कि उप राष्ट्रपति इस नोटिस को खारिज नहीं कर पाएंगे, क्योंकि इसका उन्हें अधिकार नहीं है. उनके अनुसार सदन के सभापति को तीन सदस्यों वाली एक जाँच समिति बनानी चाहिए, जिसकी राय मिलने के बाद इस प्रस्ताव पर विचार करने या उसे खारिज करने का फैसला होना चाहिए. यह बात उन्होंने राजनीतिक-पेशबंदी में कही थी, या विधिवेत्ता के रूप में, कहना मुश्किल है. विडंबना है कि दोनों के बीच विभाजक रेखा बहुत महीन रह गई है. यह बात दोनों राजनीतिक पक्षों के लिए कही जा सकती है. 

बहरहाल उप राष्ट्रपति ने इस नोटिस को पहले चरण पर ही अस्वीकार कर दिया है, इसलिए सम्बद्ध दूसरा पक्ष अब सुप्रीम कोर्ट जा सकता है. वह उप राष्ट्रपति के अधिकार को चुनौती देगा. कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा है कि उप राष्ट्रपति को इस प्रस्ताव पर फैसला करने का अधिकार नहीं है. ज़ाहिर है कि अब इस प्रक्रिया में कुछ समय लगेगा. कुछ नए सवाल भी खड़े होंगे. जितनी तेजी से उप राष्ट्रपति ने फैसला किया है, उससे लगता है कि सत्तारूढ़ दल ने पेशबंदी कर ली है. यह भी साफ है कि अब यह सीधे कांग्रेस और बीजेपी के बीच टकराव का मामला बन गया है. शुद्ध न्यायिक मसला नहीं रह गया, जिसका दावा कांग्रेस कर रही है.  

Sunday, April 22, 2018

खतरे में न्यायिक-मर्यादा


सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाए जाने के पक्ष में एक दलील यह दी जा रही है कि महाभियोग सांविधानिक-व्यवस्था है और संविधान में बताए गए तरीके से ही इसका नोटिस दिया गया है. दूसरी बात यह कही जा रही है कि इसके पीछे राजनीतिक उद्देश्य नहीं हैं, यह शुद्ध न्यायिक-मर्यादा की रक्षा में उठाया गया कदम है. संसद में इस विषय पर विचार होगा या नहीं यह बाद की बात है, इस समय यह विषय आम चर्चा में है. सवाल है कि न्यायालय की भावना को लेकर इस किस्म की सार्वजनिक चर्चा करना क्या न्यायिक मर्यादा के पक्ष में है? कहा जाता है कि महाभियोग लाने वालों का उद्देश्य इस चर्चा को बढ़ावा देने का ही है. वे चाहते हैं कि सन 2019 के चुनाव तक यह चर्चा चलती रहे. संसद में संख्या-बल को देखते हुए तो यह प्रस्ताव पास होने की संभावना यों भी कम है.
एक सवाल यह भी है कि क्या यह प्रस्ताव पार्टियों की तरफ से रखा गया है या 64 सदस्यों की व्यक्तिगत हैसियत से लाया गया है? तब इस सिलसिले में शुक्रवार को हुई प्रेस कांफ्रेंस का आयोजक किसे माना जाए? सात दलों को या 64 सदस्यों के प्रतिनिधियों को?  इस प्रेस कांफ्रेंस में जो बातें कही गईं, उन्हें चर्चा माना जाए या नहीं? हमारे संविधान ने संसद सदस्यों को कई तरह के विशेषाधिकार दिए हैं. सार्वजनिक हित में वे ऐसे विषयों पर भी चर्चा कर सकते हैं, जिनपर सदन के बाहर बातचीत सम्भव नहीं (अनुच्छेद 105). मसलन वे सदन के भीतर मानहानिकारक बातें भी कह सकते हैं, जिनके लिए उन्हें उत्तरदायी नहीं माना जाता है. सामान्य नागरिक का वाक्-स्वातंत्र्य अनुच्छेद 19(2) में निर्दिष्ट निबंधनों के अधीन है. मानहानि-कानून के अधीन. पर सांसद को संसद या उसकी समिति में कही गई किसी बात के लिए न्यायालय में उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता.
इसके बावजूद न्यायपालिका की मर्यादा की रक्षा के लिए संसद में भीतर भी वाक्-स्वातंत्र्य सीमित है. उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए, आचरण के विषय में संसद में कोई चर्चा, उस न्यायाधीश को हटाने की प्रार्थना करने वाले आवेदन को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करने के प्रस्ताव पर सदन में विचार की अनुमति मिलने के बाद ही होगी, अन्यथा नहीं (अनुच्छेद 121). सवाल है कि इन दिनों हम जो विमर्श देख-सुन रहे हैं, वह इस दायरे में आएगा या नहीं? यह विषय भी अब अदालत के सामने है. इस सिलसिले में बीजेपी और कांग्रेस के अलावा दूसरे दलों के जो राजनीतिक बयान आ रहे हैं, उनसे नहीं लगता कि किसी की दिलचस्पी न्यायिक मर्यादा में है. देश में वकीलों और कानून के जानकारों के बीच भी जबर्दस्त विभाजन देखने को मिल रहा है, जबकि जरूरत इस बात की है कि कम से कम कुछ मामलों पर सर्वानुमति हो. 


इतिहास के कुछ लम्हे ऐसे होते हैं, जिनका असर सदियों तक होता है। उनका निहितार्थ बरसों बाद समझ में आता है। दुनिया में लोकतांत्रिक-व्यवस्था सदियों के अनुभव से विकसित हुई है। बेशक यह पूर्ण और परिपक्व नहीं है, पर जैसी भी है उसका विकल्प नहीं है। उसकी सीमाओं और सम्भावनाओं को लेकर हमारे मन के द्वार हमेशा खुले रहने चाहिए। इसी रोशनी में और ठंडे दिमाग से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ रखे गए महाभियोग प्रस्ताव को देखना चाहिए। 

Saturday, April 21, 2018

डिफेंस मॉनिटर का नया अंक

हिन्दी में अपने ढंग के अकेली और गुणात्मक रूप से रक्षा, विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा और नागरिक उड्डयन से जुड़े विषयों की श्रेष्ठ  पत्रिका 'डिफेंस मॉनिटर' का ताजा अंक भारत की सबसे बड़ी रक्षा-प्रदर्शनी डेफ-एक्सपो-2018 पर केन्द्रित है। इसमें देश की रक्षा जरूरतों और मेक इन इंडिया से जुड़े सवालों का विवेचन किया गया है। इस अंक का सबसे महत्वपूर्ण लेख है पूर्व नौसेनाध्यक्ष एडमिरल अरुण प्रकाश (सेनि) का लेख 'भारत के अधूरे शस्त्र भंडार की अबूझ पहेली।' उनका कहना है कि देश के राजनीतिक विशिष्ट वर्ग ने जहाँ इस मामले में अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लिया है, वहीं सेनाओं को नौकरशाहों के नियंत्रण में भी कर दिया है। हमें इस हकीकत का सामना करना चाहिए कि आज चीन, ब्राजील, सिंगापुर, तुर्की और यहाँ तक कि पाकिस्तान तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में शस्त्र-विक्रेता बने हुए हैं। आजादी के सात दशक बाद भी सरकार ने रक्षा मामलों पर कोई श्वेत-पत्र जारी करना जरूरी नहीं समझा। इस अंक के अन्य मुख्य लेख हैं, तैयार होती भारत की नाभिकीय त्रयी, गर्मी और उमस में डेफ-एक्सपो-2018 के आयोजन स्थल को लेकर सवाल, सेना की हर बटालियन होगी यूएवी से लैस, माइन स्वीपर पोतों की आपूर्ति में होता भारी विलम्ब, जेसीओ के दर्जे को लेकर मंत्रालय और सेना में असहमति, नए लड़ाकू विमानों की तलाश फिर शुरू, भारत की नई वैश्विक भूमिका का प्रतीक बना नौसेना का मिलन-2018 अभ्यास, हिन्द महासागर में चीनी साजिशों से निपटने की भारत की तैयारी, व्यवहारिकता की ठोस जमीन पर उभरती भारत की विदेश नीति और सामान्य स्थायी स्तम्भ। 

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Friday, April 20, 2018

राजनीति में बाबा-संस्कृति

हाल में मध्य प्रदेश ने राज्य में पाँच बाबाओं को राज्यमंत्री का दर्जा दिया है। इनमें एक हैं कम्प्यूटर बाबा, जिनकी धूनी रमाते तस्वीर सोशल मीडिया में पिछले हफ्ते वायरल हो रही थी। तस्वीर में भोपाल के सरकारी गेस्ट हाउस की छत पर बैठे बाबा साधना में लीन नजर आए। बाबा का कहना था कि सरकार ने नर्मदा-संरक्षण समिति में उन्हें रखा है। इसी वजह से उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया है। सरकार ने जिन पाँच धर्मगुरुओं को राज्यमंत्री का दर्जा दिया है, उनमें कम्प्यूटर बाबा के अलावा नर्मदानंद महाराज, हरिहरानंद महाराज, भैयू महाराज और पंडित योगेंद्र महंत शामिल हैं। इनमें कुछ संतों ने नर्मदा नदी को लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। शायद सरकार ने उन्हें खुश करने के लिए यह तोहफा दिया है।

यह प्रकरण संतों-संन्यासियों को मिलने वाले राज्याश्रय के बारे में विचार करने को प्रेरित करता है। यह उस महान संत-परम्परा से उलट बात है, जिसने भारतीय समाज को जोड़कर रखा है। इस विशाल देश को दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम तक जोड़े रखने में संतों की बड़ी भूमिका रही है। सैकड़ों-हजारों मील की पैदल यात्रा करने वाला जैसा हमारा संत-समाज है, वैसा दुनिया में शायद ही कहीं मिलेगा। इसमें उन सूफी संतों को भी शामिल करना चाहिए, जो इस्लाम और भारतीय संत-परम्परा के मेल के प्रतीक हैं।

Monday, April 16, 2018

राजनीति के छींटे, कावेरी से आईपीएल तक

कावेरी नदी के पानी को लेकर तमिलनाडु में घमासान मचा है. आंदोलनकारियों ने आईपीएल मैचों को राज्य से बाहर खदेड़ दिया है. गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब रक्षा उत्पादों की प्रदर्शनी डेफ-एक्सपो का उद्घाटन करने चेन्नई पहुँचे तो उन्हें काले झंडे दिखाए गए. पानी के बंटवारे को लेकर पहले भी हिंसा होती रही है. ऐसी ही जवाबी हिंसा पड़ोसी राज्य कर्नाटक में भी होती रही है. यह हिंसा कई बार इतना खराब रूप धारण कर लेती है कि दो राज्यों के निवासी शत्रु-देशों जैसा बर्ताव करने लगते हैं. इस आँच में दोनों राज्यों की राजनीति रोटियाँ सेंकने लगती है. इसबार भी ऐसा ही हो रहा है. आंदोलनकारियों ने क्रिकेट को जिस तरह निशाना बनाया, उससे यह भी पता लगता है कि जीवन के नए क्षेत्रों में इसका प्रवेश होने जा रहा है.
करीब सवा सौ साल पुरानी इस समस्या का समाधान हमारी राजनीतिक-प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था खोज नहीं पाई है. इसमें किसका दोष है? देश के अनेक राज्य ऐसी समस्याओं से जूझ रहे हैं. कावेरी–विवाद इस बात को भी रेखांकित कर रहा है कि हमें पानी की समस्या के बेहतर समाधान के बारे में सोचना चाहिए. केवल बेहतर वितरण पानी की तंगी का स्थायी समाधान नहीं है. हमें विज्ञान-तकनीक और प्रबंधन के दूसरे तरीकों पर विचार करना चाहिए. पानी से सदुपयोग का रास्ता इस मसले से जुड़े राज्यों के आपसी सहयोग से निकलेगा, न कि टकराव से.  
मामले को भड़काने में तमिलनाडु सरकार की भूमिका भी रही है. आईपीएल मैचों की जगह बदलने की जरूरत इसलिए पैदा की गई ताकि देश का ध्यान इस तरफ जाए. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में अंतरिम आदेश देते वक्त तमिलनाडु सरकार से कहा था कि जबतक अदालत इस मामले में कोई अंतिम फैसला नहीं कर लेती, तबतक राज्य में कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उसकी है. मुख्य न्यायाधीश ने तमिलनाडु के वकील से कहा था कि 3 मई तक केन्द्र सरकार जल-वितरण की स्कीम तैयार करके देगी. तबतक जन-जीवन सामान्य बनाए रखने की जिम्मेदारी आपकी है.

Sunday, April 15, 2018

न्याय-व्यवस्था की चुनौतियाँ

अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका का ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से हमारी न्यायपालिका को लेकर उसके भीतर और बाहर से सवाल उठने लगे हैं। उम्मीदों के साथ कई तरह के अंदेशे हैं। कई बार लगता है कि सरकार नहीं सुप्रीम कोर्ट के हाथ में देश की बागडोर है। पर न्यायिक जवाबदेही को लेकर हमारी व्यवस्था पारदर्शी नहीं बन पाई है। लम्बे विचार-विमर्श के बाद सन 2014 में संसद ने जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की व्यवस्था के स्थान पर न्यायिक नियुक्ति आयोग या एनजेएसी कानून को बनाया, जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया।

इसमें दो राय नहीं कि न्यायपालिका को स्वतंत्र होना चाहिए और उसे सरकारी दबाव से बाहर रखने की जरूरत है। संविधान ने कानून बनाने और न्यायिक नियुक्तियों के अधिकार विधायिका और कार्यपालिका को दिए हैं। पर, न्यायपालिका जजों की नियुक्ति अपने हाथ में रखना चाहती है। दोनों बातों का व्यावहारिक निहितार्थ है कार्यपालिका का निर्द्वंद होना। यह भी ठीक नहीं है। घूम-फिरकर सारी बातें राजनीति पर आती हैं, जिसकी गैर-जिम्मेदारी भी जाहिर है। सांविधानिक व्यवस्था और पारदर्शिता के मसलों पर जबतक राजनीतिक सर्वानुमति नहीं होगी, हालात सुधरेंगे नहीं। 

Sunday, April 8, 2018

मज़ाक तो न बने संसदीय-कर्म

लोकतांत्रिक गतिविधियों में दो सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिनके कारण यह व्यवस्था सफल है। एक, चुनाव और दूसरे संसदीय कर्म। जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और देश के सामने उपस्थित सवालों के जवाब खोजने में दोनों की जबर्दस्त भूमिका है। दुर्भाग्य से दोनों के सामने सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। चुनाव के दौरान सामाजिक-जीवन की विसंगतियाँ भड़काई जाने लगी हैं। लोकतंत्र की तमाम नकारात्मक भूमिकाएं उभर रहीं हैं। समाज को तोड़ने का काम चुनाव करने लगे हैं।
उधर संसदीय-कर्म को लेकर जो सवाल उभरे हैं, वे उससे भी ज्यादा निराश कर रहे हैं। संसदीय गतिरोधों के कारण जनता का विश्वास अपनी व्यवस्था पर से उठ रहा है। सामान्य नागरिक को समझ में नहीं आ रहा है कि इस सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच पर यह सब क्या होने लगा है? इस हफ्ते संसद के बजट सत्र का समापन बेहद निराशाजनक स्थितियों में हुआ है। पिछले 18 वर्षों का यह न्यूनतम उत्पादक सत्र था। इस सत्र के दौरान लोकसभा ने अपने मुकर्रर समय के 21 फीसदी और राज्यसभा ने 27 फीसदी समय में काम किया। बाकी वक्त बरबाद हो गया।

Sunday, April 1, 2018

राजनीति ने नागरिक को ‘डेटा पॉइंट’ बनाया

पिछले साल जब सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्ति की निजता को उसका मौलिक अधिकार माना, तबसे हम निजी सूचनाओं को लेकर चौकन्ने हैं। परनाला सबसे पहले आधारपर गिरा, जिसके राजनीतिक संदर्भ ज्यादा थे। सामान्य व्यक्ति अब भी निजता के अधिकार के बारे में ज्यादा नहीं जानता। वह डेटा पॉइंट बन गया है, जबकि उसे जागरूक नागरिक बनना है। दूसरी तरफ हमारे वंचित और साधनहीन नागरिक अपनी अस्तित्व की रक्षा में ऐसे फँसे हैं कि ये सब बातें विलासिता की वस्तु लगती हैं। बहरहाल कैम्ब्रिज एनालिटिका के विसिल ब्लोवर क्रिस्टोफर वायली ने ब्रिटिश संसदीय समिति को जो जानकारियाँ दी हैं, उनके भारतीय निहितार्थों पर विचार करना चाहिए। विचार यह भी करना चाहिए कि हमारे विचारों और भावनाओं का दोहन कितने तरीकों से किया जा सकता है और इसकी सीमा क्या है। एक तरफ हम मशीनों में कृत्रिम मेधा भर रहे हैं और दूसरी तरफ इंसानों के मन को मशीनों की तरह काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं। 

इस मामले के तीन अलग-अलग पहलू हैं, जिन्हें एकसाथ देखने की कोशिश संशय पैदा कर रही है। पिछले कुछ समय से हम आधार को लेकर बहस कर रहे हैं। आधार बुनियादी तौर पर एक पहचान संख्या है, जिसका इस्तेमाल नागरिक को राज्य की तरफ से मिलने वाली सुविधाएं पहुँचाने के लिए किया जाना था, पर अब दूसरी सेवाओं के लिए भी इस्तेमाल होने लगा है। इसमें दी गई सूचनाएं लीक हुईं या उनकी रक्षा का इंतजाम इतना मामूली था कि उन्हें लीक करके साबित किया गया कि जानकारियों पर डाका डाला जा रहा है। चूंकि व्यक्तिगत सूचनाओं का व्यावसायिक इस्तेमाल होता है, इसलिए आधार विवाद का विषय बना और अभी उसका मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है। 

Saturday, March 31, 2018

कांग्रेस है कहाँ, एकता-चिंतन के केन्द्र में या परिधि में?


बीजेपी-विरोधी दलों की लामबंदी के तीन आयाम एकसाथ उभरे हैं। एक, संसद में पेश विश्वास प्रस्ताव, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की मुहिम और तीसरा, लोकसभा चुनाव से पहले विरोधी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिश। इन तीनों परिघटनाओं को कांग्रेसी नेतृत्व की दरकार है। अभी साफ नहीं है कि कांग्रेस इन परिघटनाओं का संचालन कर रही है या बाहरी ताकतें कांग्रेस को चलाने की कोशिश कर रही हैं? सवाल यह भी है कि क्या देश की राजनीति ने बीजेपी और शेष के फॉर्मूले को मंजूर कर लिया है?

इस मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस के होने का एक मतलब होगा। और परिधि में रहने का मतलब दूसरा होगा। संयोग से इसी दौर में कांग्रेस के भीतर बदलाव चल रहा है। राहुल गांधी कांग्रेस को बदलने के संकल्प के साथ खड़े हुए हैं, पर उन्होंने अभी तक नई कार्यसमिति की घोषणा नहीं की है। विरोधी-एकता की मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस को लाने के लिए जरूरी होगा कि उसका मजबूत संगठन जल्द से जल्द तैयार होकर खड़ा हो। संसद का यह सत्र खत्म होने वाला है। राजनीतिक दृष्टि से इस दौरान कोई उल्लेखनीय बात हुई। यह शून्य वैचारिक संकट की ओर इशारा कर रहा है।  

ममता-सोनिया संवाद

बुधवार को जब ममता बनर्जी ने दिल्ली में सोनिया गांधी से मुलाकात की, तो इस बात की सम्भावनाएं बढ़ गईं कि विरोधी दलों का महागठबंधन बनाया जा सकता है। अभी तक विरोधी एकता के दो ध्रुव नजर आ रहे थे। अब एक ध्रुव की उम्मीदें पैदा होने लगी हैं। पर, ममता-सोनिया संवाद ने जितनी उम्मीदें जगाईं, उतने सवाल भी खड़े किए हैं। यूपीए की ओर से पिछले कुछ समय से विरोधी-एकता की जो भी कोशिशें हुईं हैं, उनमें तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि शामिल हुए हैं, पर ममता बनर्जी उनमें नहीं आईं। अब ममता खुद सोनिया के दरवाजे पर आईं और भाजपा-विरोधी फ्रंट में साथ देने का न्योता दिया। ममता के मन में भी द्वंद्व है क्या?

Sunday, March 25, 2018

पत्रकारिता माने मछली-बाजार नहीं

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने जय शाह मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि मीडिया को और ज्यादा जिम्मेदार होने की जरूरत है। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा, हम प्रेस की आवाज को नहीं दबा रहे हैं, लेकिन कभी-कभी पत्रकार कुछ ऐसी बातें लिखते हैं जो पूर्ण रूप से अदालत की अवमानना होती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ उच्च पदों पर बैठे पत्रकार कुछ भी लिख सकते हैं। क्या यह वाकई पत्रकारिता है? हम हमेशा प्रेस की आजादी के पक्षधर रहे हैं, लेकिन किसी के बारे में कुछ भी बोल देना और कुछ भी लिख देना गलत है। इसकी भी एक सीमा होती है।

Tuesday, March 20, 2018

माफ़ियों के बाद अब ‘आप’ का क्या होगा?

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
आम आदमी पार्टी का जन्म पिछले लोकसभा चुनाव से पहले 2012 में हुआ था. लगता था कि शहरी युवा वर्ग राजनीति में नई भूमिका निभाने के लिए उठ खड़ा हुआ है. वह भारतीय लोकतंत्र को नई परिभाषा देगा.
सारी उम्मीदें अब टूटती नज़र आ रही हैं.
संभव है कि अरविंद केजरीवाल माफी-प्रकरण के कारण फंसे धर्म-संकट से बाहर निकल आएं. पार्टी को क़ानूनी माफियां आसानी से मिल जाएंगी, पर नैतिक और राजनीतिक माफियां इतनी आसानी से नहीं मिलेंगी.
क्या वे राजनीति के उसी घोड़े पर सवार हो पाएंगे जो उन्हें यहां तक लेकर आया है? अब उनकी यात्रा की दिशा क्या होगी? वे किस मुँह से जनता के बीच जाएंगे?
ख़ूबसूरत मौका खोया
दिल्ली जैसे छोटे प्रदेश से एक आदर्श नगर-केंद्रित राजनीति का मौक़ा आम आदमी पार्टी को मिला था.
 उसने धीरे-धीरे काम किया होता तो इस मॉडल को सारे देश में लागू करने की बातें होतीं, पर पार्टी ने इस मौक़े को हाथ से निकल जाने दिया.
उसके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का कैनवस इतना बड़ा था कि उसपर कोई तस्वीर बन ही नहीं सकती थी.
ज़ाहिर है कि केजरीवाल अब बड़े नेताओं के ख़िलाफ़ बड़े आरोप नहीं लगाएंगे. लगाएँ भी तो विश्वास कोई नहीं करेगा.
उन्होंने अपना भरोसा खोया है. पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती अब यह है कि वह अपनी राजनीति को किस दिशा में मोड़ेगी.
चंद मुट्ठियों में क़ैद और विचारधारा-विहीन इस पार्टी का भविष्य अंधेरे की तरफ़ बढ़ रहा है.
समर्थकों से धोखा
केजरीवाल की बात छोड़ दें, पार्टी के तमाम कार्यकर्ता ऐसे हैं जिन्होंने इस किस्म की राजनीति के कारण मार खाई है, कष्ट सहे हैं.
बहुतों पर मुक़दमे दायर हुए हैं या किसी दूसरे तरीक़े से अपमानित होना पड़ा. वे फिर भी अपने नेतृत्व को सही समझते रहे. धोखा उनके साथ हुआ.
संदेश यह जा रहा है कि अब उन्हें बीच भँवर में छोड़कर केजरीवाल अपने लिए आराम का माहौल बनाना चाहते हैं. क्यों?
बात केवल केजरीवाल की नहीं है. उनकी समूची राजनीति का सवाल है. ऐसा क्यों हो कि वे चुपके से माफी मांग कर निकले लें और बाकी लोग मार खाते रहें?



फिर से खड़ी होती कांग्रेस

कांग्रेस महासमिति का 84 वां अधिवेशन दो बातों से महत्वपूर्ण रहा। पार्टी में लम्बे अरसे बाद नेतृत्व परिवर्तन हुआ है। इस अधिवेशन में राहुल गांधी की अध्यक्षता की पुष्टि हुई। दूसरे यह ऐसे दौर में हुआ है, जब पार्टी लड़खड़ाई हुई है। अब कयास हैं कि पार्टी निकट या सुदूर भविष्य में किस रास्ते पर जाएगी। अध्यक्ष पद की सर्वसम्मति से पुष्टि के अलावा अधिवेशन के अंतिम दिन राज्यों से आए प्रतिनिधियों और एआईसीसी के सदस्यों ने फैसला किया कि कांग्रेस कार्यसमिति के मनोनयन का पूरा अधिकार अध्यक्ष को सौंप दिया जाए। अटकलें यह भी थीं कि शायद राहुल गांधी कार्यसमिति के आधे सदस्यों का चुनाव करा लें। ऐसा हुआ नहीं और एक दीर्घ परम्परा कायम रही। बहरहाल इस महाधिवेशन के साथ कांग्रेस ने एक नए दौर की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। इतना नजर आता है कि कांग्रेस नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय आपदा साबित करेगी और पहले के मुकाबले और ज्यादा वामपंथी जुमलों का इस्तेमाल करेगी। पार्टी की अगली कतार में अब नौजवानों की एक नई पीढ़ी नजर आएगी।  

Monday, March 19, 2018

क्षेत्रीय क्षत्रपों में हलचल

तेलुगु देशम पार्टी ने अपने चार साल पुराने गठबंधन को खत्म करके एनडीए से अलग होने का फैसला अचानक ही नहीं किया होगा। पार्टी ने बहुत तेजी से मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का फैसला भी कर लिया। आंध्र की ही वाईएसआर कांग्रेस ने इसके पहले अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, जिसके नोटिस को स्पीकर स्वीकार नहीं किया। सब जानते हैं कि सरकार गिरने वाली नहीं है, पर अचानक इस प्रस्ताव को समर्थन मिलने लगा है। इसके साथ कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एआईएमआईएम और वामपंथी पार्टियाँ नजर आ रहीं हैं। याद करें, पिछले लोकसभा चुनाव के पहले आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राजनीतिक कारणों से खबरों में रहते थे।

क्षेत्रीय क्षत्रपों की राष्ट्रीय आकांक्षाएं

बीजेपी की राजनीति का पहला निशाना कांग्रेस है और कांग्रेस का पहला निशाना बीजेपी है. दोनों पार्टियों के निशान पर क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं हैं, बल्कि दोनों की दिलचस्पी क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ की है. इसके विपरीत क्षेत्रीय दलों की दिलचस्पी राष्ट्रीय दलों को पीछे धकेलकर केन्द्र की राजनीति में प्रवेश करने की है. देश में क्षेत्रीय राजनीति का उदय 1967 में कांग्रेस की पराजय के साथ हुआ था. इस परिघटना के तीन दशक बाद जबतक बीजेपी का उदय नहीं हुआ, राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ कांग्रेस थी. सन 2004 तक एनडीए और उसके बाद यूपीए और फिर एनडीए सरकार के बनने से ऐसा लगा कि राष्ट्रीय जनाधार वाले दो दल हमारे बीच हैं. पर, अब कांग्रेस के निरंतर पराभव से अंदेशा पैदा होने लगा है कि उसकी राष्ट्रीय पहचान कायम रह भी पाएगी या नहीं. उत्तर प्रदेश और बिहार में हिन्दी इलाके की राजनीति विराजती है, जो राष्ट्रीय राजनीति की धुरी है. दोनों राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो चुका है.

हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो दो बातें नजर आ रहीं है. एक, बीजेपी ने पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में पैर पसारने की कोशिश की है. दूसरे दक्षिणी राज्यों समेत देश के दूसरे इलाकों की राजनीति केन्द्र की तरफ बढ़ रही है. तेलुगु देशम ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का बिगुल बजाकर केवल आंध्र के आर्थिक सवाल को ही नहीं उठाया है, बल्कि चंद्रबाबू नायडू की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी उजागर किया है. इस अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिरेगी नहीं, पर क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को सामने आने का मौका जरूर मिला है.

Sunday, March 18, 2018

अपने ही बुने जाले में फंसते जा रहे हैं केजरीवाल

कार्टून साभार सतीश आचार्य
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
17 मार्च 2018


सिर्फ़ चार साल की सक्रिय राजनीति में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी भारतीय इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो गए हैं. और ऐसे दर्ज़ हुए हैं कि उन पर चुटकुले लिखे जा रहे हैं.


उनका ज़िक्र होने पर ऐसे मकड़े की तस्वीर उभरती है, जो अपने बुने जाले में लगातार उलझता जा रहा है.
इस पार्टी ने जिन ऊँचे आदर्शों और विचारों का जाला बुनकर राजनीति के शिखर पर जाने की सोची थी, वे झूठे साबित हुए. अब पूरा लाव-लश्कर किसी भी वक़्त टूटने की नौबत है. जैसे-जैसे पार्टी और उसके नेताओं की रीति-नीति के अंतर्विरोध खुल रहे हैं, उलझनें बढ़ती जा रही हैं.


ठोकर पर ठोकर
केजरीवाल के पुराने साथियों में से काफ़ी साथ छोड़कर चले गए या उनके ही शब्दों में 'पिछवाड़े लात लगाकर' निकाल दिए गए. अब वे ट्वीट करके मज़ा ले रहे हैं, 'हम उस शख़्स पर क्या थूकें जो ख़ुद थूक कर चाटने में माहिर है!'

अकाली नेता बिक्रम मजीठिया से केजरीवाल की माफ़ी के बाद पार्टी की पंजाब यूनिट में टूट की नौबत है. दिल्ली में पहले से गदर मचा पड़ा है. 20 विधायकों के सदस्यता-प्रसंग की तार्किक परिणति सामने है. उसका मामला चल ही रहा था कि माफ़ीनामे ने घेर लिया है.

मज़ाक बनी राजनीति
सोशल मीडिया पर केजरीवाल का मज़ाक बन रहा है. किसी ने लगे हाथ एक गेम तैयार कर दिया है. पार्टी के अंतर्विरोध उसके सामने आ रहे हैं. पिछले दो-तीन साल की धुआँधार राजनीति का परिणाम है कि पार्टी पर मानहानि के दर्जनों मुक़दमे दायर हो चुके हैं. ये मुक़दमे देश के अलग-अलग इलाक़ों में दायर किए गए हैं.


पार्टी प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज का कहना है कि अदालतों में पड़े मुक़दमों को सहमति से ख़त्म करने का फ़ैसला पार्टी की क़ानूनी टीम के साथ मिलकर किया गया है, क्योंकि इन मुक़दमों की वजह से साधनों और समय की बर्बादी हो रही है. हमारे पास यों भी साधन कम हैं.

माफियाँ ही माफियाँ
बताते हैं कि जिस तरह मजीठिया मामले को सुलझाया गया है, पार्टी उसी तरह अरुण जेटली, नितिन गडकरी और शीला दीक्षित जैसे मामलों को भी सुलझाना चाहती है. यानी माफ़ीनामों की लाइन लगेगी. पिछले साल बीजेपी नेता अवतार सिंह भड़ाना से भी एक मामले में माफ़ी माँगी गई थी.


केजरीवाल ने उस माफ़ीनामे में कहा था कि एक सहयोगी के बहकावे में आकर उन्होंने आरोप लगाए थे. पार्टी सूत्रों के अनुसार हाल में एक बैठक में इस पर काफ़ी देर तक विचार हुआ कि मुक़दमों में वक़्त बर्बाद करने के बजाय उसे काम करने में लगाया जाए.


सौरभ भारद्वाज ने पार्टी के फ़ैसले का ज़िक्र किया है, पर पार्टी के भीतरी स्रोत बता रहे हैं कि माफ़ीनामे का फ़ैसला केजरीवाल के स्तर पर किया गया है.

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