Wednesday, March 4, 2015

कश्मीर में 'घोड़े और घास' की यारी!

कई प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक वर्जनाएं राजनीति तय करती है और फिर उनके उल्लंघन का रास्ता भी वही बताती है. सन 1996 में भाजपा इस राजनीति के लिए अछूत पार्टी थी, पर सन 2004 के चुनाव के ठीक पहले जिस तरह से अनेक उदारवादी प्रतिभाएं भाजपा में शामिल हो रहीं थीं उसे देखते हुए लगता था कि कांग्रेस का जमाना गया. पर उस चुनाव में भाजपा का गणित फेल हुआ और कांग्रेस का जमाना फिर से वापस आ गया. पर उस राजनीति में भी पेच था. श्रीमती सोनिया गांधी ने 'त्याग' करने का निश्चय किया और अपेक्षाकृत अनजाने व्यक्ति को देश का प्रधानमंत्री बना दिया. यह भी एक अजूबा था. दुनियाभर की राजनीति में ऐसे अजूबे होते रहते हैं. सन 1947 के पहले कौन कह सकता था कि भारत की संसदीय प्रणाली में कम्युनिस्ट पार्टियों की भूमिका होगी. वे तो संसदीय प्रणाली के खिलाफ थीं. पर 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार चुनाव जीतकर बनी तो यह अजूबा था. दो साल बाद वह सरकार बर्खास्त की गई तो वह भी अजूबा था. जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा की सरकार बनना भी अजब लगता है, पर यह चुनाव परिणामों की तार्किक परिणति है. वहाँ की जो परिस्थितियाँ हैं उन्हें देखते हुए भविष्य में भी ऐसी सरकारें ही बनेंगी. कम से कम तब तक बनेंगी जब तक कोई अकेली ऐसी पार्टी सामने न आए जो जम्मू और घाटी दोनों जगह समान रूप से लोकप्रिय हो. हो सकता है ऐसा भी कभी हो, पर वर्तमान स्थितियों में जो हुआ है वह कुछ लोगों को अजूबा भले लगे, पर अपरिहार्य था. 

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा गठबंधन घोड़े और घास की दोस्ती जैसा लगता है. जम्मू के लोगों को लगता है कि घाटी वाले इसे कबूल नहीं करेंगे और घाटी वालों को लगता है कि यह सब तमाशा है. मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के बयान के बाद विघ्नसंतोषी बोले हम कहते थे न कि सब कुछ ठीक-ठाक चलने वाला नहीं है. पाकिस्तान और हुर्रियत की सकारात्मक भूमिका का जिक्र चल ही रहा था कि अफजल गुरु के अवशेषों की माँग सामने आ गई. मुफ्ती के बयान की गूँज संसद में भी सुनाई पड़ी है. गठबंधन के विरोधी तो मुखर हैं ही भाजपा के कार्यकर्ता भी उतर आए हैं. लगता है सरकार बस अब गई.

Sunday, March 1, 2015

बजट पर मीडिया

मोदी सरकार के आम बजट को लेकर अखबारों की कवरेज इस बार काफी मतभ्रम की शिकार नजर आई। हिन्दी अखबार तो यों ही ज्यादातर शाब्दिक बाजीगरी का सहारा लेते रहे हैं, अंग्रेजी के अखबार भी फीके नजर आए। अलबत्ता अखबारों के सम्पादकीय पेजों पर बजट को समझने की कोशिश की गई है। अमर उजाला के पहले सफे के शीर्षक और सम्पादकीय पेज की सामग्री में विसंगति दिखाई पड़ती है। नवभारत टाइम्स विश्वकप क्रिकेट के प्रोमो 'मौका-मौका' से प्रभावित है। हिन्दुस्तान ने अपने ही कई साल पुराने क्रिकेट के रूप का इस्तेमाल किया है।  इन कोशिशों में विषय को समझने की गम्भीरता नजर नहीं आती। बजट पर मीडिया का नजरिया पेश हैः-  

बड़ी आर्थिक तस्वीर बनाने की कोशिश

अरुण जेटली के बजट को आर्थिक उदारीकरण और टैक्स प्रणाली के सुधार और राजकोषीय घाटे को काबू में लाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए। इसका उद्देश्य अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाना है। इस बार की आर्थिक समीक्षा में आशा व्यक्त की गई है कि अगले कुछ वर्ष में विकास दर 10 फीसदी के स्तर से ऊपर भी जा सकती है। यानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह दुनिया की सबसे तेज अर्थ-व्यवस्था बन जाएगी। उस स्तर पर आने के पहले हमारी आंतरिक व्यवस्थाएं इतनी पुख्ता होनी चाहिए कि वे किसी वैश्विक दुर्घटना की स्थिति में बड़े से बड़े झटके को बर्दाश्त कर सके।

हमें केवल इनकम टैक्स और उपभोक्ता सामग्री के सस्ता या महंगा होने पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए। आम बजट केवल इतने भर के लिए नहीं होता। वह देश की वृहत आर्थिक तस्वीर (मैक्रो इकोनॉमिक पिक्चर) को भी पेश करता है। इस बार का बजट इसी लिहाज से देखा जाना चाहिए। महत्वपूर्ण है उदारीकरण की दिशा को समझना जो रोजगार पैदा करने, आधार ढाँचे को बनाने और आर्थिक संरचना को परिभाषित करने का काम करेगी। कुछ लोग इसे कॉरपोरेट सेक्टर को फायदा पहुँचाने वाला बजट मान रहे हैं, जबकि बजट घोषणाओं के बाद शेयर बाजार में गिरावट आने लगी। दिन में कई उतार-चढ़ाव देखने के बाद शेयर बाजार मामूली बढ़त के साथ बंद हुआ। इससे समझ में आता है कि कॉरपोरेट सेक्टर भी इसका मतलब समझने की कोशिश कर रहा है। बहरहाल यह बजट देशी-विदेशी निवेशकों को स्थिर, विश्वसनीय और निष्पक्ष टैक्स प्रणाली मुहैया कराने की कोशिश करता नजर आता है।

इस साल जनवरी में दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि सुधार प्रक्रिया और अन्य नीतिगत पहलों का कुल असर बिग-बैंग से भी बढ़कर होगा। उनके बजट से बिग बैंग सुधारों की आशा थी, पर ऐसा हुआ नहीं। बजट के एक दिन पहले पेश किए गए आर्थिक सर्वे के अनुसार भारत में फिलहाल बड़े आर्थिक सुधारों के लिए न तो माहौल है और न ही जरूरत। फिलहाल अर्थ-व्यवस्था में सरलीकरण की प्रक्रिया चल रही है।

Saturday, February 28, 2015

भूमि अधिग्रहण का अखाड़ा और राजनीति का पहाड़ा

मोदी सरकार के लिए भूमि अधिग्रहण कानून संकट पैदा करने वाला है। शायद सरकार ने इसके जोखिमों के बारे में विचार नहीं किया। इसके इर्द-गिर्द भाजपा विरोधी आंदोलन खड़ा हो रहा है जिससे केंद्र सरकार पर तो खतरा पैदा नहीं होगा, पर राजनीतिक रूप से उसे अलोकप्रिय बना सकता है। दूसरी ओर यह कानून हमारे तमाम अंतर्विरोधों को खोलेगा और विरोधी आंदोलन की राजनीति चलाने वालों की नींद भी हराम करेगा। इतना कड़ा कानून बनाने के बाद कांग्रेस के सामने भी इससे अपना पिंड छुड़ाने का खतरा पैदा होगा।

क्या सरकार को किसी की व्यक्तिगत सम्पत्ति पर कब्जा करने का अधिकार होना चाहिए? क्या राजनीतिक कारणों से राष्ट्रीय महत्व के सवालों को उलझाना उचित है? क्या हमारे पास सामाजिक विकास और आर्थिक संवृद्धि के संतुलन का कोई फॉर्मूला नहीं है? देश की एक तिहाई आबादी शहरों में रह रही है और लगभग इतनी ही आबादी शहरों में रहने की योजना बना रही है या वहाँ जाने को मजबूर हो रही है। शहर बसाने के लिए जमीन कहाँ से आएगी? गाँवों में केवल किसान ही नहीं रहते हैं। वहाँ की दो तिहाई से ज्यादा आबादी भूमिहीनों या बेहद छोटी जोत वाले किसानों की है, जिनकी आजीविका केवल अपने ही खेत के सहारे नहीं है। उन्हें काम देने के लिए उनके आसपास आर्थिक गतिविधियों को संचालित करने की जरूरत है। इतने लोगों के लिए उद्योग बनाने के लिए जगह कहाँ है?

Thursday, February 26, 2015

रेल बजट माने जादू का पिटारा

 शेयर बाजार की खबरें हैं कि पिछले दो दिन से रेलवे से जुड़ी कम्पनियों के शेयरों में उछाला देखने को मिल रहा है. ऐसी क्या खुश खबरी हो सकती है जिसे लेकर शेयर बाजार खुश है? क्या निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ने वाली है? क्या रेलमंत्री सामान्य यात्री की सुविधाएं बढ़ा सकते हैं? तमाम खामियों के बावजूद हमारी रेलगाड़ी गरीब आदमी की सवारी है. सिर्फ इसके सहारे वह अपनी गठरी उठाए महानगरों की सड़कों पर ठोकरें खाने के लिए अपना घर छोड़कर निकलता है. किराया बढ़ने का मतलब है उसकी गठरी पर लात लगाना. रेलगाड़ी औद्योगिक गतिविधि भी है. वह बगैर पूँजी के नहीं चलती. मध्य वर्ग की दिलचस्पी अपनी सुविधा में है. सरकार को तमाम लोगों के बारे में सोचना होता है.