Saturday, September 21, 2013

रैनबैक्सीः भारतीय औषधि उद्योग की प्रतिष्ठा को धक्का

रैनबैक्सी की दवाओं पर अमेरिका में पाबंदी लगने से भारतीय शेयर बाजार में निवेशकों के 5,855 करोड़ रुपए एक दिन में ही डूब गए। दुनिया में बिकने वाली तकरीबन चालीस फीसदी जेनरिक दवाएं भारत में बनती हैं। क्या इस फैसले का असर इस पूरे कारोबार पर पड़ेगा? भारत में डॉ रेड्डीज लैबोरेटरीज़, ल्यूपिन लिमिटेड, सन फार्मा और सिपला वगैरह के कारोबार पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है। अमेरिकी एफडीए सभी कंपनियों का निरीक्षण नहीं करता, पर रैनबैक्सी के साथ हालात बिगड़ते चले गए। सही है कि अमेरिकी मानक कड़े होते हैं, पर रैनबैक्सी के मामले में शिकायतें केवल कड़ाई की नहीं थीं। क्या हम वास्तव में दवाओं के ठीक से क्लीनिकल ट्रायल भी नहीं कर सकते? सवाल यह भी है कि हमारे देश के औषधि नियामक किस बात का इंतजार कर रहे हैं? क्या उन्हें अपने देश की कम्पनी से जुड़े मामले की जाँच नहीं करनी चाहिए? क्या कारण है कि हमारे देश में ऐसी कंपनियाँ नहीं है जो नए अनुसंधान के आधार पर दवाएं बनाने की कोशिश करें? क्या हम केवल नकल कर सकते हैं वह भी टेढ़े तरीके से? इस मामले में अमेरिका का विसिल ब्लोवर कानून भी काम में आया है। कंपनी के एक पूर्व अधिकारी की शिकायतें भी इसमें शामिल हैं। इसलिए इस सवाल पर भी विचार करने की जरूरत है कि हम विसिल ब्लोवर कानून को पास करने देरी क्यों कर रहे हैं? और यह भी कि इस कानून को निजी कंपनियों पर भी क्यों नहीं लागू करना चाहिए?

Monday, September 16, 2013

मोदीः मसीहा या मुसीबत

 शनिवार, 14 सितंबर, 2013 को 20:16 IST तक के समाचार
भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार आखिरकार घोषित कर दिया. लाल कृष्ण आडवाणी के साथ-साथ कुछ और लोगों के तमाम विरोधों के बावजूद मोदी के नाम की घोषणा क्या बीजेपी में एक नए अध्याय की शुरूआत होगी.
क्या मोदी की उम्मीदवारी बीजेपी के लिए तुरूप का पत्ता साबित होगी या इससे पार्टी का अंदरूनी झगड़ा और बढ़ जाएगा. आप क्या सोचते हैं बीजेपी की इस राजनैतिक पहल पर.
बीबीसी इंडिया बोल में इस शनिवार इसी मुद्दे पर बहस हुई. इस कार्यक्रम में श्रोताओं के सवाल दिए वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने.

Sunday, September 15, 2013

घायल है सामाजिक ताना-बाना

मुजफ्फरनगर की घटना के बाद कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। हिंसा में मरने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। इसके घाव काफी गहरे हैं और काफी देर तक इस इलाके को तकलीफ देते रहेंगे। ज्यादा भयावह है घर छोड़कर भागने वालों की बड़ी संख्या। चालीस-पचास हजार या इससे भी ज्यादा लोगों को घरों से भागना पड़ा। वे वापस आ भी जाएंगे तो उनके मन में गहरी दहशत होगी। जिस भाई-चारे और भरोसे के सहारे वे अपने को सुरक्षित पाते थे वह खत्म हो गया है। यह भरोसा सामाजिक ताना-बाना प्रदान करता है। दुनिया की बड़ी से बड़ी प्रशासनिक मशीनरी इसकी गारंटी नहीं दे सकती। आग प्रशासनिक नासमझी से लगी और राजनीतिक स्वार्थों ने इसे भड़काया। इसे ठीक करने की जिम्मेदारी इन दोनों पर है। पर आने वाले वक्त के राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए यह सम्भव नहीं लगता। इसे ठीक करने के लिए भी उन्हीं खाप पंचायतों की जरूरत होगी, जिन्हें कई समस्याओं का दोषी माना जाता है। उन्हें याद दिलाया जाना चाहिए कि वे जिस साझा परम्परा के प्रतिनिधि हैं उसका संवल है एक-दूसरे पर विश्वास। सामाजिक बदलाव और आधुनिकीकरण के रास्ते पर जाने के लिए इन पंचायतों के भीतर विमर्श की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। इसकी जिम्मेदारी नौजवान पीढ़ी को अपने ऊपर लेनी चाहिए।

दुर्भाग्य से इस समय हमारा राष्ट्रीय विमर्श इस बात पर केन्द्रित है कि क्या जाटों का झुकाव भाजपा की ओर बढ़ेगा या क्या मुसलमान सपा का साथ छोड़ेंगे या क्या बसपा इसका फायदा उठाएगी। हमारे सोच-विचार का यही तरीका है। पर विचार इस बात पर होना चाहिए कि उस ताने-बाने को पुनर्स्थापित कैसे किया जाए जो शहरों में तमाम साम्प्रदायिक फसादों के बावजूद गाँवों में बचा रहा। और जो इस बार की हिंसा में तार-तार हो गया है। इतनी बड़ी संख्या में गाँवों से पलायन हमारे सामाजिक जीवन की नई घटना है।
  
बहरहाल 27 अगस्त को मुजफ्पऱनगर के कवाल गाँव में एक छोटी सी घटना के बाद युवकों के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें पहले एक की मौत हुई, फिर भीड़ ने दो युवकों को पीट-पीटकर मार डाला। इस घटना से स्वाभाविक रूप से आसपास के इलाकों में दहशत फैली होगी। पर ऐसा नहीं था कि दूर-दूर के गाँवों में हिंसा फैलती। प्रशासन को इस घटना की संवेदनशीलता का अनुमान था इसलिए उसने फौरन कार्रवाई करने की ठानी। नासमझी, अनुभवहीनता या अब तक के चलन को देखते हुए उसने वह किया जो नहीं किया जाना चाहिए था। घटना के कुछ समय बाद ही जिले के एसएसपी और जिलाधिकारी को हटा दिया गया। उस रोज इस इलाके में बड़े स्तर की सामूहिक हिंसा नहीं हुई थी। समझदार लोग बात की गम्भीरता को समझते थे और शायद समझाने-बुझाने पर चीजें ठीक रास्ते पर आ जातीं। पर प्रशासन के शीर्ष पर बड़ा बदलाव हो गया। नए अफसर नए थे, वे कुछ समझ और कर पाते कि हालात बिगड़ने लगे। मीडिया की कवरेज पर यकीन करें तो तकरीबन हर दल के नेताओं ने मामले को सुलझाने के बजाय भावनाओं का दोहन करने की कोशिश की। उनकी कोशिश होनी चाहिए थी कि समस्या को साम्प्रदायिक रूप न लेने देते। पर हुआ इसके विपरीत। अफवाहों का एक दौर चला। लोगों का खून खौलाने वाली बातें हुईं।

पहले ऐसा लगता था कि साम्प्रदायिक हिंसा के बीज शहरों में बोए जा रहे हैं। गाँव अछूते हैं, क्योंकि वहाँ पारम्परिक जीवन कायम है। परम्परा से हमारे समाज ने सह-जीवन के संस्कार पैदा कर लिए हैं। पर मुजफ्फरनगर की हिंसा के बाद जो नया संदेश गया है वह भयावह है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में सामाजिक सद्भाव का सैकड़ों साल पुराना तानाबाना टूटता सा लगता है। इन्हीं गाँवों मे स्वतंत्रता ता संग्राम मिल-जुलकर लड़ा गया था। किसान आंदोलन में भी इन गाँवों ने एकजुटता दिखाई थी। मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश के प्रगतिशील जिलों में से एक है। खेती में सबसे आगे। प्रदेश को गुड़ और चीनी की मिठास देने वाला इलाका। इस इलाके में जाट और मुसलमान दो प्रमुख सम्प्रदाय हैं। चूंकि वोट की राजनीति में सामाजिक ताकतों की भूमिका है, इसलिए राजनीतिक दल इनके बीच सक्रिय हैं और इन समुदायों की परतों का इस्तेमाल करते हैं। पर वह वोट की राजनीति तक सीमित रहा है।

इलाके के मुसलमानों ने धर्मांतरण से पहले की अपनी पहचान को कायम रखा है, जिससे समझा जा सकता है कि यह इलाका अपनी परम्पराओं का कितना आदर करता है। मूले, त्यागी और राजपूत मुसलमानों की तमाम परम्पराएं चलती आ रही हैं। खास बात यह है कि सभी मिलकर अपने पर्व-त्योहार मनाते रहे हैं। इस अर्थ में हिन्दुओं और मुसलमानों ने कई बार एक-दूसरे के हितों की लड़ाई लड़ी है। चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत किसानों के सवाल उठाते थे। पर जब मौका आया तो 1989 में नईमा कांड के खिलाफ भोपा में 40 दिन तक जेल भरो आंदोलन भी उन्होंने चलाया। नईमा की अपहरण के बाद हत्या कर दी गई थी। संयोग है कि इस बार भी 7 सितम्बर की पंचायत के पहले राकेश टिकैत ने कहा था कि नईमा कांड की तरह इस आंदोलन को भी बड़े स्तर पर शुरू किया जा सकता है।

जाट समुदाय अपनी पहचान को लेकर संवेदनशील है और अपनी परम्परागत खाप व्यवस्था को बनाकर रखता है। वह सगोत्र विवाह और नए चाल-चलन को लेकर कई बार कड़े फैसले भी करता है, पर इसके कारण वह कई प्रकार के सामाजिक दोषों से भी बचा है। इन बातों के समानांतर इलाके में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है, संचार और परिवहन के आधुनिक साधन बढ़े हैं और स्त्री शिक्षा बढ़ी है। इन बातों का सामाजिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ा है। बेटी-बहन की रक्षा करना इलाके में प्रतिष्ठा का प्रश्न माना जाता है। इसे लेकर अक्सर झगड़े होते रहते हैं, पर इस हद तक नहीं होते कि उसकी आग में पूरा इलाका जल जाए।

मुजफ्फरनगर की हिंसा के सिलसिले में कुछ लोगों ने इस बात को रेखांकित करने की कोशिश की है कहीं एके-47 मिली या उसके कारतूस मिले। यों भी अब्दुल करीम टुंडा या कुछ और लोगों के नाम से इस शहर की पहचान है, पर यही अकेली वास्तविकता नहीं है। यह उस अलगाव का लक्षण है, जो हमारे बीच पनप रहा है और जिसे राजनीति प्रश्रय दे रही है। सच यह है कि बड़ी संख्या में लोग ऐसे हैं, जिनके लिए टुंडा आदर्श नहीं है। इस इलाके में ऊँची नाक की लड़ाई आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की प्रतिक्रिया है। यह यहाँ के परम्परागत समाज के भीतर बैठी है वह हिन्दू हो या मुसलमान। इसे दूर करने के लिए आधुनिक शिक्षा के प्रसार की जरूरत है। उससे पहले राजनीतिक स्वार्थों पर रोक लगनी चाहिए। यह काम इस इलाके के लोग ही कर सकते हैं।


Saturday, September 14, 2013

सैर करनी है तो अंतरिक्ष में आइए

 आपकी जेब में पैसा है तो अगले साल गर्मियों की छुट्टियाँ अंतरिक्ष में बिताने की तैयारी कीजिए। रिचर्ड ब्रॉनसन की कम्पनी वर्जिन एयरलाइंस ने पिछले शुक्रवार को अपने स्पेसक्राफ्ट वर्जिन गैलेक्टिकका दूसरा सफल परीक्षण कर लिया। वर्जिन गैलेक्टिक पर सवार होकर अंतरिक्ष में जाने वालों की बुकिंग शुरू हो गई है। एक टिकट की कीमत ढाई लाख डॉलर यानी कि तकरीबन पौने दो करोड़ रुपए है, जो डॉलर की कीमत के साथ कम-ज्यादा कुछ भी हो सकती है। वर्जिन गैलेक्टिक आपको किसी दूसरे ग्रह पर नहीं ले जाएगा। बस आपको सब ऑर्बिटल स्पेस यानी कि पृथ्वी की कक्षा के निचले वाले हिस्से तक लेजाकर वापस ले आएगा। कुल जमा दो घंटे की यात्रा में आप छह मिनट की भारहीनता महसूस करेंगे। जिस एसएस-2 में आप विराजेंगे उसमें दो पायलट होंगे और आप जैसे छह यात्री। लगे हाथ बता दें कि इस यात्रा के लिए जून के महीने तक 600 के आसपास टिकट बिक चुके हैं। वर्जिन गैलेक्टिक की तरह कैलीफोर्निया की कम्पनी एक्सकोर ने लिंक्स रॉकेट प्लेन तैयार किया है। यह भी धरती से तकरीबन 100 किलोमीटर की ऊँचाई तक यात्री को ले जाएगा।

Friday, September 13, 2013

आडवाणी कब तक नाराज रहेंगे?

नीचे प्रकाशित आलेख 13 सितम्बर की सुबह लिखा गया था। चूंकि फैसला हो गया इसलिए अब इसकी कालावधि पूरी हो गई। पर अब यह समझने की जरूरत है कि फैसला जिस तरह से हुआ है, उसका मतलब क्या है। क्या आडवाणी जी हाशिए पर गए? क्या अब मोदी के वर्चस्व का समय आ गया है?  संघ के पूरे दबाव के बावजूद आडवाणी जी ने हार नहीं मानी। ऐसा क्यों हुआ? ऐसी क्या बात हुई कि वे पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक में आना चाहकर भी नहीं आ पाए? क्या यह व्यक्तिगत पीड़ा है? मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज की बैठक में उपस्थिति के बावजूद इतना स्पष्ट है कि वे खुश नहीं हैं। ऐसा लगता है कि आडवाणी को यकीन है कि मोदी विफल होंगे। आज विरोध दर्ज कराते हुए वे अपने कल की पेशबंदी कर रहे हैं। ताकि कह सकें कि मैने अपना विरोध दर्ज कराया था। व्यक्तिगत रूप से देखें तो असंतुष्ट नेताओं में सुषमा स्वराज ही ऐसी हैं, जो भविष्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। मुरली मनोहर जोशी भी ज्यादा समय के नेता नहीं हैं। भाजपा के पास प्रधानमंत्री पद के लिए सुयोज्ञ पात्र सुषमा जी हैं, पर इस वक्त कांग्रेस को परास्त करने के लिए मोदी जैसे आक्रामक व्यक्ति की भाजपा को जरूरत है। कांग्रेस जबर्दस्त एंटी इनकम्बैंसी की शिकार है। साथ ही उसके पास लोकप्रिय नेता नहीं है। फिलहाल नरेन्द्र मोदी की परीक्षा चार राज्यों के चुनाव में होगी, पर उसके पहले देखना होगा कि पार्टी संगठन किस प्रकार चुनाव में उतरता है। मोदी को कहीं भितरघात का सामना तो नहीं करना होगा? उसके पहले देखना यह है कि आडवाणी जी मोदी को कैसा आशीर्वाद देते हैं। क्या वे लम्बे समय तक नाराज रह सकेंगे? उनकी नाराजगी मोदी से है या संघ से, जिसने उनकी उपेक्षा की है? मोदी को आगे करने का फैसला कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ गया है।

फैसला मोदी नहीं, आडवाणी के बारे में होना है?

 शुक्रवार, 13 सितंबर, 2013 को 11:26 IST तक के समाचार
भारतीय जनता पार्टी क्या अपने सबसे बड़े कद के नेता को हाशिए पर डालने की हिम्मत रखती है? पार्टी में मतभेदों के सार्वजनिक होने के बाद अपनी फजीहत और कांग्रेस के व्यंग्य-बाणों से खुद को बचाने की क्या कोई योजना उसके पास है? और क्या इस फजीहत का असर चार राज्यों के विधान सभा चुनाव पर नहीं पड़ेगा?
लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी के कम से कम तीन-चार बड़े नेताओं का समर्थन हासिल है. पर यह भी लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के फैसले की कद्र करते हुए शायद इनमें से कोई भी नेता अंतिम क्षण तक आडवाणी जी का साथ नहीं देगा.
हो सकता है कि अंततः आडवाणी भी इसे कबूल कर लें, पर क्या वे मोदी के नाम का प्रस्ताव करेंगे? या इस फैसले के बाबत होने वाली प्रेस कांफ्रेस में साथ में खड़े होंगे? या फिर से पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा देंगे?
जून में जब गोवा में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया था तब उन्होंने पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा दे दिया था. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अध्यक्ष मोहन भागवत के सीधे हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपने हाथ खींचे थे.
उन्हें भरोसा दिलाया गया था कि प्रधान मंत्री पद का फैसला करते वक्त आपको शामिल किया जाएगा और इसीलिए इस हफ्ते पार्टी के तमाम नेता उन्हें लगातार मनाने की कोशिश करते रहे हैं. क्या अब उन्हें मनाने की कोशिश बंद कर दी जाएगी?