राहुल गांधी ने हाल में लोकसभा में कहा कि मोदी सरकार ने चीन और पाकिस्तान को साथ लाकर बड़ा अपराध किया है। हमारी विदेश नीति में लक्ष्य रहता था कि पाकिस्तान और चीन को क़रीब आने से रोकना है, लेकिन इस सरकार ने दोनों को साथ ला दिया है। उनके इस वक्तव्य के तीन दिन बाद ही बीजिंग से चीन-पाकिस्तान की एक संयुक्त वक्तव्य आया, जिसमें कहा गया कि हम कश्मीर में किसी भी एकतरफ़ा कार्रवाई का विरोध करते हैं, क्योंकि इससे कश्मीर मुद्दा जटिल हो जाता है। उनका इशारा अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 की वापसी को लेकर है।
यह मनो-युद्ध है। चीन हमारा प्रतिस्पर्धी है।
उसे लेकर हमारा राष्ट्रीय संकल्प क्या है या क्या होना चाहिए? मोर्चा सीमा पर ही नहीं हैं। वह
हमारी लोकतांत्रिक-व्यवस्था का लाभ उठाता है। आज ठोस-लड़ाई के बजाय हाइब्रिड-युद्ध
का जमाना है। दुनिया की नजरें इस वक्त यूक्रेन और ताइवान पर हैं। साठ साल पहले 20
अक्तूबर 1962 को जब चीन ने भारत पर हमला बोला था, दुनिया की नजरें क्यूबा में
मिसाइलों की तैनाती पर केंद्रित थीं। वह चीन के आंतरिक संकट का दौर भी था। 1958 से
1962 के बीच वह भयंकर दुर्भिक्ष का शिकार हुआ था, जिसमें डेढ़ से साढ़े पाँच करोड़
लोगों की मौतें हुई थीं। माओ-जे-दुंग के ‘लंबी छलाँग’ कार्यक्रम देन।
सावधानी की
जरूरत
चीन से सावधान रहने की
जरूरत हमेशा बनी रहेगी। विफलताओं पर परदा डालने के लिए युद्ध जाँचा-परखा फॉर्मूला
है। वह कुछ भी कर सकता है। बहरहाल उसपर बाद में करेंगे, पहले चीन-पाकिस्तान गठजोड़
पर गौर करें। भारत के खिलाफ दोनों एकसाथ हैं, इस बात से
इनकार नहीं कर सकते। पर चीन को ऐसा करने से कैसे रोकेंगे? मनुहार करेंगे, बिनती करेंगे? क्या
इससे चीन मान जाएगा? दूसरा सवाल है कि क्या अनुच्छेद 370 की वापसी से
वह नाराज है? या भारत के फैसले ने इस गठजोड़ का पर्दाफाश
किया है?
डोकलाम का मामला तो 2017 में उठा था। उसके पहले
2013 में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि
चीन ने पूर्वी लद्दाख में भारत का 640 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हथिया लिया है। श्याम
सरन तब यूपीए सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अंतर्गत काम करने वाले
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे। सरकार ने उनकी बात को स्वीकार
नहीं किया, पर यह बात रिकॉर्ड में मौजूद है। उस साल अप्रैल
में देपसांग इलाके में चीनी घुसपैठ हुई और उसके अगले साल चुमार इलाके में।
1963 से है गठजोड़
राहुल गांधी की टिप्पणी का जवाब विदेशमंत्री एस जयशंकर ने ट्विटर पर दिया, पर यह बात आई-गई हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात का जिक्र ही नहीं किया। चीन और पाकिस्तान की साठगाँठ क्या नई बात है? हमारी सेना को 1965 से इस बात का अंदेशा है कि पाकिस्तान के साथ चीन भी भारत के खिलाफ मोर्चा खोलेगा। सन 1963 में पाकिस्तान ने चीन को शक्सगम घाटी सौंपी। तभी गठजोड़ बन गया था। पृष्ठभूमि तो 1962 का लड़ाई में तैयार हो ही गई थी। 1965 का हमला उस रणनीति का पहला प्रयोग था।
पाक-अधिकृत कश्मीर से होते हुए चीन ने 1970 के
दशक में कराकोरम हाइवे बनाया। सत्तर के दशक में चीन ने पाकिस्तान को परमाणु-उपकरण
दिए। फिर 2015 में चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर शुरू हुआ। सच यह है कि अनुच्छेद
370 की वापसी के बाद से चीन और पाकिस्तान दोनों बौखला गए हैं। यह स्वाभाविक है। चीन
ने उसके बाद अपनी गतिविधियाँ बढ़ाई हैं। सबसे बड़ा उदाहरण 2020 का गलवान युद्ध है।
दबाव में चीन
चीन ने लंबे अरसे से सीमा-क्षेत्र पर जो
इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया है, क्या उससे हमें आँख मूँद लेनी चाहिए? मिन्नत करनी चाहिए, उसे खुश रखना चाहिए? जवाब में भारत भी इंफ्रास्ट्रक्चर बना रहा है।
बराबरी की सेना तैनात कर रहा है। इसके अलावा और क्या हो सकता है? चीन का तुष्टीकरण समाधान नहीं है। वस्तुतः अब चीन भी दबाव में है। जुलाई
2021 में शी चिनफिंग ने तिब्बत का दौरा किया। पिछले 30 साल में तिब्बत में कोई
शीर्ष चीनी नेता पहली बार आया। इसके बाद अक्तूबर में चीन ने एक नए सीमा-कानून की
घोषणा की गई, जो इस साल 1 जनवरी से लागू हुआ है।
इस कानून में कहा गया है कि चीनी अनुमति के
बगैर पड़ोसी देश सीमा क्षेत्र में निर्माण नहीं कर सकेंगे, भले ही वह उनकी सीमा
में हो। यह केवल भारत की समस्या नहीं है, बल्कि उन सब देशों की है, जिनकी सीमा चीन
से मिलती है। जमीन हड़पने की चीनी मनोकामना पर लगाम लगनी ही चाहिए।
चीन को लेकर इन दिनों कई तरह की अटकलें हैं। उसका
आर्थिक-मंदी से सामना है। अमेरिका और पश्चिमी देश उसकी घेराबंदी कर रहे हैं। पूर्वी
लद्दाख में टकराव है। हांगकांग के स्वतंत्रता-आंदोलन के दमन और ताइवान को जबरन चीन
का हिस्सा बनाने की धमकियाँ दी जा रही हैं। यूक्रेन में भी वह पार्टी बनने का
इच्छुक है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन चीन होकर आए हैं। गए तो वे विंटर
ओलिम्पिक के उद्घाटन समारोह में थे, जिसका डिप्लोमैटिक महत्व नहीं है, पर महामारी शुरू होने के बाद से शी चिनफिंग की किसी राष्ट्राध्यक्ष
से यह पहली रूबरू वार्ता थी।
नया शीतयुद्ध
एक नए शीतयुद्ध की आहट सुनाई पड़ रही है, जिसके
केंद्र में चीन है। उसकी अंदरूनी राजनीति से भी बर्तनों के खटकने की आवाजें हैं। वह
खुला देश नहीं है, बल्कि गाढ़ी अपारदर्शी-व्यवस्था वहाँ है। उसकी गतिविधियों को पढ़ना
आसान नहीं। इस साल वहाँ पार्टी की बीसवीं कांग्रेस हो रही है, जिसमें कुछ बड़े
फैसले होंगे और शायद कुछ नेताओं पर गाज भी गिरेगी। शी चिनफिंग तीसरी बार
राष्ट्रपति चुने जाएंगे। उन्हें माओ-जे-दुंग की तरह महामानव बनाने और चीन को सबसे
बड़ी महाशक्ति साबित करने के प्रयास चल रहे हैं। वहाँ क्या होगा? कह नहीं सकते। जब कुछ हो जाता है, तभी पता लगता है।
चीन इस वक्त
हाइब्रिड-युद्ध का सहारा ले रहा है। साइबर-युद्ध, मीडिया और सिविल-सोसायटी। बाहरी मीडिया को चीन अपने देश में घुसने नहीं देता और अपनी छवि का
विस्तार मीडिया के मार्फत ही करता है। अप्रेल 2009 में जब चीन के ग्लोबल टाइम्स का
अंग्रेजी संस्करण शुरू हुआ, तब से इसे देखा जा सकता है। यूट्यूब से
लेकर ट्विटर तक यह मीडिया हाउस सक्रिय है। हाल में न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस आशय की
एक रिपोर्ट प्रकाशित की है कि चीन किस तरीके से प्रचार का सहारा ले रहा है। उसमें यूट्यूब
के ‘ली एंड ओली बैरेट शो’ का हवाला दिया है।
पिता-पुत्र ली और ओली बैरेट ब्रिटिश नागरिक हैं,
पर अब वे चीन के शेंज़ेन में रहते हैं। वहाँ के मीडिया के लिए भी वे
काम करते हैं। चीन सरकार करोड़ों डॉलर की कीमत अदा करके अमेरिकी अखबारों में चायना
डेली के पेज प्रकाशित कराती है। इन अखबारों में वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉलस्ट्रीट जरनल और फाइनेंशियल टाइम्स
से लेकर टाइम और फॉरेन पालिसी जैसी पत्रिकाएं शामिल हैं। ऐसे विज्ञापन भारतीय
अखबारों में भी आप देख सकते हैं।
व्यवस्था-परिवर्तन
चीनी हरकतें उसके आंतरिक आलोड़न को भी व्यक्त
करती हैं। वह विसंगतियों के मोड़ पर है। उसके पूँजीवादी विकास के समांतर
सामाजिक-परिवर्तन नहीं हुए हैं, जिनमें विचार और सूचना की स्वतंत्रता
शामिल है। समृद्धि के सहारे चीन ने गरीबों की दशा सुधारी है, पर पुरानी व्यवस्था के बिखरने का खतरा है। जागरूक मध्यवर्ग आज नहीं
तो कल हिसाब माँगेगा। शी चिनफिंग ने सत्ता-परिवर्तन के उस मिकैनिज्म को तोड़ दिया
है, जो माओ-जे-दुंग के बाद बना था। पुरानी व्यवस्था
की वापसी के प्रयास में वे सत्ता को अपने हाथों में केन्द्रित करते जा रहे हैं।
सांविधानिक व्यवस्था के तहत शी को अनिश्चित
अवधि के लिए राष्ट्रपति बनने की अनुमति मिल गई है। इस साल पार्टी की 20वीं
कांग्रेस में वे तीसरे कार्यकाल के लिए चुन लिए जाएंगे, पर
यहीं से खराबी शुरू होगी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के आंतरिक-विरोध या असहमतियाँ
सामने नहीं आती हैं, पर लम्बे अरसे तक वे जमे रहे, तो सत्ता का हस्तांतरण मुश्किल होगा। माओ-जे-दुंग के बाद
सत्ता-परिवर्तन में दिक्कत हुई थी। चीन जैसे महादेश में राजनीतिक बदलाव आसान नहीं
है, पर हो सकता है कि दरारें हों, जो हमें नजर नहीं
आ रही हैं।
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment