Saturday, February 11, 2023

भारत जोड़ने के बाद, क्या बीजेपी को तोड़ पाएंगे राहुल?

भारत-जोड़ो यात्रा से हासिल अनुभव और आत्मविश्वास राहुल गांधी के राजनीतिक कार्य-व्यवहार में नज़र आने लगा है। पिछले मंगलवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान लोकसभा में उनका भाषण इस यात्रा को रेखांकित कर रहा था। उन्होंने कहा, हमने हजारों लोगों से बात की और जनता की आवाज़ हमें गहराई से सुनाई पड़ने लगी। यात्रा हमसे बात करने लगी। किसानों ने पीएम-बीमा योजना के तहत पैसा नहीं मिलने की बात कही। आदिवासियों से उनकी जमीन छीन ली गई। उन्होंने अडानी का मुद्दा भी उठाया।  

राहुल गांधी की संवाद-शैली में नयापन था। वे कहना चाह रहे थे कि देश ने जो मुझसे कहा, उन्हें मैं संसद में रख रहा हूँ। ये बातें जनता ने उनसे कहीं या नहीं कहीं, यह अलग विषय है, पर एक कुशल राजनेता के रूप में उन्होंने अपनी यात्रा का इस्तेमाल किया। उनके भाषण से वोटर कितना प्रभावित हुआ, पता नहीं। इसका पता फौरन लगाया भी नहीं जा सकता। फौरी तौर पर कहा जा सकता है कि यात्रा के कारण पार्टी की गतिविधियों में तेजी आई है, कार्यकर्ताओं और पार्टी के स्वरों में उत्साह और आत्मविश्वास दिखाई पड़ने लगा है।

यात्रा का लाभ

राहुल गांधी ने भारत-जोड़ो यात्रा को राजनीतिक-यात्रा के रूप में परिभाषित नहीं किया था। यात्रा राष्ट्रीय-ध्वज के पीछे चली, पार्टी के झंडे तले नहीं। देश में यह पहली राजनीतिक-यात्रा भी नहीं थी। महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से लेकर आंध्र प्रदेश के एनटी रामाराव, राजशेखर रेड्डी, चंद्रशेखर और सुनील दत्त, नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता तक अपने-अपने संदेशों के साथ अलग-अलग समय पर यात्राएं कर चुके हैं। बेशक इनका असर होता है।

घोषित मंतव्य चाहे जो रहा है, अंततः यह राजनीतिक-यात्रा थी। सफल थी या नहीं, यह सवाल भी अब पीछे चला गया है। अब असल सवाल यह है कि क्या इसका राजनीतिक लाभ कांग्रेस को मिलेगा? मिलेगा तो कितना, कब और किस शक्ल में? सत्ता की राजनीति चुनावी सफलता के बगैर निरर्थक है। जब यात्रा शुरु हो रही थी तब ज्यादातर पर्यवेक्षकों का सवाल था कि इससे क्या कांग्रेस का पुनर्जन्म हो जाएगा? क्या पार्टी इस साल होने वाले विधानसभा के चुनावों में और 2024 के लोकसभा चुनाव में सफलता पाने में कामयाब होगी?

राहुल का मेक-ओवर

कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि इस यात्रा के पीछे राहुल गांधी के मेक-ओवर की मनोकामना थी। इसमें काफी हद तक सफलता मिली है। उनकी दाढ़ी, ठंड में टी-शर्ट पहन कर निकलना और उनकी फिटनेस चर्चा का विषय बनी। जगह-जगह फोटो-ऑप ने यात्रा को रोचक बनाया, और राहुल गांधी को संवेदनशील नेता के रूप में स्थापित किया। भीड़-भरी रैलियों के वीडियो और तस्वीरों के वायरल होने से प्रसिद्धि मिली। जो चाहा वैसी कवरेज मिल गई। कवरेज, प्रसिद्धि और राहुल गांधी के छवि-सुधार के साथ दूसरे जरूरी सवाल भी नत्थी हैं। चुनावी-सफलता एक सवाल है और संगठनात्मक-सुधार दूसरा। क्या इससे निचले स्तर पर नेताओं के झगड़े सुलझ जाएंगे?

मंगलवार को राहुल गांधी जब सरकार पर हमले कर रहे थे, ब्रेकिंग खबर थी कि महाराष्ट्र में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और विधायक दल के नेता बालासाहेब थोरात ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है। ममता बनर्जी अगरतला की रैली में कह रही थीं कि बीजेपी को हराने की क्षमता केवल तृणमूल कांग्रेस में ही है। इन बातों के निहितार्थ को भी समझना होगा। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या राहुल का पुनरोदय मोदी और बीजेपी के विजय-रथ को रोक पाएगा? कांग्रेस तभी सफल होगी, जब बीजेपी का पराभव होगा, भले ही वह आंशिक हो। बीजेपी का पराभव नहीं, तो कांग्रेस का पुनरुत्थान संभव नहीं।

वैचारिक असमंजस

राहुल गांधी भले ही अपने आपको वामपंथी खाँचे में फिट करने की कोशिश करते हों, पर उनकी पार्टी आर्थिक-नीतियों में बीजेपी जैसी मध्यमार्गी पार्टी ही है। हिंदू-राष्ट्रवाद पर दुविधा है। बहुसंख्यक हिंदू-मन को ठेस लगाकर वह सफल नहीं होगी। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान वह हिंदू-पार्टी थी। हिंदू-मानस उदार है और धर्मनिरपेक्षता उसका स्वभाव है। उसका नेतृत्व करने के लिए जिस कौशल की जरूरत थी, वह गांधी में था, पर स्वतंत्रता के बाद पार्टी हिंदू-मुसलमान के द्वंद्व में घिर गई, जो राजीव गांधी के दौर में देखने को मिला। शाहबानो प्रसंग और अयोध्या में ताला खुलवाकर शिलान्यास कराने में राजीव गांधी की भूमिका ने पार्टी को न इधर का रखा और न उधर का। यह वही क्षण था, जब भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ताकत बढ़ाई।

कांग्रेस अब बीजेपी-विरोध की पार्टी है। पर वह समझ नहीं पाई है कि बीजेपी-विरोधी विचारधारा क्या है? क्या बीजेपी के खिलाफ कोई अंडर करेंट है, जो कांग्रेस को दिल्ली की गद्दी वापस दिलवा देगी? यात्रा पूरी होने के एक दिन पहले अपने संवाददाता सम्मेलन में राहुल गांधी ने कहा, एक तरफ बीजेपी-आरएसएस की नफरत और अहंकार है और दूसरी तरफ लोगों को जोड़ने, भाईचारे और मोहब्बत का हमारा विज़न है। उन्हें यह स्थापित करना होगा कि बीजेपी की नफरत और अहंकार को वोट क्यों मिलते हैं? क्या वजह है कि कांग्रेस को सफलता नहीं मिलती?

हाईकमान-कल्चर

एक गैर-गांधी अध्यक्ष के चुनाव के बावजूद हाईकमान संस्कृति और गांधी परिवार की उपस्थिति बदस्तूर है। इसकी वजह से फैसले सबसे ऊँचे स्तर पर ही होते हैं। इस यात्रा से पार्टी में सुधार नहीं हो जाएगा। पार्टी ने पिछले साल पंजाब में नेतृत्व की विफलता का खामियाजा भुगता। यात्रा के ठीक पहले राजस्थान में आपसी खींचतान देखने को मिली थी। ऐसा ही छत्तीसगढ़ में चल रहा है। महाराष्ट्र की खबर आपने पढ़ ली और कर्नाटक में भी स्थिति सही नहीं है। पार्टी के सामने तीन समस्याएं हैं: उच्चतम स्तर पर निर्णय-प्रक्रिया और शक्ति का केंद्रीयकरण, संगठनात्मक कमजोरी और एकता की कमी।

सच है कि परिवार के कारण पार्टी का अस्तित्व टिका हुआ है, पर वफादारी का मसला सबसे ऊपर है। पार्टी अध्यक्ष के चुनाव के समय यह बात शीशे की तरह साफ थी कि मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर में से कौन परिवार की पसंद का प्रत्याशी है। उसके पहले यह भी साफ था कि अशोक गहलोत को अध्यक्ष बनाने के पीछे विचार क्या है। इसके पहले पंजाब में कैप्टेन अमरिंदर सिंह बनाम नवजोत सिंह सिद्धू प्रकरण से भी काफी बातें साफ हो गई थीं। छत्तीसगढ़ में नेतृत्व का सवाल क्यों उलझा, यह भी साफ है।

विरोधी-एकता

यकीनन अब कांग्रेस अकेले दम पर बीजेपी को हरा नहीं सकती। उसे दूसरे दलों को साथ लेकर चलना पड़ेगा। सवाल है वह विरोधी-एकता के केंद्र में रहेगी, या परिधि में? 2019 में पार्टी ने 403 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे, जिनमें से केवल 52 को जीत मिली। 196 सीटों पर पार्टी दूसरे स्थान पर रही। उसे कुल 19.5 प्रतिशत वोट मिले। पार्टी 12 राज्यों में मुख्य विरोधी दल है। ये राज्य हैं पंजाब, असम, कर्नाटक, केरल, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, गोवा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड। इसका जिन सात राज्यों में बीजेपी से सीधा मुकाबला है, उनके नाम हैं-अरुणाचल, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड।

क्षेत्रीय दलों की राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी उपस्थिति नहीं है। वे 2024 में भी बीजेपी को नुकसान पहुँचाने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में एकता जरूरी है, पर कैसे? यात्रा का दूसरा चरण शुरू करने के पहले राहुल गांधी ने 31 दिसंबर को दिल्ली में जो प्रेस कांफ्रेंस की, उसमें उन्होंने तीन बातों को रेखांकित करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा एक, विपक्ष के तमाम नेता कांग्रेस से वैचारिक तौर पर जुड़े हैं। दो, ये अपने प्रभाव वाले राज्यों में क्षेत्रीय स्तर पर बीजेपी को चुनौती जरूर दे सकते हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के लिए वैचारिक चुनौती कांग्रेस ही खड़ी कर सकती है। तीन, यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी कांग्रेस की ही है कि विरोधी दल न केवल आरामदेह महसूस करें बल्कि उन्हें उचित सम्मान मिले।

गणित और केमिस्ट्री

इसमें तीसरा बिंदु सबसे महत्वपूर्ण है। यानी कांग्रेस सबसे महत्वपूर्ण है और वह अपने सहयोगियों का सम्मान करेगी। राहुल गांधी ने खासतौर से समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के एक बयान के संदर्भ में कहा कि उनकी विचारधारा उत्तर प्रदेश तक सीमित है, जबकि हम राष्ट्रीय विचारधारा के साथ हैं। किसके गले यह बात उतरेगी? मान लिया कि समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश केंद्रित है, पर उसका वैचारिक आधार राष्ट्रीय है। 1977 में केंद्र में बनी जनता पार्टी की सरकार इसी विचारधारा से थी। राहुल गांधी और ममता बनर्जी की समझ एक जैसी नहीं है।

क्षेत्रीय पार्टियों और नेताओं की कांग्रेस से प्रतिस्पर्धा भी है। इस विसंगति का तोड़ राहुल गांधी को ही खोजना है। बीजेपी को देशभर में 40 फीसदी तक वोट मिलने का मतलब क्या यह मान लिया जाए कि शेष 60 प्रतिशत बीजेपी-विरोधी हैं और सारा वोट किसी एक गठबंधन को मिल सकता है?  2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा गठबंधन इसी गणित पर हुआ था। राजनीति में गणित के साथ-साथ केमिस्ट्री भी काम करती है। सपा-बसपा गठजोड़ के पहले 2017 में सपा-कांग्रेस गठजोड़ भी विफल रहा था। बीजेपी अब बड़ी ताकत बन चुकी है और कांग्रेस छोटे दलों की शरण में जाने को मजबूर है। सबसे बड़ी बात यह है कि लोकसभा चुनाव के एक साल पहले विरोधी-एकता से जुड़ी कोई बड़ी गतिविधि अभी तक नहीं हुई है।

 11 फरवरी, 2023 के राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

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