Thursday, April 25, 2024

फलस्तीनी-एकता के प्रयास और बाधाएं

इस्माइल हानिये और एर्दोआन

 देस-परदेस

दो लेखों की श्रृंखला का दूसरा भाग। इसका पहला भाग यहाँ पढ़ें

पिछले छह महीने से गज़ा में चल रही लड़ाई में हमास के संगठन और सैनिक-तंत्र को भारी क्षति पहुँची है. वह उसकी भरपाई कर पाएगा या नहीं, यह तो वक्त बताएगा, पर यह देखना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि फलस्तीनी एकता को लेकर हमास की राय क्या है. हमास और फतह गुट की प्रतिद्वंद्विता से एक मायने में इसराइल को राहत मिली है, क्योंकि अब उसपर फतह का दबाव कम है.

हमास की स्थापना हालांकि 1987 में हो गई थी, पर उसे लोकप्रियता तब मिली, जब फतह ग्रुप के अधीन फलस्तीन अथॉरिटी अलोकप्रिय होने लगी. उसकी अलोकप्रियता के तमाम कारण थे. उसे इसराइल के प्रति नरम माना गया. प्राधिकरण, भ्रष्टाचार का शिकार भी था. 2004 में यासर अरफात के निधन के बाद फतह गुट के पास करिश्माई नेतृत्व भी नहीं बचा.

एक जमाने तक अरफात का गुट ही फलस्तीनियों का सर्वमान्य समूह था. उसने ही इसराइलियों के साथ समझौता किया था. पर प्रकारांतर से आक्रामक हमास गुट बड़ी तेजी से उभर कर आया, जिसने फतह पर इसराइल से साठगाँठ का आरोप लगाया.

दोनों का फर्क

दोनों में अंतर क्या है?  यह अंतर वैचारिक है और रणनीतिक भी. फतह एक तरह से पुरानी लीक के सोवियत साम्यवादी संगठन जैसा है और हमास का जन्म मुस्लिम-ब्रदरहुड से हुआ है. फतह ने इसराइल को स्वीकार कर लिया है और इसराइल ने उसे. दूसरी तरफ हमास और इसराइल के बीच कोई रिश्ता नहीं है. दोनों एक-दूसरे को स्वीकार नहीं करते.

अभी तक हमास और इसराइल के बीच आमतौर पर मध्यस्थ की भूमिका क़तर ने निभाई है, पर अब क़तर कह रहा है कि हम अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करेंगे. लगता यह भी है कि तुर्की की इच्छा इस भूमिका को निभाने में है. पर क्या वह फलस्तीनी गुटों के बीच भी मध्यस्थ की भूमिका भी निभा पाएगा?

Wednesday, April 24, 2024

फलस्तीन-समस्या के समाधान में रुकावटें


दो लेखों की श्रृंखला का पहला भाग

दमिश्क में ईरानी दूतावास पर इसराइली हमले और फिर इसराइल पर ईरानी हमले के बाद अंदेशा था कि पश्चिम एशिया में बड़ी लड़ाई की शुरुआत हो गई है. हालांकि अंदेशा खत्म नहीं हुआ है, फिर भी लगता है कि दोनों पक्ष मामले को ज्यादा बढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं. यों तो भरोसे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता, पर लगता है कि शुक्रवार 19 अप्रेल को ईरान के इस्फ़हान शहर पर इसराइल के एक सांकेतिक हमले के बाद फिलहाल मामला रफा-दफा हो गया है. 

अमेरिकी मीडिया ने शुक्रवार की सुबह खबर दी कि इसराइल ने ईरान के इस्फ़हान शहर पर जवाबी हमला बोला है. सबसे पहले अमेरिका के दो अधिकारियों ने कहा कि इसराइल ने ईरान पर मिसाइल से हमला किया. अमेरिकी अधिकारियों ने यह जानकारी सीबीएस न्यूज़ को दी.

इस्फ़हान में ईरान की सेना का बड़ा एयर बेस है और इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों से जुड़े कई अहम ठिकाने भी हैं. ईरानी स्रोतों ने पहले कहा कि कोई हमला नहीं हुआ है, पर बाद में माना कि उधर कुछ विस्फोट हुए हैं. साथ ही विश्वस्त सरकारी सूत्रों के हवाले से कहा गया कि देश के कई हिस्सों में जो धमाके सुनाई पड़े थे, वे एयर डिफेंस सिस्टम के अज्ञात मिनी ड्रोन्स को निशाना बनाने के कारण हुए थे.

सुरक्षा परिषद में वीटो

शुक्रवार की शाम तक, ईरान के सरकारी मीडिया ने कहा कि इसराइल के इस हमले से ईरान को कोई ख़ास नुक़सान नहीं पहुँचा और ईरान जवाबी कार्रवाई नहीं करेगा. दोनों देशों की इस समझदारी से क्या फलस्तीन-समस्या के बाबत कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है?  क्या किसी दूरगामी समझौते के आसार निकट भविष्य में बनेंगे? उससे पहले सवाल यह भी है कि फलस्तीन मसले में ईरान की क्या कोई भूमिका है?

इन सवालों पर बात करने के पहले पिछले गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र की पूर्ण सदस्यता देने के एक प्रस्ताव पर भी नज़र डालें, जो अमेरिकी वीटो के बाद फिलहाल टल गया है. इस टलने का मतलब क्या है और इसका फलस्तीन-इसराइल समस्या के स्थायी समाधान से क्या कोई संबंध है?

प्रति-प्रश्न यह भी है कि प्रस्ताव पास हो जाता, तो क्या समस्या का समाधान हो जाता और अमेरिकी वीटो का मतलब क्या यह माना जाए कि वह फलस्तीन के गठन का विरोधी है? सबसे बड़ी रुकावट इसराइल को माना जाता है, जिसकी उग्र-नीतियाँ फलस्तीन को बनने से रोक रही हैं. माना यह भी जाता है कि फलस्तीनियों और उनके समर्थक मुस्लिम-देशों की सहमति बन जाए, तो इसराइल पर भी दबाव डाला जा सकता है.

Monday, April 22, 2024

हिंदी और मध्यम वर्ग का विकास

1853 में जब रेलगाड़ी चली, तब आगरा के साप्‍ताहिक अखबार बुद्धि प्रकाश ने लिखा,हिंदुस्‍तान के निवासियों को प्रकट हो कि एक लोहे की सड़क इस देश में भी बन गई 

अमृतलाल नागर

अमृतलाल नागर का यह लेख 1962 में प्रकाशित हुआ था। इस लेख को मैंने अपने पास कुछ संदर्भों के लिए जमा करके रखा था। ब्लॉग पर लगाने का उद्देश्य यह है कि जिन्होंने इसे नहीं पढ़ा है, वे भी पढ़ लें। इसमें नागर जी ने हिंदी समाचार लेखन की कुछ पुरानी कतरनों को उधृत किया है, जो मुझे रोचक लगीं। हिंदी गद्य के बारे में कुछ लोगों का विचार है कि कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज की खड़ी बोली गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है, पर मुझे कुछ ऐसे संदर्भ मिले हैं, जो बताते हैं कि उसके काफी पहले से खड़ी बोली हिंदी गद्य लिखा जाने लगा था। बहरहाल उस विषय पर कभी और, फिलहाल इस लेख को पढ़ें:

समय निकल जाता है, पर बातें रह जाती हैं। वे बातें मानव पुरखों के पुराने अनुभव जीवन के नए-नए मोड़ों पर अक्‍सर बड़े काम की होती हैं। उदाहरण के लिए, भारत देश की समस्त राष्ट्रभाषाओं के इतिहास पर तनिक ध्यान दिया जाए। हमारी प्रायः सभी भाषाएँ किसी न किसी एक राष्ट्रीयता के शासन-तंत्र से बँध कर उसकी भाषा के प्रभाव या आतंक में रही हैं। हजारों वर्ष पहले देववाणी संस्कृत ने ऊपर से नीचे तक, चारों खूँट भारत में अपनी दिग्विजय का झंडा गाड़ा था। फिर अभी हजार साल पहले उसकी बहन फारसी सिंहासन पर आई। फिर कुछ सौ बरसों बाद सात समुंदर पार की अंग्रेजी रानी हमारे घर में अपने नाम के डंके बजवाने लगी। यही नहीं, संस्कृत के साथ कहीं-कहीं समर्थ, जनपदों की बोलियाँ भी दूसरी भाषाओं को अपने रौब में रखती थीं।

Saturday, April 20, 2024

पिछले पाँच बरसों में कश्मीर में क्या बदला

9 अप्रैल 2024 की इस तस्वीर में इंडिया के ज़ेर-ए-इंतज़ाम कश्मीर के दार-उल-हुकूमत श्रीनगर के एक बाज़ार में लोगों का हुजूम देखा जा सकता है। फोटो: तौसीफ़ मुस्तफ़ा एएफ़पी

नईमा अहमद महजूर
एक ज़माने में मैं बीबीसी की हिंदी और उर्दू प्रसारण सेवाओं को नियमित रूप से सुनता था। सुबह और शाम दोनों वक्त। उसकी  एक वजह लखनऊ के नवभारत टाइम्स का  दैनिक  कॉलम 'परदेस' था, जिसे मैं लिखने लगा था, यों बीबीसी का श्रोता मैं  1965 से था, जब भारत-पाकिस्तान लड़ाई हुई थी।  बहरहाल नव्वे के दशक में  बीबीसी उर्दू सेवा के दो प्रसारक ऐसे थे, जो हिंदी के कार्यक्रमों में भी सुनाई पड़ते थे। उनमें एक थे शफी नक़ी जामी और दूसरी नईमा अहमद महजूर। कार्यक्रमों को पेश करने में दोनों का जवाब नहीं। नईमा अहमद कश्मीर से हैं और उनकी प्रसिद्धि केवल बीबीसी की वजह से नहीं है। वे पत्रकार होने के साथ कथा लेखिका भी हैं। हाल में इंटरनेट की  सैर करते हुए मुझे उनका एक लेख पाकिस्तान के अखबार  'इंडिपेंडेंट 'में पढ़ने को मिला। उर्दू अखबार के लेख को मैं यों तो पढ़ नहीं पाता, पर तकनीक ने अनुवाद और लिप्यंतरण की सुविधाएं उपलब्ध करा दी हैं। उर्दू के मामले में मैं दोनों की सहायता लेता हूँ, पर वरीयता मैं लिप्यंतरण को देता हूँ। लिप्यंतरण भी शत-प्रतिशत सही नहीं होता। इस लेख में भी मैंने कुछ जगह बदलाव किए हैं। बहरहाल लिप्यंतरण से जुड़े मसलों और कश्मीर की स्थितियों को समझने की कोशिश में मैंने इस लेख को चुना है। आप पढ़ें और यदि सुझाव दे सकें, तो दें। लेख के अंत में आपकी टिप्पणी के लिए जगह है। यह लेख काफी ताज़ा है और श्रीनगर के हालात से जुड़ा है। मैं समझता हूँ कि आप भी इसे पढ़ना चाहेंगे।

1 जुमा, 12 अप्रैल 2024

लंदन में पाँच साल रहने के बाद जब मैंने इंडिया के ज़ेर-ए-इंतज़ाम कश्मीर जाने के लिए एयरपोर्ट की राह इख़्तियार की तो अपने आबाई घर पहुंचने का वो तजस्सुस (जिज्ञासा) और जल्दी नहीं थी, जो माज़ी (अतीत) में दौरां सफ़र मैंने हमेशा महसूस की है।

मेरे ज़हन में2019 की यादें ताज़ा हैं।

दिल्ली से श्रीनगर का सफ़र कश्मीरी मुसाफ़िरों के साथ हमकलाम होने में गुज़र जाता। आज तय्यारे में चंद ही कश्मीरी पीछे की नशिस्तों पर बैठे थे जबकि पूरा तय्यारा जापानी और इंडियन सय्याहों (यात्रियों) से भरा पड़ा था।

क्या कश्मीरी हवाई सफ़र कम करने लगे हैं या सय्याहों की तादाद के बाइस (कारण) टिकट नहीं मिलता या फिर वो अब महंगे टिकट ख़रीदने की सकत नहीं रखते?

अपने ज़हन को झटक कर मैंने दुबारा पीछे की जानिब नज़र दौड़ाई शायद कोई जान पहचान वाला नज़र आ जाए। जापानी सय्याह मुँह पर मास्क चढ़ाए मज़े की नींद सो रहे थे और इंडियन खिड़कियों से बाहर बरफ़पोश पहाड़ों की फोटोग्राफी में मसरूफ़ थे।

आर्टिकल-370 को हटाने के बाद इंडियन आबादी को बावर (यकीन) कराया गया है कि इस के ज़ेर-ए-इंतज़ाम जम्मू-ओ-कश्मीर को जैसे आज़ाद करा के इंडिया में शामिल कर दिया गया है।

Thursday, April 18, 2024

पश्चिम एशिया के विस्फोटक हालात और ‘फोकस’ से हटता फलस्तीन


पिछले साल 7 अक्तूबर से ग़ज़ा में शुरू हुई लड़ाई के बजाय खत्म होने के ज्यादा बड़े दायरे में फैलने का खतरा पैदा हो गया है. ईरान ने इसराइल पर सीधे हमला करके एक बड़े जोखिम को मोल जरूर ले लिया है, पर उसने लड़ाई को और ज्यादा बढ़ाने का इरादा व्यक्त नहीं किया है. दूसरी तरफ इसराइल का कहना है कि यह हम तय करेंगे कि अपनी रक्षा कैसे की जाए.  

ईरान ने इस सीमित-हमले की जानकारी पहले से अमेरिका को भी दे दी थी. उधर अमेरिका ने इसराइल को समझाया है कि अगला कदम उठाने के पहले अच्छी तरह उसके परिणामों पर विचार कर लेना. अमेरिका ने संरा सुरक्षा परिषद में यह भी कहा है कि ईरान ने यदि हमारे या इसराइली रक्षा-प्रतिष्ठानों पर अब हमला किया, तो उसके परिणामों का जिम्मेदार वह होगा.

ईरान का कहना है कि हमारे दूतावास पर इसराइल ने हमला किया था, जिसका जवाब हमने दिया है. अब यदि इसपर जवाबी कार्रवाई हुई, तो हम ज्यादा बड़ा जवाब देंगे. हम ऐसा हमला करेंगे, जिसका आप मुक़ाबला नहीं कर पाएंगे.

यह टकराव कौन-सा मोड़ लेगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अब इसराइली प्रतिक्रिया क्या होगी. इसराइल के अलावा जी-7 देशों, खासतौर से अमेरिका का रुख भी महत्वपूर्ण है. फिलहाल लगता है कि दोनों पक्ष इसे बढ़ाना नहीं चाहते, पर अगले दो-तीन दिन के घटनाक्रम पर नज़र रखनी होगी. दुनिया भर के देशों ने भी दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की है.

Tuesday, April 16, 2024

बीजेपी की जीत में सबसे बड़ी भूमिका उत्तर भारत की होगी


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 17वीं लोकसभा के अंतिम सत्र में खड़े होकर आत्मविश्वास के साथ कहा, अबकी बार 400 पार। अकेले बीजेपी को 370 सीटें मिलेंगी और एनडीए गठबंधन चार सौ का आँकड़ा पार करेगा। ज्यादातर पर्यवेक्षकों की और चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों की राय है कि इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एकबार फिर से जीतकर आने वाली है। भारतीय राजनीति के गणित को समझना बहुत सरल नहीं है। फिर भी करन थापर और रामचंद्र गुहा जैसे अपेक्षाकृत भाजपा से दूरी रखने वाले टिप्पणीकारों को भी लगता है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार तीसरी बार बन सकती है।

कुछ पर्यवेक्षक इंडिया गठबंधन की ओर देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि भाजपा जीत भी जाए, पर इंडिया गठबंधन के कारण यह जीत उतनी बड़ी नहीं होगी, जैसा दावा किया जा रहा है। पर समय के साथ यह गठबंधन गायब होता जा रहा है।  पंजाब, पश्चिम बंगाल, असम, केरल और जम्मू-कश्मीर में गठबंधन के सिपाही एक-दूसरे पर तलवारें चला रहे हैं।  

मोटी राय यह है कि भारतीय जनता पार्टी की विजय में उत्तर के राज्यों की भूमिका सबसे बड़ी होगी। इन 10 राज्यों और दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और चंडीगढ़ के केंद्र-शासित क्षेत्रों में कुल मिलाकर 245 लोकसभा सीटें हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को इनमें से 163 सीटों पर सफलता मिली थी और 29 सीटों पर उसके सहयोगी दल जीतकर आए थे। उत्तर की इस सफलता के बाद गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, असम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं, जहाँ से पार्टी को बेहतर परिणाम मिलते हैं।

एनडीए और इंडिया की संरचना में फर्क है। एनडीए के केंद्र में बीजेपी है। यहाँ शेष दलों की अहमियत अपेक्षाकृत कम है। इंडिया के केंद्र में कांग्रेस है, पर उसमें परिधि के दलों का हस्तक्षेप एनडीए के सहयोगी दलों की तुलना में ज्यादा है। जेडीयू और  तृणमूल अब अलग हैं और केरल में वामपंथी अलग। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का और बिहार में राजद का दबाव कांग्रेस पर रहेगा। हालांकि कांग्रेस ने दोनों राज्यों में क्रमशः 17 और 9 सीटें हासिल कर ली हैं, पर उसका स्ट्राइक रेट चिंता का विषय है।

गणित और रसायन

इंडिया गठबंधन ने उस गणित को गढ़ने का प्रयास किया है, जिसके सहारे बीजेपी के प्रत्याशियों के सामने विरोधी दलों का एक ही प्रत्याशी खड़ा हो। पर अभी तक यह सब हुआ नहीं है। मोटे तौर पर यह वन-टु-वन का गणित है। यानी बीजेपी के प्रत्याशियों के सामने विपक्ष का एक प्रत्याशी। हालांकि ऐसा हुआ नहीं है, फिर भी कल्पना करें कि बीजेपी को देशभर में 40 फीसदी तक वोट मिलें, तो क्या शेष 60 प्रतिशत वोट बीजेपी-विरोधी होंगे?

2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा गठबंधन इसी गणित के आधार पर हुआ था, जो फेल हो गया। सपा-बसपा गठजोड़ के पहले 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठजोड़ भी विफल रहा था। 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा, रालोद, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा), महान दल और जनवादी पार्टी (समाजवादी) का गठबंधन आंशिक रूप से सफल भी हुआ, पर वह गठजोड़ अब नहीं है। ऐसा कोई सीधा गणित नहीं है कि पार्टियों की दोस्ती हुई, तो वोटरों की भी हो जाएगी।

Wednesday, April 10, 2024

‘टारगेट किलिंग’ बनाम ‘घर में घुसकर मारा’


पिछले हफ्ते ब्रिटिश अखबार 'द गार्डियन' ने अपनी एक पड़ताल में दावा किया कि 2019 के पुलवामा प्रकरण के बाद से अब तक भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ ने पाकिस्तान में 20 व्यक्तियों की हत्या की है. इस खबर पर भारत सरकार ने दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं दी हैं. विदेश मंत्रालय ने इस खबर को गलत बताया और विदेशमंत्री एस जयशंकर के एक पुराने वक्तव्य का हवाला दिया कि 'टारगेट किलिंग भारत की पॉलिसी नहीं है.

आधिकारिक रूप से भारत सरकार ने इस तरह की बातों को सिरे से खारिज ही किया है. दूसरी तरफ चुनाव सभाओं में भारतीय जमता पार्टी कह रही है घर में घुसकर मारेंगे. इन दोनों बातों का मतलब समझने की जरूरत है.

इसके आधार पर गार्डियन ने मान लिया कि भारत सरकार ने इन हत्याओं की पुष्टि कर दी है, जबकि बीजेपी के नेता इस बात को रेखांकित कर रहे हैं कि भारत के दुश्मन अब घबरा रहे हैं. 

इससे भारत और पश्चिमी देशों के रिश्तों में खटास आएगी भी, तो इसका पता आगामी जनवरी से पहले नहीं लगेगा, जब अमेरिका के नए राष्ट्रपति पदारूढ़ होंगे. अलबत्ता रोचक बात यह है कि जब अमेरिकी सरकार के प्रवक्ता से यह सवाल पूछा गया, तब उन्होंने इसे भारत-पाकिस्तान का मामला मानते हुए कहा कि हम बीच में पड़ना नहीं चाहते.

Tuesday, April 9, 2024

‘जोड़ो-तोड़ो’ राजनीति और कट्टरपंथी ‘ईमानदारों’ की बजती खड़ताल


अठारहवीं लोकसभा के चुनाव का पहला मतदान होने में अभी दो हफ्ते शेष हैं, पर राजनीतिक माहौल तेजी से गरमा गया है। 2014 का चुनाव करीब तीन साल से ज्यादा समय तक चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद हुआ था, फिर भी तब ऐसी लू-लपट नहीं थी, जैसी इसबार है। अनुमान था कि अबके चुनाव में कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो राहुल गांधी अपनी जोड़ो-तोड़ो यात्राओं के रथ पर सवार होकर आएंगे। पर उसके पहले ही आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल और उनकी कट्टरपंथी-मंडली ने खड़ताल बजाना शुरू कर दिया। इससे इंडी-गठबंधन की दरारों पर चढ़ी कलई एकबारगी उतर गई।

चुनाव के पहले दौर में जैसा होता है पार्टियों के टिकट नहीं मिलने पर भगदड़ होती है, दल-बदल होते हैं और तीखी बयानबाजियाँ होती हैं। टिकट वितरण अपेक्षाकृत जल्दी होने के कारण यह सब जल्दी निपट गया है। कुछ समय पहले लग रहा था कि विरोधी दलों की एकता सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती बनकर उभरेगी और बड़ी संख्या में सीटों पर सीधे मुकाबले होंगे। कुल मिलाकर यह संभावना रेत के ढेर की तरह बिखर गई है।

ईडी को धमकी

अभी चुनाव प्रचार पूरे रंग पर नहीं है, पर राहुल गांधी ने सीबीआई और ईडी को देख लेंगे की धमकी देकर कुछ कड़वाहट पैदा कर दी है। इसके अलावा ईवीएम को लेकर जिस तरह की बातें कही जा रही हैं, उनसे लगता है कि राजनीतिक दलों की दिलचस्पी न तो चुनाव-सुधारों में है और न इस मामले में आमराय बनाने में। 

Friday, April 5, 2024

जलेबी जैसी घुमावदार 'पॉलिटिक्स' में दोस्ती और दुश्मनी का मतलब!


शिवसेना (उद्धव) की ओर से एकतरफा प्रत्याशी घोषित करने के बाद महाराष्ट्र में इंडिया गठबंधन में खींचतान है. शरद पवार कांग्रेस और शिवसेना दोनों से नाराज हैं. उनकी शिकायत है कि जब सीटों बँटवारे की बातें चल रही थीं, तो एमवीए के घटक दलों ने अलग-अलग सीटें क्यों घोषित कीं? उधर कांग्रेस के संजय निरुपम शिवसेना से नाराज़ हैं. उद्धव ठाकरे भी नाराज़ है. बीजेपी, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित) की रस्साकशी भी चल रही है. यूपी में रामपुर और मुरादाबाद की सीटों को लेकर समाजवादी पार्टी के भीतर घमासान चला. आजम खां भले ही जेल में हैं, पर मुरादाबाद के मौजूदा सांसद एसटी हसन का टिकट उन्होंने कटवा दिया और रुचिवीरा को दिलवा दिया. पर रामपुर में उनकी नहीं सुनी गई और मोहिबुल्लाह नदवी को टिकट मिल गया.

भारतीय राजनीति उतनी सीधी सपाट नहीं है, जितनी दिखाई पड़ती है. वह जलेबी जैसी गोल है. विचारधारा, सामाजिक-न्याय, जनता की सेवा और कट्टर ईमानदारी जैसे जुमले अपनी जगह हैं. पंजाब में आम आदमी पार्टी को झटका देते हुए जालंधर के सांसद सुशील कुमार रिंकू बीजेपी में शामिल हो गए. रिंकू 17वीं लोकसभा में आप के एकमात्र सांसद थे. वे सुर्खियों में तब आए थे, जब हंगामे की वजह से पूरे सत्र के लिए निलंबित हुए थे.

चलती का नाम गाड़ी

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. चुनाव के दौरान अंतिम समय की भगदड़, मारामारी और बगावतें कोई नई बात नहीं. इसबार बीजेपी ने चार सौ से ज्यादा सीटों पर उम्मीदवार घोषित किए हैं, उनमें से 17वीं लोकसभा में 291 पर उसके सांसद थे. इनमें 101 को टिकट नहीं मिला. पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 119 सांसदों के टिकट काटे थे. टिकट कटने से बदमज़गी पैदा होती है. गठबंधनों में सीटों के बँटवारे को लेकर भी खेल होते हैं, पर सार्वजनिक रूप से दिखावा किया जाता है कि सब कुछ ठीकठाक है.

Thursday, April 4, 2024

भारत-पाक रिश्तों की व्यापार-बाधा


 
देस-परदेस

भारत-पाकिस्तान व्यापार फिर से शुरू करने की संभावनाओं को लेकर दो तरह की बातें सुनाई पड़ी हैं. पहले पाकिस्तान के विदेशमंत्री मुहम्मद इशाक डार ने लंदन में कहा कि हम भारत के साथ व्यापार फिर से शुरू करने की संभावनाओं पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं. इसके फौरन बाद पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ने सफाई दी कि ऐसा कोई औपचारिक-प्रस्ताव नहीं है.

डिप्लोमैटिक-वक्तव्यों में अक्सर उसके अर्थ छिपे होते हैं. सवाल है कि क्या ये दोनों बातें विरोधाभासी हैं? या यह एक और यू-टर्न है? या इन दोनों बातों का कोई तीसरा मतलब भी संभव है?

जवाब देने के पहले समझना होगा कि रिश्ते सुधारने की ज़रूरत भारत को ज्यादा है या पाकिस्तान को? पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था से भारत की अर्थव्यवस्था दस गुना बड़ी है. सत्तर के दशक में पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय भारत के लोगों की प्रति व्यक्ति औसत आय की दुगनी थी, आज भारतीय औसत आय पाकिस्तानी आय से करीब डेढ़ गुना ज्यादा है.

भारत को पाकिस्तान से सद्भाव चाहिए. पर, भारत का साफ कहना है कि आतंकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चलेंगे. ऐसा नहीं होने के कारण हम पाकिस्तान के प्रति उदासीन हैं. इस उदासीनता को दूर करने की जिम्मेदारी पाकिस्तान पर है.

पाकिस्तानी शासक जब चाहें, जो चाहें फैसले कर लेते हैं. फिर चाहते हैं कि उसकी कीमत भारत अदा करे. व्यापारिक-रिश्तों को तोड़ना ऐसा ही एक फैसला है. इसके पहले भारत को तरज़ीही देश मानने में उनकी हिचकिचाहट इस बात की निशानी है. 

Wednesday, April 3, 2024

जिम्मेदार है पूरी राजनीति

लक्ष्मण का एक पुराना कार्टून, जिसमें केवल राजनेताओं के चेहरे बदलने की जरूरत है

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी को हम सामान्य राजनीति, भ्रष्टाचार, न्याय-व्यवस्था और इससे जुड़े तमाम संदर्भों में देख सकते हैं। मेरी नज़र में यह मसला हमारी अधकचरी राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था की कटु-कथा है। इसमें भारत सरकार की संस्थाएं, सत्तारूढ़ और विरोधी दोनों तरह की पार्टियाँ और काफी हद तक देश की जनता जिम्मेदार है, जो धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीय भावनाओं के वशीभूत है और सत्ता की राजनीति के हाथों में खेल रही है। भारत की राजनीति का यह महत्वपूर्ण दौर है, जिसमें खुशी की तुलना में नाखुशी के तत्व ज्यादा हैं।

आज सत्ता पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा है, इसलिए आज की परिस्थिति के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार उसे ही मानना चाहिए, पर यह अधूरा दृष्टिकोण है। इस परिस्थिति के लिए हमारी समूची राजनीति जिम्मेदार है। बेशक इसमें शामिल काफी लोग ईमानदार भी हैं, पर वे इस राजनीति के संचालक नहीं हैं।  

जाँच एजेंसियों की भूमिका

आज के इंडियन एक्सप्रेस में खबर है कि 2014 के बाद से 25 ऐसे राजनेता, जिनपर भ्रष्टाचार के आरोपों में केंद्रीय एजेंसियों की जाँच चल रही थी, अपनी पार्टियाँ छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। इनमें दस कांग्रेस से, चार-चार शिवसेना और एनसीपी से, दो तेदेपा से और एक-एक सपा और वाईएसआर कांग्रेस से जुड़े थे। इनमें से 23 के मामलों में नेताओं को राहत मिल गई है। तीन मामले पूरी तरह बंद हो गए हैं और 20 ठप पड़े हैं।

इस सूची में वर्णित छह नेता इसबार के चुनाव के ठीक पहले अपनी पार्टियाँ छोड़कर आए हैं। इसके पहले इंडियन एक्सप्रेस ने 2022 में एक पड़ताल की थी, जिसमें बताया गया था कि 2014 के बाद से केंद्रीय एजेंसियों ने जिन राजनेताओं के खिलाफ कार्रवाई की है, उनमें 95 फीसदी विरोधी दलों से हैं। विरोधी दलों ने अब बीजेपी को वॉशिंग मशीन कहना शुरू कर दिया है। इसके पहले 2009 में एक्सप्रेस की एक पड़ताल से पता लगा था कि कांग्रेस-नीत यूपीए के समय में सीबीआई ने किस तरह से बसपा की नेता मायावती और सपा के नेता मुलायम सिंह के खिलाफ जाँच का रुख बदल दिया था।

आज की एक्सप्रेस-कथा से पता यह भी लग रहा है कि ज्यादा बड़ी संख्या में ऐसे मामले महाराष्ट्र से जुड़े हैं। चूंकि यह खबर 2014 के बाद की कहानी कह रही है, इसलिए इससे पूरा परिदृश्य समझ में नहीं आएगा।