Monday, October 31, 2022

खड़गे के सामने दो मुख्य लक्ष्य: चुनावों में सफलता और सांगठनिक सुधार


मल्लिकार्जुन खड़गे आधिकारिक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष बन गए हैं। अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने अपने पहले संबोधन में कहा है कि उदयपुर-घोषणा के अनुसार अब पार्टी में 50 फीसदी पद 50 साल से कम उम्र के लोगों को देंगे। यह घोषणा जितनी आसान लगती है, उसे लागू करना उतना ही मुश्किल होगा। सोनिया गांधी के नेतृत्व में शीर्ष पर पार्टी के जो नेता हैं, उनमें कोई भी पचास से नीचे का नहीं है। सबसे कम उम्र की हैं प्रियंका गांधी जो 50 साल से कुछ ऊपर हैं। शेष नेता इससे ज्यादा उम्र के हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे स्वयं 80 के हैं।

उनका नेतृत्व मंडल अभी गठित नहीं हुआ है, पर जैसी उन्होंने घोषणा की है, उसे लागू करने का मतलब है कि अब कम से कम आधे नेता एकदम नए होंगे। यह नई ऊर्जा होगी। उसे पुरानों के साथ मिलकर काम करना होगा। खड़गे को दोनों के बीच पटरी बैठानी होगी। खड़गे ने मुश्किल समय में पार्टी की कमान संभाली है। इस समय केवल दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें हैं। इसके अलावा झारखंड और तमिलनाडु में पार्टी गठबंधन सरकार में शामिल है, लेकिन मुख्यमंत्री दूसरे दलों के हैं।

बुधवार 26 अक्तूबर को जब उन्होंने कार्यभार संभाला, तब सोनिया गांधी के अलावा राहुल गांधी भी उपस्थित थे, जो अपनी भारत जोड़ो यात्रा को कुछ समय के लिए छोड़कर इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने दिल्ली आए। कांग्रेस शासित दोनों प्रदेशों के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूपेश बघेल भी कार्यक्रम में मौजूद थे। प्रियंका गांधी भी।

खड़गे के पास समय भी कम है। 2024 के लोकसभा चुनाव को अब सिर पर ही मानिए। लोकसभा चुनाव के पहले 11 राज्यों के और उसके फौरन बाद के चुनावों को भी जोड़ लें, तो कुल 18 विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। इनमें हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य शामिल हैं। हिमाचल और गुजरात के चुनाव तो सामने खड़े हैं और फिर 2023 में उनके गृह राज्य कर्नाटक के चुनाव हैं। अगले साल फरवरी-मार्च में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के चुनाव हैं, मई में कर्नाटक के और नवंबर-दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना के।

Sunday, October 30, 2022

पीओके बनेगा बीजेपी का चुनावी-मुद्दा


रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने गुरुवार को जम्मू-कश्मीर में हुए एक कार्यक्रम में कहा कि हमारी यात्रा उत्तर की दिशा में जारी है। हम पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को भूले नहीं हैं, बल्कि एक दिन उसे वापस हासिल करके रहेंगे। अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद से भारत सरकार कश्मीर में स्थितियों को सामान्य बनाने की दिशा में मुस्तैदी से काम कर रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी हुई थी। रक्षामंत्री के इस बयान में लोकसभा के अगले चुनाव के एजेंडा को भी पढ़ा जा सकता है। राम मंदिर, नागरिकता कानून, ट्रिपल तलाक, हिजाब, सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर वगैरह के साथ कश्मीर और राष्ट्रीय सुरक्षा बड़े मुद्दे बनेंगे।  

परिवार पर निशाना

बीजेपी के कश्मीर-प्रसंग को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बरक्स भी देखा जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर मसले को अपने तरीके से सुलझाने का प्रयास किया था, जिसके कारण यह मामला काफी पेचीदा हो गया। अब बीजेपी नेहरू की कश्मीर नीति की भी आलोचना कर रही है। गत 10 अक्तूबर को नरेंद्र मोदी ने आणंद की एक रैली में नाम न लेते हुए नेहरू पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद सरदार पटेल ने रियासतों के विलय के सभी मुद्दों को हल कर दिया था लेकिन कश्मीर का जिम्मा 'एक अन्य व्यक्ति' के पास था, इसीलिए वह अनसुलझा रह गया। मोदी ने कहा कि मैं कश्मीर का मुद्दा इसलिए हल कर पाया, क्योंकि मैं सरदार पटेल के नक्शे कदम पर चलता हूँ।

राजनीतिक संदेश

प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री और गृहमंत्री के बयानों को जोड़कर पढ़ें, तो मसले का राजनीतिक संदेश भी स्पष्ट हो जाता है। रक्षामंत्री ने ‘शौर्य दिवस’ कार्यक्रम में कहा कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सर्वांगीण विकास का लक्ष्य पीओके और गिलगित-बल्तिस्तान तक पहुंचने के बाद ही पूरा होगा। हमने जम्मू कश्मीर और लद्दाख में विकास की अपनी यात्रा अभी शुरू की है। जब हम गिलगित और बल्तिस्तान तक पहुंच जाएंगे तो हमारा लक्ष्य पूरा हो जाएगा। भारतीय सेना 27 अक्तूबर 1947 को श्रीनगर पहुंचने की घटना की याद में हर साल ‘शौर्य दिवस’ मनाती है। पिछले दो साल से केंद्र सरकार ने 22 अक्तूबर को जम्मू-कश्मीर में काला दिन मनाने की शुरुआत भी की है। 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर हमला बोला था। पाकिस्तान सरकार हर साल 5 फरवरी को कश्मीर एकजुटता दिवस मनाती है। यह चलन 2004 से शुरू हुआ है। उस दिन देशभर में छुट्टी रहती है। इसका उद्देश्य जनता के मन में कश्मीर के सवाल को सुलगाए रखना है।

राष्ट्रीय संकल्प

भारत सरकार ने ‘काला दिन’ मनाने की घोषणा करके एक तरह से जवाबी कार्रवाई की थी। पाकिस्तानी लुटेरों ने कश्मीर में भारी लूटमार मचाई थी, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे। इस हमले से घबराकर कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर 1947 को भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे, जिसके बाद भारत ने अपने सेना कश्मीर भेजी थी। तथाकथित आजाद कश्मीर सरकार, जो पाकिस्तान की प्रत्यक्ष सहायता तथा अपेक्षा से स्थापित हुई, आक्रामक के रूप में पश्चिमी तथा उत्तर पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों में कब्जा जमाए बैठी है। भारत ने यह मामला 1 जनवरी, 1948 को ही संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत उठाया था। यह मसला वैश्विक राजनीति की भेंट चढ़ गया। संरा सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव लागू क्यों नहीं हुए, उसकी अलग कहानी है। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की वैध संधि की पाकिस्तान अनदेखी करता है। भारत के नजरिए से केवल पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) ही नहीं, गिलगित-बल्तिस्तान भी जम्मू-कश्मीर का हिस्सा है। राजनाथ सिंह ने गिलगित-बल्तिस्तान तक क सवाल को उठाया है, जिसकी अनदेखी होती रही।  

370 की वापसी

तीन साल पहले 5 अगस्त, 2019 को भारत ने कश्मीर पर अनुच्छेद 370 और 35 को निष्प्रभावी करके लम्बे समय से चले आ रहे एक अवरोध को समाप्त कर दिया था। राज्य का पुनर्गठन भी हुआ है और लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया है। पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मामला अब भी अधूरा है। कश्मीर हमारे देश का अटूट अंग है, तो हमें उस हिस्से को भी वापस लेने की कोशिश करनी चाहिए, जो पाकिस्तान के कब्जे में है। क्या यह सम्भव है? कैसे हो सकता है यह काम? गृह मंत्री अमित शाह ने नवम्बर 2019 में एक कार्यक्रम में कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के लिए हम जान भी दे सकते हैं और देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिनके मन में यही भावना है। साथ ही यह भी कहा कि इस सिलसिले में सरकार का जो भी ‘प्लान ऑफ एक्शन’ है, उसे टीवी डिबेट में घोषित नहीं किया जा सकता। ये सब देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन्हें ठीक वैसे ही करना चाहिए, जैसे अनुच्छेद 370 को हटाया गया। इसके समय की बात मत पूछिए तो अच्छा है। इसके पहले संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए भी उन्होंने कहा था कि पीओके के लिए हम जान दे सकते हैं।

Friday, October 28, 2022

भारतीय सांस्कृतिक संपदा की वापसी

ब्रिटिश ताज में कोहिनूर

पिछले साल सितंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका के दौरे के बाद स्वदेश लौटते समय अपने साथ 157 प्राचीन कलाकृतियाँ और पुरा-वस्तुएँ लेकर आए। इन कलाकृतियों में सांस्कृतिक पुरावशेष, हिंदू, बौद्ध, जैन धर्मों से संबंधित प्रतिमाएं वगैरह शामिल थीं, जिन्हें अमेरिका ने उन्हें सौंपा। इनमें 10वीं शताब्दी की डेढ़ मीटर की पत्थर पर नक्काशी से लेकर 12वीं शताब्दी की उत्कृष्ट 8.5 सेंटीमीटर ऊँची नटराज की कांस्य-प्रतिमा शामिल थी।

एक मोटा अनुमान है कि भारत की लाखों वस्तुएँ अलग-अलग देशों में मौजूद हैं। इनमें बड़ी संख्या में छोटी-मोटी चीजें हैं, पर ऐसी वस्तुओं की संख्या भी हजारों में है, जो सैकड़ों-हजारों साल पुरानी हैं। इन्हें आक्रमणकारियों ने लूटा या चोरी करके या तस्करी के सहारे बाहर ले जाया गया। अब भारत सरकार अपनी इस संपदा को वापस, लाने के लिए प्रयत्नशील है।

यह केवल भारत की संपदा से जुड़ा मामला नहीं है। साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की इस लूट का प्रतिकार उन सभी देशों की पुरा-संपदा की वापसी से जुड़ा है, जिन्हें अतीत में लूटा गया। पर यह लूट सबसे ज्यादा भारत में हुई है। दुनिया के काफी देश अब इन्हें वापस करने को तैयार भी हैं, पर कुछ देशों में अब भी हिचक है। मसलन ब्रिटेन में एक तबके का कहना है कि हम सब लौटा देंगे, तो हमारे संग्रहालय खाली हो जाएंगे।

हमारा दायित्व

पीएम मोदी ने गत 27 फरवरी को मन की बात में देश की प्राचीन मूर्तियों का जिक्र किया था। उन्होंने कहा कि देश एक-से-बढ़कर एक कलाकृतियाँ बनती रहीं। इनके पीछे श्रद्धा थी, सामर्थ्य और कौशल भी था। इन प्रतिमाओं को वापस लाना, भारत माँ के प्रति हमारा दायित्व है। मोदी सरकार आने के बाद से यह प्रक्रिया तेज हुई है। 2015 में जर्मनी की तत्कालीन चांसलर एंजेला मर्केल भारत आईं, तो उन्होंने दसवीं सदी की मां दुर्गा के महिषासुर मर्दनी अवतार वाली प्रतिमा लौटाने की घोषणा की थी। यह प्रतिमा जम्मू-कश्मीर के पुलवामा से 1990 के दशक में गायब हो गई थी। बाद में यह जर्मनी के स्टटगार्ट के लिंडन म्यूज़ियम में पाई गई।

नोटों पर लक्ष्मी-गणेश का सुझाव

इंडोनेशिया का करेंसी नोट

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल करेंसी नोटों पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें छापने का जो
सुझाव दिया है, उसके पीछे राजनीति है। अलबत्ता यह समझने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए कि क्या इस किस्म की माँग से राजनीतिक फायदा संभव है। भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व को जो सफलता मिली है, उसके पीछे केवल इतनी प्रतीकात्मकता भर नहीं है।

बेशक प्रतीकात्मकता का लाभ बीजेपी को मिला है, पर राजनीति के भीतर आए बदलाव के पीछे बड़े सामाजिक कारण हैं, जिन्हें कांग्रेस और देश के वामपंथी दल अब तक समझ नहीं पाए हैं। अब लगता है कि केजरीवाल जैसे राजनेता भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं।

करेंसी पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें लगाने का सांस्कृतिक महत्व जरूर है। जैसे इंडोनेशिया में है, जो मुस्लिम देश है। भारतीय संविधान की मूल प्रति पर रामकथा और हिंदू-संस्कृति से जुड़े चित्र लगे हैं। इनसे धर्मनिरपेक्षता की भावना को चोट नहीं लगती है।

केवल केसरिया रंग की प्रतीकात्मकता काम करने लगेगी, तो केजरीवाल सिर से पैर तक केसरिया रंग का कनस्तर अपने ऊपर उड़ेल लेंगे, पर उसका असर नहीं होगा। ऐसी बातें करके और उनसे देश की समृद्धि को जोड़कर एक तरफ वे अपनी आर्थिक समझ को व्यक्त कर रहे हैं, वहीं भारतीय-संस्कृति को समझने में भूल कर रहे हैं। हिंदू समाज संस्कृतिनिष्ठ है, पर पोंगापंथी और विज्ञान-विरोधी नहीं।

हैरत की बात है कि आम आदमी पार्टी के नेताओं ने केजरीवाल की मांग का जोरदार तरीके से समर्थन शुरू कर दिया है। केजरीवाल का कहना है कि नोटों पर भगवान गणेश और लक्ष्मी के चित्र प्रकाशित करने से लोगों को दैवीय आशीर्वाद मिलेगा, जिससे वे आर्थिक लाभ हासिल कर सकेंगे। इसके पहले केजरीवाल गुजरात में जाकर कह आए हैं कि मेरे सपने में भगवान आए थे।

हिंदुत्व का लाभ

केजरीवाल ने अप्रेल 2010 से शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी-आंदोलन की पृष्ठभूमि में भी भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाए थे। हलांकि ये नारे हिंदुत्व के नारे नहीं हैं और हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में इनका इस्तेमाल हुआ है, पर स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में कांग्रेस ने इन नारों का इस्तेमाल कम करना शुरू कर दिया था। केजरीवाल अलबत्ता हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल इस रूप में करना चाहते हैं, जिससे उन्हें अल्पसंख्यक विरोधी नहीं माना जाए। पर इतना स्पष्ट है कि वे उस हिंदुत्व का राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, जिसे कांग्रेस ने छोड़ दिया है। 

भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति का जिक्र करते हुए केजरीवाल ने कहा था कि देश अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये के लगातार कमजोर होने के कारण नाजुक स्थिति से गुजर रहा है। ऐसे में यह जुगत काम करेगी। इस विचार पर बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपने संपादकीय में कहा है कि आर्थिक बहस में समझदारी जरूरी है। 

Thursday, October 27, 2022

खड़गे के सामने दो मुख्य लक्ष्य : चुनावों में सफलता और सांगठनिक सुधार


मल्लिकार्जुन खड़गे आधिकारिक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष बन गए हैं। अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने अपने पहले संबोधन में कहा है कि उदयपुर-घोषणा के अनुसार अब पार्टी में 50 फीसदी पद 50 साल से कम उम्र के लोगों को देंगे। यह घोषणा जितनी आसान लगती है, उसे लागू करना उतना ही मुश्किल होगा। सोनिया गांधी के नेतृत्व में शीर्ष पर पार्टी के जो नेता हैं, उनमें कोई भी पचास से नीचे का नहीं है। सबसे कम उम्र की हैं प्रियंका गांधी जो 50 साल से कुछ ऊपर हैं। शेष नेता इससे ज्यादा उम्र के हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे स्वयं 80 के हैं।

उनका नेतृत्व मंडल अभी गठित नहीं हुआ है, पर जैसी उन्होंने घोषणा की है, उसे लागू करने का मतलब है कि अब कम से कम आधे नेता एकदम नए होंगे। यह नई ऊर्जा होगी। उसे पुरानों के साथ मिलकर काम करना होगा। खड़गे को दोनों के बीच पटरी बैठानी होगी। खड़गे ने मुश्किल समय में पार्टी की कमान संभाली है। इस समय केवल दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें हैं। इसके अलावा झारखंड और तमिलनाडु में पार्टी गठबंधन सरकार में शामिल है, लेकिन मुख्यमंत्री दूसरे दलों के हैं।

बुधवार 26 अक्तूबर को जब उन्होंने कार्यभार संभाला, तब सोनिया गांधी के अलावा राहुल गांधी भी उपस्थित थे, जो अपनी भारत जोड़ो यात्रा को कुछ समय के लिए छोड़कर इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने दिल्ली आए। कांग्रेस शासित दोनों प्रदेशों के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूपेश बघेल भी कार्यक्रम में मौजूद थे। प्रियंका गांधी भी।

खड़गे के पास समय भी कम है। 2024 के लोकसभा चुनाव को अब सिर पर ही मानिए। लोकसभा चुनाव के पहले 11 राज्यों के और उसके फौरन बाद के चुनावों को भी जोड़ लें, तो कुल 18 विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। इनमें हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य शामिल हैं। हिमाचल और गुजरात के चुनाव तो सामने खड़े हैं और फिर 2023 में उनके गृह राज्य कर्नाटक के चुनाव हैं। अगले साल फरवरी-मार्च में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के चुनाव हैं, मई में कर्नाटक के और नवंबर-दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना के।

उत्तर में कांग्रेस की दशा खराब है। वहाँ के लिए सफल रणनीति तैयार करने की चुनौती सबसे बड़ी है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में उन्हें किसी न किसी पार्टी के साथ गठबंधन करना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर भी विरोधी दलों के गठबंधन की बात चल रही है। इससे जुड़ी रणनीति भी एक बड़ी चुनौती होगी।

शी की ताकत और चीन की आक्रामकता बढ़ी


शी चिनफिंग के अलावा चीनी पोलितब्यूरो की नई स्थायी समिति के सदस्य (ऊपर बाएं से दाएं) वांग हूनिंग, काई ची, झाओ लेजी, (नीचे बाएं से दाएं) ली शी, ली छ्यांग और दिंग श्वेशियांग। 

चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपने तीसरे और संभवतः आजीवन कार्यकाल की शुरुआत लोहे के दस्ताने पहन कर की है. अपने प्रतिस्पर्धियों को हाशिए पर डालते हुए उन्होंने वफादारों की एक नई टीम की घोषणा भी की है. शीर्ष स्तर पर तरक्कियों और तनज़्ज़ुली को देखते हुए साफ है कि वे अलग राय रखने वालों को मक्खी की तरह निकाल फेंकेंगे.     

शी की आर्थिक, विदेश और सैनिक नीतियों का पता आने वाले समय में ही लग पाएगा, अलबत्ता रविवार 16 अक्तूबर को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के बीसवें अधिवेशन का उद्घाटन करते हुए उन्होंने हांगकांग में लोकतांत्रिक आंदोलन के दमन को उचित ठहराया और ताइवान पर क़ब्ज़ा करने के लिए ताकत के इस्तेमाल का भी समर्थन किया.

इस महा-सम्मेलन के चार बड़े संदेश हैं. पहला, शी चिनफिंग अब उम्रभर के लिए सर्वोच्च नेता बन गए हैं. दूसरे नंबर के नेता ली खछ्यांग हटाए गए और तीसरा है पोलितब्यूरो के सात में से चार पुराने सदस्यों को हटाकर चार नए नेताओं को पदोन्नति दी गई. और चौथा, भविष्य की आर्थिक-सामाजिक नीतियाँ.    

नेतृत्व-परिवर्तन नहीं

माओ ज़ेदुंग आजीवन महासचिव थे, पर 1976 में उनके निधन के बाद आए देंग श्याओ पिंग ने देश में सत्ता परिवर्तन की एक अनौपचारिक व्यवस्था बनाई थी कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व दो कार्यकाल से ज्यादा काम नहीं करेगा. देंग के दो पसंदीदा उत्तराधिकारियों जियांग ज़ेमिन और हू जिनताओ ने इस नियम को अपने ऊपर लागू किया था.

शी चिनफिंग ने न केवल इस व्यवस्था को खत्म कर दिया है. साथ ही अपने किसी उत्तराधिकारी को भी तैयार नहीं किया है. चीन में शीर्ष नेताओं के रिटायर होने की उम्र अभी तक 68 वर्ष थी, पर 69 के शी रिटायर होने को तैयार नहीं हैं और उनकी टीम में 60 से कम का कोई भी नेता नहीं है.

वफादारों को इनाम

पार्टी की बीसवीं कांग्रेस शनिवार को खत्म हो गई थी. रविवार को शी चिनफिंग के साथ पोलितब्यूरो की स्थायी-समिति के शेष छह सदस्य पेश हुए. इनमें शी चिनफिंग, झाओ लेजी और वांग हूनिंग तीन सदस्य पुराने हैं. ये सब उनके वफादार हैं.

जो चार नए सदस्य जोड़े गए हैं उनके नाम हैं ली छ्यांग, काई ची, दिंग श्वेशियांग और ली शी. यह पोलितब्यूरो ही चीन की सत्ता का सर्वोच्च निकाय है. अब सभी सदस्य शी के पक्के वफादार हैं. दूसरे नंबर के नेता प्रधानमंत्री ली खछ्यांग और एक अन्य महत्वपूर्ण सदस्य वांग वांग हटा दिए गए हैं.

दोनों की उम्र 67 वर्ष है, जो चीन में सेवानिवृत्ति की उम्र 68 से एक साल कम है. इसके विपरीत शी चिनफिंग इस आयु सीमा से एक साल ज्यादा 69 वर्ष के हो चुके हैं. प्रधानमंत्री ली खछ्यांग का कार्यकाल मार्च 2023 में खत्म होगा. संभवतः शंघाई गुट के ली छ्यांग तब उनके स्थान पर प्रधानमंत्री बनाए जाएंगे.

शी के छह सहयोगी वरीयता क्रम से इस प्रकार हैं, 1.ली छ्यांग, जो शंघाई में पार्टी प्रमुख रह चुके हैं, 2.झाओ लेजी, जो केंद्रीय अनुशासन निरीक्षण आयोग के प्रमुख रह चुके हैं, 3.विचारधाराविद वांग हूनिंग, 4.बीजिंग के पूर्व पार्टी प्रमुख काई ची, 5.शी के चीफ ऑफ स्टाफ दिंग श्वेशियांग और 6.आर्थिक गतिविधियों के केंद्र ग्वांगदोंग प्रांत के पूर्व पार्टी प्रमुख ली शी.

Tuesday, October 25, 2022

सुनक के सिर पर काँटों का ताज


अंततः ब्रिटेन की कंज़र्वेटिव पार्टी ने ऋषि सुनक को अगले प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार कर लिया. वे भारतीय मूल के पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री होंगे. संभवतः आज मंगलवार को वे अपना पद संभाल लेंगे. वे प्रधानमंत्री बन गए हैं, पर यह काँटों का ताज है.

उनके सामने कई मुश्किल चुनौतियां और सवाल हैं, जिनमें सबसे मुश्किल है ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था. ब्रिटेन ग़रीब होता जा रहा है और देश की जनता इसे महसूस कर रही है. उधर करीब 45 दिन के लिए प्रधानमंत्री रहीं लिज़ ट्रस के प्रशासन के दौरान देश के वित्तीय बाजार में जो तूफान आया, उससे मुसीबतें और बढ़ गई हैं.

आर्थिक असंतुलन

ब्रिटेन के सामने आयात पर बढ़ते बोझ और निर्यात से घटती आय के कारण पैदा हो रहे असंतुलन का खतरा है. यह संकट कोविड और यूक्रेन युद्ध के अलावा ब्रेक्ज़िट के कारण पैदा हुई परिस्थितियों के कारण है। देश में खुदरा मुद्रास्फीति 13 प्रतिशत से ऊपर चली गई है.

मंदी का खतरा पैदा हो गया है. इन सब बातों का प्रभाव आम लोगों की आय पर पड़ रहा है. सरकारी राजस्व घट रहा है, जिसकी वजह से कर्ज बढ़ेगा. पहली चुनौती है कि इस तेज गिरावट को रोका जाए. सुनक से इस बात की उम्मीद नहीं है कि वे व्यवस्था का पूर्ण-रूपांतरण कर देंगे, पर यदि वे गिरावट को रोककर स्थिरता कायम कर पाएं, तब उनकी बड़ी सफलता होगी.

फिलहाल उन्हें नेतागिरी की दौड़ में सफलता मिली है, पर असली सफलता आर्थिक मोर्चे पर होगी. वे पब्लिक फाइनेंस के विशेषज्ञ हैं और सबसे बड़ी बात है कि उनकी पार्टी के सांसदों के बहुमत को उनपर भरोसा है.

राजनीतिक चुनौती

असली चुनौती टोरी पार्टी की इज्जत बचाने की है. लेबर पार्टी का ग्राफ फिर से चढ़ने लगा है. इन दिनों देश में लोकप्रियता के जो सर्वे हो रहे हैं, उनमें लेबर नेता सर कीर स्टार्मर के वोट बढ़ते जा रहे हैं. हालांकि देश में जनवरी 2025 से पहले चुनाव की संभावना नहीं है, पर सुनक सफल रहे, तो वे उससे पहले भी चुनाव कराने के बारे में सोच सकते हैं.

Sunday, October 23, 2022

कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र: उम्मीदें और अंदेशे


मल्लिकार्जुन खड़गे की जीत को लेकर शायद ही किसी को संदेह रहा हो, पर असली सवाल है कि इस चुनाव से कांग्रेस की समस्याओं का समाधान होगा या नहीं? इस सिलसिले में दो तरह की तात्कालिक प्रतिक्रियाएं हैं। पहली यह कि खड़गे ने सिर पर काँटों का ताज पहन लिया है और उनके सामने समस्याओं के पहाड़ हैं, जिनका समाधान गांधी परिवार नहीं कर पाया, तो वे क्या करेंगे? दूसरी तरफ कुछ संजीदा राजनीति-शास्त्री मानते हैं कि यह चुनाव केवल कांग्रेस पार्टी के लिए ही युगांतरकारी साबित नहीं होगा, बल्कि इससे दूसरे दलों के आंतरिक लोकतंत्र की संभावनाएं बढ़ेंगी। फिलहाल कांग्रेस की सारी समस्याओं के समाधान नहीं निकलें, पर पार्टी के पुनरोदय के रास्ते खुलेंगे और एक नई शुरुआत होगी।

अंदेशे और सवाल

करीब 24 साल बाद कांग्रेस की कमान किसी गैर-गांधी के हाथ में आई है। पर जिस बदलाव की आशा पार्टी के भीतर और बाहर से की जा रही है, वह केवल इतनी ही नहीं है। इसे बदलाव का प्रस्थान-बिंदु माना जा सकता है, पर केवल इतना ही, क्योंकि सवाल कई हैं? इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है हाईकमान से आशीर्वाद प्राप्त प्रत्याशीका होना। उसके पीछे सबसे बड़ा सवाल है कि अब हाईकमान के मायने क्या होंगे? पिछले कुछ वर्षों के घटनाक्रम से यह बात रेखांकित हो रही है कि पार्टी में कोई धुरी नहीं है और है भी तो कमज़ोर है। अब नए अध्यक्ष की भूमिका क्या होगी, कितनी उसकी चलेगी और कितनी परिवार की, जिसे हाईकमान कहा जाता है?  और अध्यक्ष के रहते क्या कोई हाईकमान भी होगी? सबसे बड़ा सवाल है कि गैर-गांधी अध्यक्ष खुद कब तक चलेगा?  बात केवल अध्यक्ष के पदस्थापित होने तक है या पार्टी के भीतर वैचारिक और संगठनात्मक सुधारों की कोई योजना भी है?

चुनौतियों के पहाड़

मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने चुनौतियों के पहाड़ हैं और समय कम है। समय से आशय है 2024 का लोकसभा चुनाव। यह बदलाव मई 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे के फौरन बाद हो गया होता, तब भी बात थी। नए अध्यक्ष को अपना काम करने का मौका मिल गया होता। पता नहीं उस स्थिति में भारत जोड़ो यात्रा होती या कुछ और होता। पंजाब में कांग्रेस हारती या नहीं हारती वगैरह-वगैरह। खड़गे के पास अब समय नहीं है। लोकसभा चुनाव के लिए डेढ़ साल का समय बचा है। उसके पहले 11 राज्यों के और उसके फौरन बाद को भी जोड़ लें, तो कुल 18 विधानसभाओं के चुनाव होने हैं, जिनमें हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य शामिल हैं। हिमाचल और गुजरात के चुनाव तो सामने खड़े हैं और फिर 2023 में उनके गृह राज्य कर्नाटक के चुनाव हैं। अगले साल फरवरी-मार्च में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के चुनाव हैं, मई में कर्नाटक के और नवंबर-दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना के। राजस्थान में अशोक गहलोत प्रकरण अभी अनसुलझा है। भले ही खड़गे पार्टी अध्यक्ष हैं, पर कम से कम इस मामले में परिवार की सलाह काम करेगी।

Wednesday, October 19, 2022

बाइडन ने पाकिस्तान को ‘खतरनाक देश’ क्यों बताया?


अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने पाकिस्तान को दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक बताया है. बाइडन ने इस साल हो रहे मध्यावधि चुनाव के सिलसिले में अपनी पार्टी के लिए हुए एक धन-संग्रह कार्यक्रम में कहा, मुझे लगता है कि शायद (अंग्रेजी में मे बी) पाकिस्तान दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक है. एक ग़ैर-ज़िम्मेदार देश के पास परमाणु हथियार हैं.

बाइडन के इस बयान पर पाकिस्तान में तो तीखी प्रतिक्रिया हुई है, भारत में भी लोगों ने इसका मतलब लगाने की कोशिश की है. कुछ दिन पहले लग रहा था कि अमेरिका फिर से पाकिस्तान की तरफदारी कर रहा है. ऐसे में यू-टर्न क्यों? वह भी ऐसे मौके पर जब पाकिस्तान सरकार उसके साथ अपने रिश्ते सुधारना चाहती है.

इमरान खान का तो आरोप ही यही है कि शहबाज़ शरीफ की इंपोर्टेड सरकार है. दूसरी तरफ देखना यह भी होगा कि अमेरिका धीरे-धीरे पाकिस्तान की तकलीफों को कम कर रहा है. उसे आईएमएफ से कर्ज मिलने लगा है, इस हफ्ते एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट से भी उसके बाहर निकलने की आशा है. 

भौगोलिक स्थिति के कारण अमेरिका की दिलचस्पी पाकिस्तान को अपने साथ जोड़कर रखने में है. पर पाकिस्तान के साथ विसंगतियाँ जुड़ी हैं. उसे खतरनाक देश बताकर बाइडन इस विसंगति की ओर ही इशारा कर रहे हैं. उसके एक हाथ में एटम बम का बटन है, और दूसरा हाथ बेकाबू राजनीति से पंजे लड़ा रहा है. 

राजनीतिक बयान?

बाइडन ने चुनाव-अभियान के दौरान यह बात कही है. इसका मतलब क्या है? क्या अमेरिकी मतदाता की दिलचस्पी ऐसे बयानों में है? या बाइडन ने भारत की नाराज़गी को कम करने की कोशिश की है? या इसका भारत से कोई संबंध नहीं है?

इस महीने के शुरू में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा का अमेरिका में भव्य स्वागत किया गया था. अमेरिका के रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन के आमंत्रण पर जनरल बाजवा अमेरिका गए थे और उनका उसी प्रकार स्वागत हुआ, जैसा अप्रेल के महीने में भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का हुआ था.

बाइडन के बयान को पढ़ने के लिए जनरल बाजवा की यात्रा के उद्देश्य को भी समझना होगा. लगता है कि यह यात्रा भू-राजनीति के बजाय पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति से जुड़ी है, जिसमें जनरल बाजवा और सेना की भूमिका है.

सेना की भूमिका

पाकिस्तान की सेना के भीतर राष्ट्रीय राजनीति और अमेरिका के साथ रिश्तों को लेकर दो तरह के विचार हैं. जनरल बाजवा का कार्यकाल हालांकि अब एक महीने का ही बचा है, पर लगता है कि सेना के भीतर उनकी पकड़ अच्छी है. वे कई बार कह चुके हैं कि सेना अब राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेगी.

इसमें दो राय नहीं कि 2018 के चुनाव में वहाँ की सेना ने भूमिका अदा की थी और इमरान खान को गद्दी पर बैठाया. इमरान खान ने न केवल राजनीति में, बल्कि सेना के भीतर भी कुछ बुनियादी पेच पैदा कर दिए हैं, जिन्हें लेकर अमेरिका परेशान है.   

चीन के प्रभाव में इमरान खान ने रूस के साथ रिश्तों को सुधारने की कोशिश भी की थी. यूक्रेन पर हमले के ठीक पहले इमरान खान मॉस्को में थे. पाकिस्तान की वर्तमान सरकार ने अमेरिका से रिश्ते सुधारे जरूर हैं, पर चीन के साथ उसके रिश्ते बदस्तूर हैं.

चीन का मुकाबला

अमेरिका को लग रहा है कि पाकिस्तान का झुकावचीन की ओर बढ़ रहा है, जिसे रोकने के लिए वह पाकिस्तान को एक तरफ खुश करने की कोशिश कर रहा है, वहीं धमका भी रहा है. पिछले साल अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को जिम्मेदार माना था.

Monday, October 17, 2022

समस्या समाज की है, केवल भाषा की नहीं


भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा-3

इससे पहले की दूसरी कड़ी पढ़ें यहाँ

गृहमंत्री अमित शाह ने रविवार, 16 अक्टूबर 2022 को भोपाल में मेडिकल शिक्षा की हिंदी किताबों का लोकार्पण किया। गृहमंत्री ने कहा कि देश विद्यार्थी जब अपनी भाषा में पढ़ाई करेंगे, तभी वह सच्ची सेवा कर पाएंगे। 10 राज्यों में इंजीनियरिंग की पढ़ाई उनकी मातृभाषा में शुरू होने वाली है। इस पर काम चल रहा है। मैं देश भर के युवाओं से अह्वान से कहता हूं कि अब भाषा कोई बाध्यता नहीं है। आने वाले दिनों में ये सिलसिला और तेजी से आगे बढ़ेगी. पढ़ाई लिखाई और अनुसंधान मातृभाषा में होगा तो देश तेज़ी से तरक़्क़ी करेगा।

इस कार्यक्रम को आप किस तरह से देखते हैं, यह आप पर निर्भर करता है। मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम की मेडिकल पुस्तकों के मसले को काफी लोग राजनीतिक दृष्टि से देख रहे हैं। दक्षिण भारत, खासतौर से तमिलनाडु में हिंदी-विरोध राजनीतिक-विचारधारा की शक्ल भी अख्तियार कर चुका है। यह विचारधारा पहले से उस इलाके में पल्लवित-पुष्पित हो रही थी, पर 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से इसे बल मिला है। मेरा सुझाव है कि इस मसले को राजनीतिक नज़रिए से देखना बंद करें।

भारतीय जनता पार्टी हिंदी-माध्यम से शिक्षण को प्रचार के लिए इस्तेमाल करे या द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम इसके विरोध को अपनी राजनीति की ज़रिया बनाए, दोनों परिस्थितियों में हम उद्देश्य से भटकेंगे। जब आप राजनीतिक हानि-लाभ या रणनीतियों का विवेचन करें, तब भाषा की राजनीति पर भी विचार करें। पर जब शिक्षा-नीति की दृष्टि से विचार करें, तब यही देखें कि सामान्य-छात्र के लिए कौन सी भाषा उपयोगी है।

भाषा की राजनीति

भाषा की राजनीति अलग विषय है। सामाजिक पहचान के रूप में भाषा का इस्तेमाल होता है। यह राजनीति है। राष्ट्रवाद का महत्वपूर्ण अवयव है भाषा। हिंदी को संघ की राजभाषा बनाने का फैसला एक प्रकार से राजनीतिक समझौता था। संविधान सभा ने आधे-अधूरे तरीके से इस मसले का समाधान किया और इसे समस्या के रूप में छोड़ दिया। इसके लिए राजनीति ही दोषी है, जिसका विवेचन शुरू करते ही हम एक दूसरे रणक्षेत्र में पहुँच जाते हैं।

फिलहाल मैं प्राथमिक रूप से शिक्षा के माध्यम से जुड़े सवालों पर बात करना चाहूँगा, जिसकी विशेषज्ञता मेरे पास नहीं है। विशेषज्ञों की राय के सहारे ही मैंने अपनी राय बनाई है। मेरी दृष्टि की विसंगतियों को पाठक इंगित करें तो अच्छा है। इससे मुझे अपनी राय को सुस्पष्ट बनाने में आसानी होगी।

स्थानीयता का महत्व

नब्बे के दशक में अंग्रेजी के दो काफी प्रचलित हुए थे। एक लोकल और दूसरा ग्लोबल। कहा गया कि थिंक ग्लोबल, एक्ट लोकल। स्थानीयता और अंतरराष्ट्रीयता को जोड़ने की यह कोशिश थी। इसे भाषा की दृष्टि से देखें, तो बनता है वैश्विक भाषा और स्थानीय भाषा। आपकी समस्याएं और उनके समाधानों की स्थानीयता उतनी ही या उससे कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण है, जितनी आप वैश्विकता को महत्वपूर्ण मानते हैं। मध्य प्रदेश में हिंदी के माध्यम से मेडिकल पढ़ाई अभी शुरू ही नहीं हुई है कि आपने अमेरिका और यूरोप जाकर वहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने या प्रैक्टिस से जुड़ी परेशानियों का जिक्र शुरू कर दिया।

Sunday, October 16, 2022

यूक्रेन की लड़ाई से जुड़ी पेचीदगियाँ


यूक्रेन की लड़ाई अब ऐसे मोड़ पर आ गई है, जहाँ खतरा है कि कहीं यह एटमी लड़ाई में न बदल जाए। एक तरफ खबरें हैं कि रूस के फौजी-संसाधन बड़ी तेजी से खत्म हो रहे हैं। वहीं रूसी हमलों में तेजी आने की खबरें भी हैं। रूस को क्राइमिया से जोड़ने वाले पुल पर हुए विस्फोट के बाद 10 अक्टूबर को यूक्रेन पर सबसे बड़ा हवाई हमला किया गया। एक के बाद एक कई रूसी मिसाइलों का रुख यूक्रेन की तरफ मुड़ गया। उधर बेलारूस ने भी रूस के पक्ष में युद्ध में कूदने की घोषणा कर दी है। 10 अक्तूबर को बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर लुकाशेंको ने कहा, हमें पता लगा है कि बेलारूस पर यूक्रेन हमला करने वाला है। इसलिए हमने अपनी सेना को रूसी सेना के साथ तैनात करने का फैसला किया है। हम रूसी सेना को बेस कैंप बनाने और तैयारी के लिए अपनी जमीन देंगे। पश्चिमी विश्लेषकों का कहना है कि सीधे भिड़ने के बजाय पुतिन बेलारूस के जरिए यूक्रेन पर परमाणु हमला कर सकते हैं। इससे रूस को सीधे हमले का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकेगा। जी-7 देशों को भी ऐसा ही अंदेशा है। इसीलिए जी-7 की इमरजेंसी बैठक के बाद रूस को धमकी दी गई कि यूक्रेन पर रासायनिक, जैविक या न्यूक्लियर हमला हुआ तो रूस को बुरा अंजाम भुगतना पड़ेगा।

नाटो का विस्तार

नाटो ने कहा है कि हम यूक्रेन को हथियारों की मदद जारी रखेंगे और जो कोई भी नाटो से भिड़ेगा उसे देख लिया जाएगा। नाटो के प्रमुख स्टोल्टेनबर्ग ने कहा है कि नाटो अगले हफ्ते न्यूक्लियर ड्रिल करेगा। बेलारूस की सीमा लात्विया, लिथुआनिया और पोलैंड से लगती है। तीनों नाटो के सदस्य हैं। इस बीच यूक्रेन ने यूरोपियन यूनियन और नाटो दोनों में शामिल होने के लिए अर्जी दे दी है। बारह सदस्य देशों के साथ शुरू हुए नाटो में शामिल होने के लिए फिनलैंड और स्वीडन की अर्जी मंजूर होने के बाद उनके 31वें और 32वें देश के रूप में शामिल होने की उम्मीदें हैं। अब बोस्निया और हर्ज़गोवीना, जॉर्जिया और यूक्रेन के भी इसमें शामिल होने के आसार हैं। उधर रूस ने यूक्रेन के चार इलाकों में जनमत संग्रह कराकर उन्हें अपने देश में शामिल करने की घोषणा कर दी है। इन बातों से तनाव घटने के बजाय बढ़ ही रही है। इतना स्पष्ट है कि लड़ाई उसके अनुमान से कहीं ज्यादा लंबी खिंच गई है। हाल में रूस ने जो लगातार बमबारी की है उससे यही लगता है कि रूस इस युद्ध को और बढ़ाना चाहता है। पर अंतहीन लड़ाई के लिए अंतहीन संसाधनों की जरूरत होगी। बेशक रूस ने मिसाइलों की बौछार करके अपनी ताकत का प्रदर्शन किया है, पर ऐसा करके उसने अपने संसाधनों को बर्बाद भी किया है। सुरक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि रूसी हथियारों की सप्लाई कम हो रही है। उसके संसाधनों की भी एक सीमा है। लड़ाई के लंबा खिंचने से जटिलताएं बढ़ रही हैं। रूस के भीतर भी असंतोष बढ़ रहा है।

Friday, October 14, 2022

अंग्रेजी भाषायी साम्राज्यवाद से बचने की जरूरत


भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा-2

आजादी के 75 साल बाद भी यदि मैं आपको सुझाव दूँ कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दासता छोड़ें, तो आपको हैरत होगी। काफी लोग समझते हैं कि ब्रिटिश सरकार का शासन तो गया। वस्तुतः जब आप अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को ज्ञान-विज्ञान की भाषा मानते हुए आगे बढ़ते हैं, तब यह सवाल पैदा होता है कि उच्च शिक्षा या ज्ञान-विज्ञान का माध्यम भारतीय भाषाएं क्यों न बनें? भारत में अंग्रेजी का स्तर दुनिया के बहुत से गैर-अंग्रेजी देशों से बेहतर है, इसमें दो राय नहीं, पर क्या केवल इसी वजह से हमें अपनी शिक्षा-व्यवस्था को अंग्रेजी के हवाले कर देना चाहिए? हमने भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा के बारे में क्यों नहीं सोचा? इसके भी दो-तीन बड़े कारण हैं। एक तो भारतीय भाषाओं में विज्ञान और तकनीकी साहित्य की कमी और इनके माध्यम से शिक्षा प्रदान करने वाली व्यवस्थाओं की अनुपस्थिति।

माना यह भी जाता है कि हम अंग्रेजी में शिक्षा पाने के बाद वैश्विक समुदाय के बराबर आ जाते हैं और वैश्विक विद्वानों से हमारा संवाद आसानी से संभव है। हमारी तुलना में चीन जैसे देशों को दिक्कत होती है। पर क्या चीन का अकादमिक स्तर हम से कम है? हम से कम नहीं हमसे बेहतर ही है। हमें अपने सॉफ्टवेयर कार्यक्रम पर गर्व है, क्योंकि उसमें अंग्रेजी की सहायता हमें मिली। पर सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भी चीन हमसे पीछे नहीं है। फर्क केवल यह है कि हम पश्चिमी देशों के लिए सॉफ्टवेयर का काम करते हैं और चीन अपने आंतरिक कार्यों के लिए सॉफ्टवेयर बनाता है।

आप अपने मोबाइल फोनों को देखें, तो पाएंगे कि चीनी सॉफ्टवेयर गेमिंग और मनोरंजन से जुड़े सॉफ्टवेयरों में भी काफी आगे हैं। मेडिकल साइंस, नाभिकीय ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े तमाम शोध वे अपनी भाषा में ही करते हैं। यही बात जापान, कोरिया और इसरायल जैसे देशों पर लागू होती है। यूरोप के गैर-अंग्रेजी भाषी देशों की बात करना उचित नहीं होगा, क्योंकि उनकी भाषाएं पहले से काफी समृद्ध हैं।

भारत की समस्या राजनीतिक है, जिसके पीछे सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलता को बड़ा कारक माना जाता है। माना जाता है कि अंग्रेजी हमें जोड़ती है। देश के सभी इलाके के लोगों को अंग्रेजी स्वीकार्य है। ऐसी कोई भारतीय भाषा नहीं है, जो पूरे देश को जोड़ती हो और जिसे पूरा देश स्वीकार करता हो। यह बात एक हद तक सही है, पर पूरी तरह सही नहीं है। देश के स्वतंत्रता संग्राम की भाषा काफी हद तक हिंदी या हिंदुस्तानी थी, अंग्रेजी नहीं। महात्मा गांधी ने भारत आने से पहले दक्षिण अफ्रीका से अपना अखबार शुरू किया तो उसमें अंग्रेजी के अलावा गुजराती हिन्दी और तमिल का इस्तेमाल भी किया और भारत आने बाद तो देशभर में जनता के बीच वे हिंदी या हिंदुस्तानी का इस्तेमाल ही करते थे।

Thursday, October 13, 2022

क्या भारतीय भाषाओं में पढ़ाई की पहल को हिंदी थोपना माना जाए?


भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा-1

हिंदी को लेकर दक्षिण के दो राज्यों ने विरोध का झंडा फिर उठाया है। पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने और बाद में केरल के मुख्यमंत्री  पिनाराई विजयन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है। केरल के मुख्यमंत्री ने लिखा है कि राजभाषा को लेकर बनी संसदीय समिति की सिफारिशों को केरल स्वीकार नहीं करेगा। किसी एक भाषा को दूसरों से ऊपर बढ़ावा देना अखंडता को नष्ट कर देगा। इस मामले में उन्होंने प्रधानमंत्री से दखल देने की मांग की है।

इसके पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने कहा था कि हिंदी थोपकर केंद्र सरकार को एक और भाषा युद्ध की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। हिंदी को अनिवार्य बनाने के प्रयास छोड़ दिए जाएं और देश की अखंडता को कायम रखा जाए। दोनों नेताओं ने यह बातें राजभाषा पर संसदीय समिति के अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को हाल में सौंपी गई एक रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया में कहीं।

संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में आईआईटी, आईआईएम, एम्स, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और केंद्रीय विद्यालयों में हिंदी को भी माध्यम बनाने की सिफारिश की है। स्टालिन ने कहा कि संविधान की आठवीं अनुसूची में तमिल समेत 22 भाषाएं हैं। इनके समान अधिकार हैं। कुछ समय पहले स्टालिन ने कहा था कि हमें हिंदी दिवस की जगह भारतीय भाषा दिवस मनाना चाहिए। साथ ही ‘केंद्र को संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज सभी 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा घोषित कर देना चाहिए। हिंदी न तो राष्ट्रीय भाषा है और न ही इकलौती राजभाषा।

स्टालिन ने कहा कि हिंदी की तुलना में दूसरी भाषाओं के विकास पर बहुत कम संसाधन खर्च किए जाते हैं। केंद्र को इस फर्क को कम करना चाहिए। स्टालिन ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत सिर्फ हिंदी और संस्कृत को ही बढ़ावा देने का आरोप भी केंद्र सरकार पर लगाया था।’

उधर हाल में अमित शाह ने सूरत में 14 सितंबर को हिंदी दिवस के मौके पर अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन में अमित शाह ने कहा था, ‘मैं एक बात साफ कर देना चाहता हूं। कुछ लोग गलत जानकारी फैला रहे हैं कि हिंदी और गुजराती, हिंदी और तमिल, हिंदी और मराठी प्रतिद्वंद्वी हैं। हिंदी कभी किसी भाषा की प्रतिद्वंद्वी नहीं हो सकती है। हिंदी देश की सभी भाषाओं की दोस्त है।

हिंदी-विरोध

हर साल हम 14 सितंबर को हिंदी दिवस इसलिए मनाते हैं, क्योंकि 14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा बनाने का फैसला किया था। पिछले कुछ वर्षों से 14 सितंबर को इंटरनेट पर #StopHindiImposition (हिंदी थोपना बंद करो) जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे हैं। 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेस के नेता सिद्धारमैया ने कन्नड़-गौरव, हिंदी-विरोध और उत्तर-दक्षिण भावनाओं को भड़काने सहारा लेकर कन्नड़-प्रेमियों का समर्थन हासिल करने का प्रयास किया। बेंगलुरु में मेट्रो स्टेशनों के हिंदी में लिखे नाम मिटाए गए और अंततः हिंदी नाम पूरी तरह हटा दिए गए। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस तीन भाषा सूत्र की समर्थक है, पर बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी-विरोध का उसने समर्थन किया।

हिंदी के प्रयोग को लेकर कुछ गैर-हिंदी राज्यों में आंदोलन चलाया जाता है। इस आंदोलन को अंग्रेजी मीडिया हवा देता है। कुछ समय पहले दक्षिण भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों के नाम-पटों में हिंदी को शामिल करने के विरोध में आंदोलन खड़ा हुआ था। राम गुहा और शशि थरूर जैसे लोगों ने बेंगलुरु मेट्रो-प्रसंग में हिंदी थोपे जाने का विरोध किया। मेरी नज़र में यह एक तरह से भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाने की कोशिश है, साथ ही अंग्रेजी के ध्वस्त होते किले को बचाने का प्रयास भी। चूंकि इस समय इस कार्यक्रम को भारतीय जनता पार्टी की सरकार आगे बढ़ा रही है, इसलिए इसे राजनीतिक रंग देकर सामाजिक-टकराव वगैरह के रूप में भी देखा जा रहा है, हालांकि यह विरोध काफी पहले से चल रहा है और 1965 से तमिलनाडु में यह राजनीतिक पैंतरे का रूप ले चुका है।

Wednesday, October 12, 2022

चीन की रहस्यमय राजनीति पर एक नज़र


सितंबर के आखिरी हफ्ते में सोशल मीडिया पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के तख़्तापलट की अफवाह फैली थी. इस अफवाह के पीछे चीन के ही नाराज़ लोग थे, जो भागकर अमेरिका या दूसरे देशों में रहते हैं. अफवाह इतनी तेजी से फैली कि वह ट्विटर की ट्रेंडिंग सूची में शामिल हो गई. इसे गति प्रदान करने में भारतीय ट्विटर हैंडलों की भी भूमिका थी.

महत्व उस अफवाह का नहीं, समय का था, जब यह अफवाह फैली. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस 16 अक्तूबर को शुरू होने जा रही है. इसमें दूसरे महत्वपूर्ण फैसलों के अलावा शी चिनफिंग को तीसरी बार पार्टी महासचिव और देश का राष्ट्रपति चुनने की तैयारी है. ऐसे सवाल अपनी जगह पर हैं कि शी ताकतवर हो रहे हैं या कमज़ोर, और चीन किस दिशा में जा रहा है?

असमंजस और असंतोष

चीन में आय की असमानता को लेकर असंतोष है. पूँजीवादी रीति-नीति अपनाने के कारण कई प्रकार के अंतर्विरोध उभर कर आए हैं. आर्थिक मंदी के बादल भी मंडरा रहे हैं. विदेश-नीति को लेकर सवाल हैं. भले ही शी चिनफिंग का कार्यकाल बढ़ जाएगा, पर उनके उत्तराधिकारी और भविष्य के नेतृत्व की संभावनाओं के लिहाज से भी यह कांग्रेस महत्वपूर्ण है. इसलिए शी चिनफिंग के उद्घाटन भाषण को गौर से सुनना होगा. 

तमाम बड़े फैसले पार्टी कांग्रेस के पहले ही कर लिए जाते हैं, पर सम्मेलन का महत्व है, क्योंकि वहाँ फैसलों को औपचारिक रूप दिया जाता है और उनकी घोषणा की जाती है. दूसरे नम्बर की आर्थिक महाशक्ति जो सामरिक ताकत से लेकर ओलिम्पिक खेलों के मैदान तक अपना झंडा गाड़ चुकी है, अपने राजनीतिक नेतृत्व की अगली पीढ़ी को किस प्रकार आगे लाएगी या किस प्रकार पुराने नेतृत्व में से कुछ को विश्राम देगी, यह इस सम्मेलन में देखने को मिलेगा.

शिखर नेतृत्व

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ही चीन का लोकतंत्र है. इसके सदस्यों की संख्या नौ करोड़ से ज्यादा है. पिरैमिड जैसी इसकी संरचना में सबसे महत्वपूर्ण है शिखर यानी 25 सदस्यों का पोलित ब्यूरो. इसमें सैनिक अधिकारी, केंद्रीय और प्रांतों के नेता शामिल होते हैं. इन 25 के बीच चुनींदा सात सदस्यों की स्थायी समिति होती है, जो सीधे तौर पर बड़े फैसले करती है. इनमें ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री होते हैं.

जयशंकर ने कहा, पश्चिम ने हमें रूस की ओर धकेला


भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने हाल में अपनी अमेरिका-यात्रा के दौरान कुछ कड़ी बातें सही थीं। वे बातें अनायास नहीं थीं। पृष्ठभूमि में जरूर कुछ चल रहा था, जिसपर से परदा धीरे-धीरे हट रहा है। यूक्रेन पर रूसी हमले को लेकर भारतीय नीति से अमेरिका और यूरोप के देशों की अप्रसन्नता इसके पीछे एक बड़ा कारण है। अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ-16 विमानों के लिए उपकरणों को सप्लाई करके इसे प्रकट कर दिया और अब जर्मन विदेशमंत्री के एक बयान से इस बात की पुष्टि भी हुई है।

अमेरिका और जर्मन सरकारों की प्रतिक्रियाओं को लेकर भारतीय विदेशमंत्री ने गत सोमवार और मंगलवार को फिर करारे जवाब दिए हैं। उन्होंने सोमवार 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता को दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है पश्चिमी देशों की नीति।

स्वतंत्र विदेश-नीति

अपनी विदेश-नीति की स्वतंत्रता को साबित करने के लिए भारत लगातार ऐसे वक्तव्य दे रहा है, जिनसे महाशक्तियों की नीतियों पर प्रहार भी होता है। उदाहरण के लिए भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस यूक्रेन युद्ध से जुड़े एक ड्राफ्ट पर पब्लिक वोटिंग के पक्ष में मतदान किया है। यह ड्राफ्ट यूक्रेन के चार क्षेत्रों को मॉस्को द्वारा अपना हिस्सा बना लिए जाने की निंदा से जुड़ा है। इस प्रस्ताव पर भारत समेत 100 से ज्यादा देशों ने सार्वजनिक रूप से मतदान करने के पक्ष में वोट दिया है, जबकि रूस इस मसले पर सीक्रेट वोटिंग कराने की मांग कर रहा था।

जयशंकर ने यह भी साफ कहा कि आम नागरिकों की जान लेना भारत को किसी भी तरह स्वीकार नहीं है। उन्होंने रूस और यूक्रेन, दोनों से आपसी टकराव को कूटनीति व वार्ता के जरिए सुलझाने की राह पर लौटने की सलाह दी है।

भारत इससे पहले यूक्रेन युद्ध को लेकर संरा महासभा या सुरक्षा परिषद में पेश होने वाले प्रस्तावों पर वोटिंग के दौरान अनुपस्थित होता रहा है। इस बार भी निंदा प्रस्ताव के मसौदे पर मतदान को लेकर भारत ने अपना रुख स्पष्ट नहीं किया था। विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा था कि यह विवेक और नीति का मामला है, हम अपना वोट किसे देंगे, यह पहले से नहीं बता सकते। हालांकि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने सोमवार को ही कहा था कि रूस-यूक्रेन के बीच तनाव घटाने वाले सभी प्रयासों का समर्थन करने के लिए भारत हमेशा तैयार है।

पश्चिम की नीतियाँ

एस जयशंकर ने सोमवार को ऑस्ट्रेलिया में कहा कि पश्चिमी देशों ने दक्षिण एशिया में एक सैनिक तानाशाही को सहयोगी बनाया था। दशकों तक भारत को कोई भी पश्चिमी देश हथियार नहीं देता था। ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री पेनी वॉन्ग के साथ प्रेस-वार्ता में जयशंकर ने कहा कि रूस के साथ रिश्तों के कारण भारत के हित बेहतर ढंग से निभाए जा सके।