पाकिस्तानी विदेशमंत्री का काबुल में स्वागत |
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी एक दिन की तालिबान यात्रा पर गुरुवार को क़ाबुल पहुंचे। ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख जनरल फ़ैज़ अहमद भी इस दौरे पर कुरैशी के साथ गए हैं। अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के बाद किसी पाकिस्तानी मंत्री का यह पहला अफ़ग़ानिस्तान दौरा है, पर जनरल फ़ैज़ का यह दूसरा दौरा है।
क्या वजह है इस दौरे की? खासतौर से जब मॉस्को में तालिबान के साथ रूस की एक बैठक चल रही है? इसे 'मॉस्को फॉर्मेट' नाम
दिया गया है। इस बैठक में चीन और पाकिस्तान समेत 10 देशों के प्रतिनिधि हिस्सा ले
रहे हैं लेकिन अमेरिका इसमें हिस्सा नहीं ले रहा है। भारत ने इसमें हिस्सा लिया है
और कहा है कि हम मानवीय सहायता देने को तैयार हैं, पर सम्भवतः भारत भी तालिबान
सरकार को मान्यता देने के पक्ष में नहीं है।
पाकिस्तानी विदेशमंत्री का दौरा ऐसे समय पर हुआ
है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई नेता तालिबान से एक समावेशी सरकार बनाने और
महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करने की अपील कर रहे हैं। क्या पाकिस्तानी
विदेशमंत्री तालिबानियों को समझाने गए हैं कि अपने तौर-तरीके बदलो?
पंजशीर-प्रतिरोध
फिलहाल मुझे एक बात समझ में आती है। पंजशीर में
प्रतिरोध तेज हो गया है और काफी बड़े इलाके से तालिबानियों को खदेड़ दिया गया है।
पिछली बार जब जनरल फ़ैज़ वहाँ गए थे, तब भी पंजशीर का मसला खड़ा था। उसके बाद कहा
गया कि पाकिस्तानी सेना ने पंजशीर पर कब्जे के लिए तालिबान की मदद की थी। अगले कुछ
दिन में बातें ज्यादा साफ होंगी। तालिबान की ताकत घटती जा रही है। उसके सामने एक
तरफ आईसिस का खतरा है, दूसरी तरफ पंजशीर में उसके पैर उखड़ रहे हैं।
इन सब बातों के अलावा अफ़ग़ानिस्तान की आर्थिक चुनौतियां
आने वाले दिनों में और भी गंभीर हो सकती हैं। अमेरिका ने फिर साफ़ कर दिया है कि
उसका तालिबान के 'फ़्रीज़ फंड' को
रिलीज़ करने का कोई इरादा नहीं है। अमेरिका ने मॉस्को वार्ता में हिस्सा भी नहीं
लिया। बेशक अफगानिस्तान की जनता की परेशानियाँ बढ़ गई हैं, उनके भोजन और स्वास्थ्य
के बारे में दुनिया को सोचना चाहिए, पर जिन देशों ने तालिबान को बढ़ने का मौका
दिया, उनकी भी कोई जिम्मेदारी है। पाकिस्तान, चीन और रूस को सबसे पहले मदद के लिए
आगे आना चाहिए।
आर्थिक संकट
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने चेतावनी दी है कि अफ़ग़ानिस्तान को तुरंत सहायता नहीं मिली तो स्थिति 'बेहद गंभीर' हो जाएगी। अफ़ग़ानिस्तान के आर्थिक संकट का असर पाकिस्तान, ताजिकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों से लेकर तुर्की और यूरोप तक की मुश्किल बढ़ा देगा। अफ़ग़ानिस्तान को बड़ी मात्रा में विदेशी सहायता मिलती थी। ब्रिटेन की सरकार का अनुमान है कि ओईसीडी (ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) देशों ने साल 2001 से 2019 के बीच अफ़ग़ानिस्तान को 65 अरब अमेरिकी डॉलर का दान किया था।
इस सहायता के पीछे एक उद्देश्य यह भी था कि
अफगानिस्तान में सांविधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हो। पर तालिबान तो उस
व्यवस्था को ध्वस्त करने के इरादे से आए हैं। उस सहायता से जुड़ी एक आर्थिक
व्यवस्था थी। उससे जुड़े कई प्रकार के कारोबार थे, जिनसे एक बड़ी रकम ईरान,
पाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान तक
पहुंचती थी। अब इन देशों तक कारोबारी लाभ नहीं पहुंच रहा है। अफ़ग़ानिस्तान के
बदहाल होने से इन देशों पर भी असर होगा।
मॉस्को वार्ता
मॉस्को वार्ता में रूस के विदेशमंत्री ने कहा
है कि उनका देश चीन और पाकिस्तान को साथ लेकर अफ़ग़ानिस्तान की मदद करना चाहता है।
लेकिन अभी उनका तालिबान को मान्यता देने का इरादा नहीं है। ऐसे में मदद कितनी और
किस सूरत में होगी, ये साफ़ नहीं है। बीबीसी
की पश्तो सेवा के मुताबिक अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान की ज़ब्त की गई रकम तालिबान को
लौटाने से एक बार फिर मना कर दिया है। यह रकम अफ़गानिस्तान की करेंसी में है। इसकी
कीमत अरबों डॉलर है और इसका बड़ा हिस्सा अमेरिका में है। तालिबान की ओर से इस रकम
को दिए जाने की माँग लगातार की जाती रही है।
अमेरिका के उप वित्त मंत्री के हवाले से बताया
गया है कि उनके देश की राय है कि तालिबान पर पाबंदियाँ जारी रखना ज़रूरी है। अलबत्ता अमेरिका मानवीय सहायता पहुंचाने के हक़ में है।
अमेरिका के वित्त मंत्रालय ने कहा, " हमारा लक्ष्य
तालिबान शासन और हक़्क़ानी नेटवर्क पर पाबंदी बनाए रखने का है लेकिन हम चाहते हैं
कि मानवीय सहायता मिलती रहे।" सवाल है कि यह सहायता कैसे मिलेगी और कौन उसपर
नज़र रखेगा? आईएमएफ ने आगाह किया है कि इस बात का अंदेशा है
कि जो रकम पहुंचेगी, उसका इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों के वित्त-पोषण
में हो सकता है।
मानवीय सहायता
करीब एक महीने पहले अमेरिका ने मानवीय मदद
मुहैया कराने वाली संस्थाओं और गैर सरकारी संगठनों को अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय
मदद का सामान पहुँचाने की इजाज़त दी थी। इसका तालिबान ने स्वागत किया था। आईएमएफ
का कहना है कि अगर दस लाख और शरणार्थी हुए तो ताजिकिस्तान को दस करोड़ डॉलर यानी करीब
साढ़े सात अरब रुपये की ज़रूरत होगी। ईरान को 30 करोड़ डॉलर और पाकिस्तान को 50
करोड़ डॉलर की जरूरत होगी।
हाल में ताजिकिस्तान ने कहा था कि हम और अधिक अफ़ग़ान
शरणार्थियों को अपने यहां जगह नहीं दे सकते हैं। तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन
ने जी-20 के सम्मेलन में कहा था कि हम अफ़ग़ानिस्तान के शरणार्थियों को अपने यहां लेने
के लिए तैयार नहीं हैं। उनके देश में पहले से 36 लाख सीरियाई शरणार्थी हैं और
तुर्की एक बार फिर शरणार्थियों की एक नई बाढ़ को झेल नहीं पाएगा। तुर्की में इस
समय दुनिया की सबसे बड़ी शरणार्थी आबादी रहती है।
सुन्दर जानकारी|
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