कांग्रेस फिर संकट में है, पर यह संकट बाहर से नहीं
भीतर से पैदा हुआ है। राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने पर
अड़े हैं। पार्टी के भीतर से उनपर अध्यक्ष बने रहने का दबाव है। शुक्रवार को सवा
सौ के आसपास कांग्रेस पदाधिकारियों ने अचानक इस्तीफे देकर घटनाक्रम को नाटकीय बना
दिया। इस्तीफे देने वालों में युवा कांग्रेस, महिला कांग्रेस और सचिव शामिल हैं। एक तरफ राहुल गांधी ने पार्टी के ज्यादातर
कामों से हाथ खींच रखा है, वहीं शुक्रवार को उन्होंने छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस
के अध्यक्ष पद पर मोहन मार्कम को नियुक्त भी किया है।
पार्टी के भीतर और बाहर संशय की स्थिति है। किसी के समझ में नहीं आ रहा है कि
राहुल गांधी की योजना क्या है। क्या वे और अधिकार सम्पन्न होना चाहते हैं? या वे आंतरिक लोकतंत्र की किसी व्यवस्था की
स्थापना करना चाहते हैं? क्या पार्टी
गांधी-नेहरू परिवार के बगैर काम चला सकती है? शुक्रवार को हुए इस्तीफे अनायास नहीं हुए हैं। बुधवार
को राहुल गांधी ने युवा कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ पदाधिकारियों से मुलाकात
की और उनसे कहा कि मैं अपने इस्तीफे पर कायम हूँ।
इसी बातचीत के बीच उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि मेरे इस्तीफे के बाद किसी मुख्यमंत्री, महासचिव या प्रदेश अध्यक्ष ने हार की
जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा नहीं दिया। इस बात की प्रतिक्रिया में इस्तीफों की झड़ी
लगी है। यानी पार्टी चाहती है कि राहुल अपनी इच्छा से जिसे चाहें नियुक्त करें। उनकी
यह टिप्पणी इसलिए महत्वपूर्ण है कि 25 मई की कार्यसमिति की बैठक में उन्होंने
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमल नाथ को
लेकर कुछ कड़वी बातें कहीं थीं।
इन सामूहिक इस्तीफों का
मतलब क्या यह निकाला जाए कि वे इन दो मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे भी चाहते हैं? पार्टी के भीतर से जो खबरें आ रहीं हैं उनके
अनुसार राहुल गांधी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के वर्चस्व को खत्म करना चाहते हैं। यह
मामला कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र से ज्यादा राहुल गांधी के वर्चस्व का है। यह
असमंजस की स्थिति है। राहुल गांधी पार्टी के एकछत्र नेता हैं, फिर भी वे अपने आपको
असहाय क्यों पाते हैं?
कार्यसमिति की बैठक में
क्या हुआ था, इसे लेकर कोई आधिकारिक जानकारी बाहर नहीं आई है। पार्टी ने औपचारिक
रूप से राहुल के इस्तीफे की बात को स्वीकार भी नहीं किया है। उधर शुक्रवार को ही
पार्टी के वरिष्ठ नेता एम वीरप्पा मोइली ने कहा कि राहुल के पार्टी अध्यक्ष पद बने
रहने की एक फीसदी संभावना भी नहीं है।
राहुल गांधी एक तरफ कह
रहे हैं कि मैं पार्टी में सक्रिय रहूँगा, साथ ही यह भी कि नए अध्यक्ष के चुनाव
की प्रक्रिया से भी मैं खुद को अलग रखूँगा। उन्होंने यह भी कहा है कि बुजुर्ग
नेताओं को भविष्य की चिंता नहीं है, बल्कि युवाओं को है। अब
कांग्रेस में भविष्य 45 वर्ष से कम आयु के नेताओं का है। क्या पार्टी में परिवार के आशीर्वाद के बगैर
नेतृत्व का फैसला हो सकता है? परिवार पार्टी को धुरी
बनाए बगैर क्या पार्टी चल सकती है?
इन दोनों सवालों से भी
बड़ा सवाल है कि वर्तमान संकट नेतृत्व से जुड़ा है या पार्टी की रणनीति और विचारधारा से? विचारधारा को लेकर पार्टी के भीतर क्या किसी
प्रकार का अंतर्मंथन चल रहा है? लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी के कुछ
सदस्यों ने देशद्रोह, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद जैसी बातों को चुनाव में पराजय
का कारण माना है।
इसी गुरुवार को एक टीवी चैनल पर पार्टी के वरिष्ठ नेता आनन्द शर्मा ने कहा कि
पार्टी के घोषणापत्र में देशद्रोह के कानून को खत्म करने और आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल
पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) में
भारी बदलाव करने वाली बातों को शामिल करना गलती थी। इतना ही नहीं घोषणापत्र में यह
भी कहा गया था कि कश्मीर में सेना कम करनी चाहिए। इन बातों का वोटर पर विपरीत
प्रभाव पड़ा। कांग्रेस के भीतर किसी अंतर्मंथन के संकेत अभी तक नहीं हैं, पर सन
2014 की पराजय के बाद से पार्टी को अपनी ‘हिंदू-विरोधी छवि’ का आभास हो गया था।
हाल में कांग्रेस के
राष्ट्रीय मीडिया कोऑर्डिनेटर रचित सेठ ने अपने एक ब्लॉग पोस्ट में लिखा कि
कांग्रेस के पराभव के लिए वामपंथी झुकाव वाले सहायक जिम्मेदार हैं। पोस्ट के
प्रकाशन के कुछ समय बाद ही इसे हटा लिया गया, पर उतनी देर में ही यह चर्चा का विषय
बन गई। इससे इतना जाहिर हुआ कि जो बात बाहर कही जा रही थी, वह भीतर भी चल रही है।
जून, 2014 में वरिष्ठ
नेता एके एंटनी ने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्म
निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव रखने वाली छवि को हमें सुधारना होगा।
फिर दिसम्बर में खबर आई कि राहुल गांधी ने पार्टी के महासचिवों से कहा है कि वे
कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी
के रूप में देखी जा रही है। इसके बाद गुजरात विधानसभा के चुनाव के पहले राहुल
गांधी ने मंदिरों की यात्रा शुरू की।
कांग्रेस आज किस वैचारिक
जमीन पर खड़ी है और वह देश को क्या संदेश देना चाहती है? दिसम्बर, 2018 में यानी लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हुई कांग्रेस
महासमिति की हुई में दिए गए बयानों और पास किए गए प्रस्तावों पर नजर डालें तो नजर
आता है कि पार्टी व्यक्तिगत रूप से नरेन्द्र मोदी पर हमलों को अपनी रणनीति बनाएगी।
हाल में संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चली चर्चा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता
गुलाम नबी आजाद ने कहा, मैं आपसे निवेदन करता हूं कि नया भारत आप अपने
पास रखें और हमें हमारा पुराना भारत दे दें जहां प्यार और भाईचारा था।
उस भारत को वापस
पाने के लिए क्या कांग्रेस को नरेन्द्र मोदी से याचना करनी चाहिए? इस अनुरोध को तो वोटर ही पूरा करेगा,
जिसने उन्हें अस्वीकार किया है। उन्हें सोचना चाहिए कि क्यों किया
है। जनता को उनपर भरोसा नहीं है, तो दोष किसका है? क्या पार्टी के पास दूर-दृष्टि है? क्या पार्टी ने क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत नेताओं को बढ़ावा दिया
है? क्या उसके पास आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने
की योजना है? चुनाव में उसकी
परीक्षा हो चुकी है। अब अगली परीक्षा पाँच साल बाद है। फिलहाल विचार का समय है।
कांग्रेस क्या विचार करेगी?
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