Saturday, June 9, 2018

दादा किसे दिखा गए आईना?

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच पर जाकर क्या बोला, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि वे उस मंच पर गए। यह बात अब इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो चुकी है। इस सिलसिले में जो भ्रम पहले था, वह अब भी कायम है। प्रणब दा इस कार्यक्रम में क्यों गए? उनकी मनोकामना क्या है? क्या इसके पीछे कोई राजनीति है या सदाशयता? राष्ट्रवाद पर उनके विचारों का प्रसार करने के लिए क्या यह उपयोगी मंच था? था भी तो कुल मिलाकर क्या निकला?
प्रणब दा ने भारतीय समाज की बहुलता, विविधता, सहिष्णुता और अनेकता में एकता जैसी बातें कहीं। मोहन भागवत ने कहा, यह हमारे हिन्दू समाज की विशेषता है। हम तो अनेकता के कायल हैं। उनके भाषण में गांधी हत्या का उल्लेख होता, गोडसे का नाम होता और गोरक्षकों के उत्पात का जिक्र होता, तो इस वक्तव्य का स्वरूप राजनीतिक हो जाता। पर प्रणब मुखर्जी ने सायास ऐसा नहीं होने दिया।

भाषण के पहले कांग्रेस के कई नेताओं ने न्योता स्वीकार किए जाने का जमकर विरोध किया था। कुछ ने नहीं जाने या अपने फैसले पर पुनर्विचार की अपील भी की। ज्यादातर बातें व्यक्तिगत स्तर पर थीं, पर पार्टी ने आधिकारिक तौर पर इस संदर्भ में कोई बयान नहीं जारी किया था। भाषण के बाद पार्टी-प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि पूर्व राष्ट्रपति ने संघ को उसके मुख्यालय में ही आईना दिखाया है। उन्होंने कहा है कि विविधता, सहिष्णुता और सांस्कृतिक-बहुलता ही भारतीय पद्धति है। क्या आरएसएस सुनने को तैयार है?
तस्वीरें याद रहेंगी
कांग्रेस को प्रणब दा के वक्तव्य ने अपनी जीत साबित करने का मौका मिला। पर क्या प्रणब मुखर्जी इतना भी नहीं कहते? इस बात की उम्मीद तो किसी को नहीं थी कि वे संघ की भाषा बोलेंगे। वे मँजे हुए राजनेता हैं। वे अच्छी तरह जानते-समझते होंगे कि संघ के कार्यक्रम में जाने का मतलब क्या है और कांग्रेस के नेतृत्व की क्या प्रतिक्रिया होने वाली है। हालांकि पार्टी ने इस कार्यक्रम के पहले कोई कड़वी प्रतिक्रिया नहीं दी, पर व्यग्रता तो व्यक्त की थी। इस भाषण के बाद पार्टी के पास सिवाय तारीफ करने के कुछ बचा नहीं। पर भीतर-भीतर वह व्यग्रता बनी रहेगी। पार्टी यह भी नहीं कह सकती कि उन्होंने दगा की।
प्रणब मुखर्जी ने बाल गंगाधर तिलक और नेहरू-गांधी के नाम लेकर कांग्रेस को बयान जारी करने का रास्ता दे दिया। पर वास्तव में राजनीतिक प्रतिक्रिया  कार्यक्रम के एक दिन पहले उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी की थी, जिन्होंने ट्वीट किया, ...आरएसएस कभी यह कल्पना भी नहीं करेगा कि आप अपने भाषण में उनके विचारों का समर्थन करेंगे। लेकिन भाषण को भुला दिया जाएगा और तस्वीरें रह जाएंगी, जिन्हें फर्जी बयानों के साथ फैलाया जाएगा।’ ट्वीट की श्रृंखला में उन्होंने यह भी कहा, आप नागपुर जाकर भाजपा/आरएसएस को फर्जी खबरें गढ़ने, अफवाहें फैलाने और इनको किसी न किसी तरह विश्वसनीय बनाने की सुविधा मुहैया करा रहे हैं। और यह तो सिर्फ शुरुआत भर है।’ वास्तव में यह है कांग्रेसी प्रतिक्रिया।
वे गए ही क्यों?
सवाल है कि प्रणब मुखर्जी फिर भी इस समारोह में क्यों गए?  क्या इसका कोई राजनीतिक निहितार्थ है? उनके वक्तव्य के बाद बीजेपी की ओर से औपचारिक प्रतिक्रिया जारी नहीं हुई। अलबत्ता पार्टी के एक नेता ने एक चैनल पर कहा, 'प्रणब जी ने अपने भाषण की शुरुआत में ही भारत को पहला राष्ट्र बताया। यही तो हमारा विचार है।' उधर हेडगेवार को भारत माँ का सपूत बताने की बात पर सुरजेवाला से सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा, मेहमान के तौर पर प्रणब मुखर्जी ने जो बातें कहीं है, उन पर चर्चा होनी चाहिए अनावश्यक औपचारिकताओं पर नहीं।'
इस भाषण के निहितार्थ पर लम्बे समय तक चर्चा होती रहेगी, पर शायद इस सवाल का जवाब कभी नहीं मिलेगा कि उन्होंने संघ के मंच पर जाना स्वीकार क्यों किया। पर यह जरूरी सवाल है। कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि प्रणब दा के भीतर का राजनेता अब भी सक्रिय है। कुछ को लगता है कि वे इन सब बातों से ऊपर उठ गए हैं और ज्यादा बड़े फलक पर संवाद को बढ़ाना चाहते हैं।
इस कार्यक्रम के पहले ही मीडिया में सवालों के पहाड़ लग गए थे। पर प्रणब मुखर्जी ने यह कभी नहीं बताया कि वे नागपुर क्यों जा रहे हैं। इतना जरूर कहा कि मेरे पास कई पत्र आए और कई लोगों ने फोन किया। मैंने किसी का जवाब नहीं दिया। जो कुछ भी मुझे कहना है, मैं नागपुर में कहूंगा। नागपुर में भी उन्होंने सब कुछ कहा, पर बुनियादी बात का जवाब नहीं दिया।
संघ की वैधता बढ़ी
दो बातें इस कार्यक्रम से स्पष्ट हुईं। एक, वे संघ को अस्पृश्य नहीं मानते। दूसरे, उनका राष्ट्रवाद संघ की धारणा से ज्यादा व्यापक है। दोनों ही उसके पीछे पिछले पाँच हजार साल की भारतीय परम्पराओं की भूमिका मानते हैं, पर प्रणब मुखर्जी इसमें सांविधानिक-राष्ट्रवाद की भूमिका को ऊपर रखते हैं। इतना होने पर भी उन्होंने संघ के प्रति कोई कटु-वक्तव्य नहीं दिया। 
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के कम से कम तीन बड़े नेताओं को अंगीकार किया है। ये तीन हैं गांधी, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री। और अब लगता है कि प्रणब मुखर्जी भी संघ के प्रिय-पात्र हैं। संघ-विरोधी मानते हैं कि इन नेताओं की लोकप्रियता का लाभ उठाने की यह कोशिश है। कांग्रेस की राजनीति संघ-विरोध पर केन्द्रित है और उसका नेतृत्व संघ के प्रति किसी किस्म का नरम रुख नहीं अपनाएगा।  
संघ और कांग्रेस का द्वंद्व स्वतंत्रता के पहले से चला आ रहा है। बीजेपी की महत्वाकांक्षा है कांग्रेस की जगह लेना। कांग्रेस के भीतर संघ के प्रति सरदार पटेल का नजरिया जवाहर लाल नेहरू के दृष्टिकोण से फर्क था। दो साल पहले अरुण शौरी ने कहीं कहा था, बीजेपी माने कांग्रेस+गाय। पटेल का निधन 1950 में हो गया। वे ज्यादा समय तक भारतीय राजनीति में रहते तो शायद बातें साफ होतीं, पर उनके जीवन के अंतिम वर्षों की घटनाओं पर निगाह डालें तो साफ नजर आता है कि कांग्रेस के भीतर तीखे वैचारिक मतभेद थे।
कांग्रेस की हिन्दू-दृष्टि
भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई। उसके एक साल पहले पटेल का निधन हो चुका था। संघ के विचारकों की धारणा है कि पटेल की बात को मान लिया गया होता, तो जनसंघ बनती ही नहीं। सरदार पटेल ने संघ को कांग्रेस का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने कहा था, संघ के लोग चोर नहीं हैं, वे भी देशभक्त हैं। वे अपने देश को प्यार करते हैं। आप डंडे से संघ को खत्म नहीं कर पाएंगे। पटेल की पहल पर 10 नवम्बर 1949 को कांग्रेस कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पास किया, जिससे संघ के कांग्रेस में प्रवेश का रास्ता साफ होता था। कांग्रेस सेवा दल की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कांग्रेस का अंग होता। कहना मुश्किल है कि उस विचार के प्रस्तावकों की मंशा क्या थी। यह प्रस्ताव जिस समय पास हुआ जवाहर लाल नेहरू विदेश में थे। नेहरू के वापस आने के बाद अगले ही हफ्ते 17 नवम्बर को वह प्रस्ताव खारिज हो गया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रणब मुखर्जी को बुलाने का फैसला अनायास कर लिया या इसके पीछे कोई योजना है, इसे भी देखना होगा। क्या देश में इस विषय पर खुली बहस सम्भव है? संघ के विरोधी उसे फासिस्ट पार्टी बताते हैं। पर बीजेपी को बड़े फलक पर राजनीति करनी है या दूसरे शब्दों में कांग्रेस की जगह लेनी है तो उसे सांस्कृतिक बहुलता, सहभागिता, समावेशन और व्यापक जनाधार को भी अपनाना होगा। क्या बीजेपी बदलेगी? क्या संघ बदलेगा?
राष्ट्रवाद पर बहस
सरदार पटेल सांस्कृतिक बहुलता और समावेशन के पक्षधर थे। उनकी पहचान आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद को मूर्त रूप देने वाले राजनेता के रूप में है। व्यावहारिक राजनीति में कांग्रेस का सारा जोर नेहरू की विरासत पर है। नेहरू और उनके समकालीन नेताओं के वैचारिक मतभेद को सकारात्मक रूप से पेश करने की कोशिश पार्टी ने भी नहीं की। नेहरू और पटेल के बीच वैचारिक मतभेद थे। दोनों नेताओं की आर्थिक नीतियों और साम्प्रदायिक सवालों पर एक राय नहीं थी। फिर भी दोनों ने इन मतभेदों को कभी बढ़ाया नहीं।
पटेल और नेहरू के बीच के पत्राचार को पढ़ने से यह भी पता लगता है कि मतभेद इस हद तक आ गए थे कि दोनों में से एक सक्रिय राजनीति से हटने की बात सोचने लगा था। पर दोनों को राष्ट्रीय परिस्थितियों का भी एहसास था। विभाजन के फौरन बाद वह काफी नाजुक समय था। जब तक गांधी जीवित थे, ये अंतर्विरोध सुलझते रहे। नेहरू-पटेल और गांधी के बीच एक बैठक प्रस्तावित थी, जो कभी हो नहीं पाई और गांधी की हत्या हो गई। इसके बाद पटेल ज्यादा समय जीवित रहे नहीं और इतिहास की धारा दूसरी दिशा में चली गई। इतना साफ है कि दोनों ने अपने मतभेदों को इतना नहीं बढ़ाया कि रिश्ते टूट जाएं। दोनों ने एक-दूसरे को सम्मान दिया।
बदलती राजनीति
सन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटनी ने कहा था कि पार्टी की हिन्दू-विरोधीछवि बन गई है या बनाई जा रही है। चुनाव परिणाम आने के फौरन बाद जून में एके एंटनी ने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव रखने वाली छवि को सुधारना होगा। प्रणब मुखर्जी के इस कार्यक्रम में जाने से कांग्रेस की उस आंतरिक बहस का कोई सीधा सम्बंध नहीं है, पर पार्टी का एक तबका इसे संघ को वैधानिकता प्रदान करने का प्रयास जरूर मानेगा।
इस प्रसंग में प्रणब मुखर्जी की व्यक्तिगत व्यथा पर भी ध्यान देना चाहिए। वरिष्ठतम नेता होने के बावजूद वे प्रधानमंत्री नहीं बने। राष्ट्रपति के पद ने उन्हें सम्मान तो दिया, पर उनके भीतर का राजनेता पीछे रह गया। नरेन्द्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने उस वक्त प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति थे। कांग्रेस और मोदी के बीच तकरार चरम पर थी, पर प्रणब मुखर्जी और मोदी के रिश्ते अच्छे रहे। ये रिश्ते एकतरफा नहीं, दोनों तरफ से थे। पिछले साल जब प्रणब मुखर्जी विदा हो रहे थे, मोदी ने उन्हें पिता-तुल्य बताया। पहली नजर में यह सामान्य औपचारिकता लगती है, पर दूसरी नजर में दोनों नेताओं का एक दूसरे की तारीफ करना कुछ बातों की याद दिला देता है। 
http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//09062018//09062018-md-hst-3.pdf

2 comments:

  1. सर..बहुत अच्छा लिखा। सवाल अनुत्तरित हैं कि दादा क्यों गए संघ में

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन चौधरी दिगम्बर सिंह और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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