Thursday, June 21, 2018

विरोधी-एकता के अंतर्विरोध

पिछले शनिवार को चार गैर-भाजपा राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने दिल्ली के मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट के सदस्यों के धरने का समर्थन करके कांग्रेस पार्टी के नाम बड़ा संदेश देने की कोशिश की थी। इस कोशिश ने विरोधी-एकता के अंतर्विरोधों को भी खोला है। नीति आयोग की बैठक में शामिल होने आए, इन चार मुख्यमंत्रियों में केवल एचडी कुमारस्वामी का कांग्रेस के साथ गठबंधन है। ममता बनर्जी, पिनाराई विजयन और चंद्रबाबू नायडू अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के प्रतिस्पर्धी हैं। इतना ही नहीं, पिनाराई विजयन की पार्टी बंगाल में ममता बनर्जी की मुख्य प्रतिस्पर्धी है। सवाल है कि क्या इन पार्टियों ने अपने परस्पर टकरावों पर ध्यान क्यों नहीं दिया? क्या उन्हें यकीन है कि वे इन अंतर्विरोधों को सुलझा लेंगे?

हालांकि इस तरफ किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया है, पर वस्तुतः इन चारों ने दिल्ली में कांग्रेस की प्रतिस्पर्धी पार्टी का समर्थन करके बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। विरोधी दलों की एकता के दो आयाम हैं। एक, कांग्रेस-केंद्रित एकता और दूसरी क्षेत्रीय क्षत्रप-केंद्रित एकता। दिल्ली में आम आदमी पार्टी खुद को गैर-भाजपा विपक्ष की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में स्थापित कर रही है, वहीं कांग्रेस उसे बीजेपी की ‘बी’ टीम मानती है। दोनों बातों में टकराव है।


ममता बनर्जी समेत चार मुख्यमंत्रियों ने ही नहीं, ‘आप’ ने भी दो हफ्ते पहले कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने की कोशिश की थी। पर कांग्रेस ने अपना मुँह फेर लिया। दिल्ली में कांग्रेस और ‘आप’ एक साथ आएंगे तो बीजेपी के लिए मुश्किल जरूर पैदा हो जाएगा। पर कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं है।

कांग्रेस पार्टी बीजेपी और ‘आप’ दोनों को अपना प्रतिस्पर्धी मानकर चल रही है। इस वजह से वह विरोधी-एकता के प्रयास में अलग-थलग पड़ रही है। इसे समझना होगा कि इसके पीछे कांग्रेसी अवधारणा क्या है। पर उसके पहले यह भी समझना होगा कि विरोधी-एकता की समूची अवधारणा को लेकर कांग्रेस की रणनीति क्या है। कांग्रेस इस एकता के पक्ष में है, पर वह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों का इंतजार करेगी। इन तीनों राज्यों में उसका बीजेपी से सीधा मुकाबला है। बेशक वह स्थानीय समूहों के साथ तालमेल करेगी, पर बागडोर उसके हाथ में ही रहेगी।

कांग्रेस की वरीयता विरोधी एकता के केंद्र में रहने की है, परिधि में रहने की नहीं। परिधि में वहीं रहेगी, जहाँ वह कमजोर है। कर्नाटक में वह अपनी रणनीति के कारण एक कदम पीछे हटी है। वह नहीं चाहती थी कि वहाँ बीजेपी की सरकार बने। यह उसका पहला कदम था। यदि तीन राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को सफलता मिली तो उसका आत्मविश्वास बढ़ेगा। यहाँ से वह ऐसे गठबंधन की रूपरेखा बना सकती है, जो उसके अनुरूप हो।

ममता बनर्जी जिस गठबंधन की पेशकश कर रहीं हैं, उसमें वर्चस्व क्षेत्रीय क्षत्रपों का है। इसमें अनिवार्य रूप से कांग्रेस का वर्चस्व नहीं होगा। ममता बनर्जी का संदेश यह भी है कि कांग्रेस को हमारी शर्तें माननी चाहिए। पर उन्होंने दिल्ली में ‘आप’ को समर्थन देकर उन्होंने कांग्रेस की संवेदनशीलता की उपेक्षा की है। ऐसा नहीं कि उन्हें दिल्ली की वास्तविकता और कांग्रेस की संवेदनशीलता का आभास नहीं है। आपसी विमर्श में ये बातें एक-दूसरे को बता दी जाती हैं। ऐसी बातें आमने-सामने की बातचीत में होती हैं, पर ममता ने मीडिया के सामने ‘आप’ को लेकर सवाल उठाए हैं। इसके पहले राहुल गांधी की इफ्तार पार्टी में विरोधी दलों के बड़े नेताओं की अनुपस्थिति की तरफ भी लोगों का ध्यान गया था।

इन छोटे-संकेतों से लगता है कि विरोधी दल विचार-मंथन की प्रक्रिया में हैं। उधर कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी के नेतृत्व को पुख्ता करने की कोशिश कर रही है। इस लिहाज से इस साल होने वाले तीन विधानसभाओं के चुनाव बेहद महत्वपूर्ण हैं। विरोधी-एकता में कांग्रेस की दिलचस्पी है जरूर, पर उसे अपनी सुधरती स्थितियाँ भी नजर आ रहीं हैं। पार्टी के अंदरूनी सूत्र कहते हैं कि कुछ समय इंतजार कीजिए, हवा का रुख बदल रहा है। वे राजस्थान, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों का इंतजार कर रहे हैं, जहाँ सफलता मिलने की आशा है। इसीलिए पार्टी दिल्ली में ‘आप’ और बीजेपी दोनों के खिलाफ मोर्चा खोलकर खड़ी है। परम्परा से दिल्ली के पिछड़े, झुग्गी-झोपड़ी वाले, मुसलमान और व्यापारी कांग्रेस के साथ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में वे ‘आप’ के साथ चले गए। कांग्रेस को लगता है कि इस वोटर को वापिस लाने के लिए उसे अपने पैरों पर खड़े रहना होगा

पानी की किल्लत को लेकर दिल्ली कांग्रेस एक महीने से ‘जल-सत्याग्रह’ चला रही है माकन कहते हैं कि दिल्ली प्यासी है बीजेपी और ‘आप’ एयर कंडीशंड कमरों में बैठे हैं कांग्रेस का कार्यकर्ता तपती गर्मी में सड़कों जनता की लड़ाई लड़ रही है। कांग्रेस को यह भी लगता है कि आप’ ने ऊँची महत्वाकांक्षाएं पाल ली हैं। उसके साथ मोल-भाव करने में दिक्कत है। ऐसे में दिल्ली में कांग्रेस उसकी जूनियर पार्टनर नहीं बनेगी, बल्कि अपनी ताकत बढ़ने का इंतजार करेगी।

वृहत स्तर पर वह विरोधी-एकता के साथ है, पर उस गठजोड़ की रूपरेखा अभी तय नहीं है। इस दौरान पार्टी का दूसरे दलों के साथ संवाद जारी है। इधर खबरें हैं कि बिहार में ऐसे आसार बन रहे हैं कि नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो सकते हैं। क्या महागठबंधन में उनकी वापसी होगी? कांग्रेस के साथ नीतीश कुमार के रिश्ते मधुर रहे हैं। उनकी वापसी होगी या नहीं, यह लोकसभा की सीटों के मामले से तय होगा।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी अपने अस्तित्व को लेकर परेशान है। दो हफ्ते पहले ‘आप’ ने कांग्रेस के साथ गठबंधन शोशा छोड़ा था। दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अजय माकन ने तभी ट्वीट किया था, जब दिल्ली की जनता केजरीवाल सरकार को खारिज कर रही है, तो हम उसकी मदद में क्यों आएंगे? उसके बाद से कांग्रेस ने लगातार अपनी बेरुखी जाहिर की है।

सोमवार को एक संवाददाता ने जब अजय माकन से चार मुख्यमंत्रियों की पहल पर सवाल किया, तो उन्होंने कहा, ‘ क्या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और सीपीएम राज्य में एक साथ आएंगे?’ इन चार मुख्यमंत्रियों में सीपीएम के पिनाराई विजयन भी थे। इसलिए अजय माकन का यह प्रति-प्रश्न मायने रखता है। विरोधी दलों के आपसी अंतर्विरोध हैं। सभी दल एकसाथ नहीं आ सकते। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने साथ आने की घोषणा की जरूर है, पर यह एकता सीटों के बँटवारे पर निर्भर करेगी। दिल्ली में पिनाराई विजयन और ममता बनर्जी एकसाथ खड़े हो सकते हैं, पर बंगाल में तृणमूल और सीपीएम एक साथ नहीं आ सकते। तमिलनाडु में द्रमुक-अद्रमुक गठबंधन सम्भव नहीं है।

दिल्ली में चार मुख्यमंत्रियों ने केजरीवाल का समर्थन किया है। शिवसेना भी इस समर्थन में शामिल है, पर महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ उसका गठबंधन बरकरार है। शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन सम्भव नहीं है। परस्पर विरोधी हितों को देखते हुए विरोधी-एकता का गणित काफी जटिल और मुश्किल काम लगता है, पर राजनीति भी असम्भव को सम्भव बनाती है। फिलहाल उसका इंतजार करें।





1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-06-2018) को "सारे नम्बरदार" (चर्चा अंक-3009) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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