Sunday, December 18, 2016

नोटबंदी के बाद अब क्या हो?

नरेंद्र मोदी कोई बड़ा काम करना चाहते हैं। ऐसा उनकी शैली से पता लगता है। नोटबंदी का उनका फैसला बताता है कि इसके पीछे पूरी व्यवस्था के साथ व्यापक विमर्श नहीं किया गया होगा। विचार-विमर्श हुआ होता तो शायद दिक्कतें इस कदर नहीं होतीं। इसमें बरती गई गोपनीयता का क्या मतलब है अभी यह भी समझ में नहीं आया है। यह भी दिखाई पड़ रहा है कि अर्थ-व्यवस्था की गति इससे धीमी होगी और छोटे कामगारों को दिक्कतें होंगी। पर ये दोनों बातें लंबे समय की नहीं हैं। हालांकि अभी आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, पर अनुमान है कि दो से तीन लाख करोड़ रुपए तक की राशि एकाउंटिंग में आएगी। वास्तव में ऐसा होने के बाद ही बात करनी चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो भविष्य में राजस्व में काफी वृद्धि होगी। इसके साथ ही दबाव में या समय की जरूरत को देखते हुए डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया तेज होगी। डिजिटाइजेशन भी व्यवस्था को पारदर्शी बनाने में मददगार होगा। 
इस नोटबंदी ने व्यवस्था पर हावी ताकतों पर से भी पर्दा उठाया है। वकीलों, चार्टर एकाउंटेंटों, बैंक अफसरों, हवाला कारोबारियों, बिल्डरों, सर्राफों और कुल मिलाकर राजनेताओं की पकड़ और पहुँच का पता भी इस दौरान लगा है। भविष्य की व्यवस्था में इन बातों से बचने के रास्ते भी खोजने होंगे। व्यवस्था के दोष खुलते हैं तो उसे ठीक करने के रास्ते भी बनते हैं। ऐसा नहीं है कि अंधेर पूरी तरह अंधेर ही बना रहे। राजनीतिक दलों, धार्मिक ट्रस्टों और इसी प्रकार की संस्थाओं को मिली छूटों के बारे में ध्यान देने की जरूरत है। हम लोग शिकायतें बहुत करते हैं, पर जब संसदीय समितियाँ किसी सवाल पर आपकी राय माँगती हैं, तब आगे नहीं आते। फेसबुक और ट्विटर पर गालियाँ देते हैं। व्यवस्था में नागरिक की भागीदारी होगी तो अंधेर इतना आसान नहीं होगा। बाढ़ के वक्त नदी का पानी गंदला होता है, पर कुछ समय बाद वह साफ भी होता है। बदलाव की धारा का श्रेय केवल मोदी को नहीं दिया जाना चाहिए। यूपीए सरकार ने सन 2009 के बाद उदारीकरण की गति को धीमा कर दिया था। मोदी सरकार ने यूपीए के छोड़े कामों को ही पूरा करना शुरू किया है। उसकी हिम्मत भी दिखाई है। पर सच यह है कि हमारी राजनीति उदारीकरण को मुद्दा बना नहीं पाई है। 

शीत सत्र भी पूरी तरह धुल गया। लोकसभा ने मुकर्रर समय में से केवल 15 फीसदी और राज्यसभा ने 18 फीसदी काम किया। लोकसभा में 07 घंटे और राज्यसभा में 101 घंटे शोरगुल की भेंट चढ़े। राज्यसभा में प्रश्नोत्तर काल के लिए सूचीबद्ध 330 प्रश्नों में से केवल दो का जवाब मौखिक रूप से दिया जा सका। लोकसभा में केवल 11 फीसदी सूचीबद्ध सवालों के जवाब मौखिक रूप से दिए जा सके। संसदीय कर्म के सारे मानकों पर यह सत्र विफल रहा। वह भी ऐसे मौके पर जब देश अपने नेताओं का मुँह जोह रहा था कि वे रास्ता बताएं।
नोटबंदी के बाद देश को जिस वैचारिक बहस की जरूरत थी, वह न तो संसद के भीतर हो पाई और न बाहर। यह कदम सार्थक है या नहीं और इसके बाद क्या? नोटबंदी के सकारात्मक और नकारात्मक परिणामों की सूची बनाएं तो तीन-चार बातें निकल कर आती हैं। इस फैसले का फौरी परिणाम यह है कि छोटे कारोबारियों, दिहाड़ी मजदूरों और नेटवर्क से बाहर की अर्थ-व्यवस्था से जुड़े लोगों को सदमा लगा है। मोटा अनुमान है कि इससे अर्थ-व्यवस्था में दो फीसदी तक की गिरावट आएगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन परेशानियों के लिए 50 दिन माँगे थे। अब लगता है कि ये दिक्कतें 50 दिन के बाद भी दूर नहीं होंगी। इसे पूरी तरह ठीक करने में तीन महीने और लगेंगे। इसमें क्रमिक सुधार होगा। छह महीने के इन कष्टों से यदि देश एक लम्बी छलांग लगाने में कामयाबी हासिल करे तो क्या उसे सफलता नहीं मानेंगे? इसलिए सवाल यह होना चाहिए कि यह लम्बी छलाँग कैसी होगी?
शीत सत्र के आखिरी दिन प्रधानमंत्री ने बीजेपी संसदीय दल की बैठक में उन कुछ कदमों की और इशारा किया जो अब आगे आने वाले दिनों में देखने को मिलेंगे। ये कदम भ्रष्टाचार को कम करने के अलावा व्यवस्था को तेज और तर्क-संगत बनाने का काम भी करेंगे। भ्रष्टाचार एक व्यापक शब्द है। माना जाता है जब तक व्यक्ति को बेईमानी करने का मौका न मिले वह ईमानदार रहता है। इस लिहाज से व्यवस्था की जिम्मेदारी होती है कि वह व्यक्ति के सामने भ्रष्ट होने के कम से कम मौके छोड़े। व्यक्ति और व्यवस्था दोनों एक-दूसरे को सुधारते हैं, बशर्ते सुधार के रास्ते बनें। रास्ते नहीं होंगे तो दोनों एक-दूसरे को ध्वस्त भी करते हैं।
व्यवस्था के अकुशल होने की वजह के कारण 90 फीसदी से ज्यादा आबादी का उत्पीड़न होता है। यदि हम व्यवस्थाओं को सरल और उपयोगी बना सकें तो उत्पीड़न खत्म होगा और सामूहिक रूप से हम अपनी क्षमताओं का बेहतर इस्तेमाल कर सकेंगे। प्रधानमंत्री ने शुक्रवार की बैठक में कहा, यदि हम मध्यवर्ग के उत्पीड़न को रोकना चाहते हैं तो कड़े कदम उठाने ही होंगे। गरीबी को दूर करने का रास्ता भी यही है।
नरेंद्र मोदी ने सन 1988 में पास हुए बेनामी हस्तांतरण कानून का हवाला दिया। तत्कालीन सरकार ने कानून पास करा दिया, पर उसकी अधिसूचना जारी नहीं की। यह काम हम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि विमुद्रीकरण का विचार पुरानी सरकारों के सामने भी आया था, पर उन्होंने उसे लागू करने की हिम्मत नहीं दिखाई। हमने हिम्मत की।
नरेंद्र मोदी नोटबंदी के कदम को सशक्तीकरण की दिशा में एक बड़े कदम के रूप में पेश कर रहे हैं। यह कदम काले धन को निकालने से ज्यादा भविष्य में काला धन बनने की संभावनाओं को खत्म करने के इरादे से उठाया गया है। हालांकि अभी आँकड़े सामने नहीं हैं, और जो हैं भी उनसे पता नहीं लगता कि वास्तव में कितने नोट बदले जा चुके हैं। देखना यह है कि कितने नोट सिस्टम में वापस नहीं आते हैं। बड़ी मात्रा में धन का अर्थ-व्यवस्था में शामिल होना एक चरण है।
दूसरी सतह उस धन की है, जो अभी तक सरकारी खातों में नहीं था, पर अब आ गया है। इससे भी करीब एक लाख करोड़ रुपए तक के सालाना राजस्व की वृद्धि होगी। इस दौरान यदि हम डिजिटाइज़ेशन की गति को बढ़ाने में कामयाब हुए तो गणना करना आसान होगा। लोग सवाल उठा रहे हैं कि गरीब जनता की बचत को काला धन कैसे कह सकते हैं? सही बात है उसे काला धन नहीं कहना चाहिए। पर जो बड़ी रकम अब बाहर आ रही है, वह किसके पास से निकल रही है? वकीलों, चार्टर्ड अकाउंटेंटों, सर्राफों, बिल्डरों, हवाला कारोबारियों या ऐसे ही लोगों के पास से। यह रकम बढ़ती ही जा रही है।
आज से दस साल पहले यदि अन-एकाउंटेड धनराशि एक लाख करोड़ रुपए थी तो आज यह तीन लाख करोड़ से ज्यादा होगी। इसे सबसे पहले खाते में लाने की जरूरत है। चूंकि यह संधिकाल है, इसलिए इसमें कई तरह की छूटें भी देनी होंगी। मोदी ने शुक्रवार की बैठक में व्यापारियों को आश्वस्त किया कि छोटे कारोबारी अब जब डिजिटाइज़ेशन को लागू करेंगे तो उन्हें पुराने दस्तावेजों के आधार पर परेशान नहीं किया जाएगा। यानी छूट देने की व्यवस्था भी लागू की जाएगी।
चूंकि साथ ही साथ जीएसटी भी लागू हो रहा है, इसलिए वे अपने वास्तविक कारोबार को टैक्स प्रणाली में शामिल करके मन की शांति हासिल कर सकते हैं। बदले में आने वाले समय में कम टैक्स वाली व्यवस्था अपने आप आ जाएगी। हाल में वित्तमंत्री ने संकेत किया है कि भविष्य में आयकर की दरें घटाई जा सकती हैं।
देश में व्यावहारिक रूप से करीब एक फीसदी यानी सवा करोड़ के आसपास लोग ही आयकर देते हैं, जबकि 30 से 40 करोड़ की आबादी मध्यवर्ग के दायरे में आ चुकी है। इसमें से तीन करोड़ से ज्यादा लोग आसानी से टैक्स के दायरे में आ सकते हैं। टैक्स देने वालों की तादाद बढ़ेगी तो दरें कम करना आसान होगा। साध ही गरीबों की मदद के लिए चलाई जा रही योजनाओं को लागू कर पाना सम्भव होगा।
हमारा कर राजस्व आज भी जीडीपी की तुलना में काफी कम है। भारत में जीडीपी का दस फीसदी से कुछ ज्यादा कर राजस्व मिलता है, जो बढ़ाया जा सकता है। इसे 20 फीसदी के आसपास होना चाहिए। भारत सरकार दुनिया में सबसे कम टैक्स वसूल पाने वाले देशों में है। इसका कारण यह भी है कि हम टैक्स देने वालों को पूरी तरह कर ढाँचे के भीतर नहीं ला पाए हैं। इस वक्त जो दिक्कतें हैं, वे जल्द दूर हो जाएंगी, हमें दूरगामी परिणामों के बारे में सोचना चाहिए।
हरिभूमि में प्रकाशित

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