Wednesday, August 6, 2014

जितना महत्वपूर्ण है इतिहास बनना, उतना ही जरूरी है उसे लिखा जाना

संजय बारू के बाद नटवर सिंह की किताब का निशाना सीधे-सीधे नेहरू-गांधी परिवार है। देश का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवार आज से नहीं कई दशकों से राजनीतिक निशाने पर है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इस परिवार ने सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में भागीदारी की। केवल सत्ता का सामान्य भोग ही नहीं किया, काफी इफरात से किया। इस वक्त कांग्रेस इस परिवार का पर्याय है। अब मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह की किताब 'स्ट्रिक्टली पर्सनल : मनमोहन एंड गुरशरण' आने वाली है। दमन सिंह ने यह किताब मनमोहन सिंह पर एक व्यक्ति के रूप में लिखे जाने का दावा किया है, प्रधानमंत्री मनमोहन पर नहीं। अलबत्ता 5 अगस्त के टाइम्स ऑफ इंडिया में सागरिका घोष के साथ इंटरव्यू में कही गई बातों से लगता है कि मनमोहन सिंह के पास भी कहने को कुछ है। दमन सिंह ने मनमोहन सिंह के पीवी नरसिम्हाराव और इंदिरा गांधी के साथ रिश्तों पर तो बोला है, पर सोनिया गांधी से जुड़े सवाल पर वे कन्नी काट गईं और कहा कि यह सवाल उनसे (यानी मनमोहन सिंह से) ही करिेेए। इससे यह भी पता लगेगा कि नेहरूवादी आर्थिक दर्शन से जुड़े रहे मनमोहन सिंह ग्रोथ मॉडल पर क्यों गए और भारत के व्यवस्थागत संकट को लेकर उनकी राय क्या है। इस किताब को मैने भी मँगाया है। रिलीज होने के बाद मिलेगी। फिलहाल जो दो-तीन किताबें सामने आईं हैं या आने वाली हैं, उनसे  भारत की राजनीति के पिछले ढाई दशक पर रोशनी पड़ेगी। इनसे देश की राजनीतिक संस्कृति और सिस्टम के सच का पता भी लगेगा। यह दौर आधुनिक भारत का सबसे महत्वपूर्ण दौर रहा है।  नीचे मेरा लेख है, जो मुंबई से प्रकाशित दैनिक अखबार एबसल्यूट इंडिया में प्रकाशित हुआ है।


ऐसे ही तो लिखा जाता है इतिहास
यूपीए सरकार के दस साल, उसमें शामिल सहयोगी दलों की करामातें, सोनिया गांधी का त्याग, मनमोहन सिंह की मजबूरियाँ और राहुल गांधी की झिझक से जुड़ी पहेलियाँ नई-नई शक्ल में सामने आ रही हैं। संजय बारू ने 'एक्सीडेंटल पीएम लिखकर जो फुलझड़ी छोड़ी थी उसने कुछ और किताबों और संस्मरणों को जन्म दिया है। इस हफ्ते दो किताबों ने कहानी को रोचक मोड़ दिए हैं। कहना मुश्किल है कि सोनिया गांधी किताब लिखने के अपने वादे को पूरा करेगी या नहीं, पर उनके लिखे जाने की सम्भावना ने ही माहौल को रोचक और जटिल बना दिया है। अभी तक कहानी एकतरफा थी। यानी लिखने वालों पर कांग्रेस विरोधी होने का आरोप लगता था। पर मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने भी माना है कि पार्टी के भीतर मनमोहन सिंह का विरोध होता था।


यह किताब 'स्ट्रिक्टली पर्सनल : मनमोहन एंड गुरशरण पिता के बचाव में लिखी गई है, पर इसके मार्फत कुछ और बातें सामने आएंगी। मनमोहन सिंह के मन में पीवी नरसिम्हाराव के प्रति आदर भाव है, जो सोनिया गांधी के मन में नहीं है। इस बात को जानते काफी लोग हैं, पर मानते नहीं हैं। इसी तरह 2009 की जीत का श्रेय मनमोहन सिंह को नहीं, राहुल को दिया गया। मनमोहन सिंह चाहते तो उस साल लोकसभा चुनाव लड़कर जीत भी सकते थे। पंजाब से कोई भी सीट उन्हें मिल सकती थी। पर ऐसा नहीं हुआ। क्यों? मनमोहन सिंह शायद ही कभी कुछ कहें, पर क्या उनकी बेटी की पुस्तक में कोई संकेत मिल सकता है। सीधे नहीं तो लाइनों के बीच छिपा हुआ संकेत।
नटवर सिंह ने सोनिया गांधी की त्याग की प्रतिमूर्ति छवि को खंडित कर दिया है। वह भी ऐसे मौके पर जब पार्टी का रथ गहरे ढलान पर उतर गया है, चार महत्वपूर्ण राज्यों के विधान सभा चुनाव सिर पर हैं। लगभग सभी राज्यों में असंतुष्ट नेताओं की कतार खड़ी है। राहुल गांधी के भविष्य को लेकर पार्टी के भीतर अनिश्चय का भाव है। कांग्रेस का यह संकट 1977, 1989 या 1996 जैसा नहीं है। ऐसा संकट पार्टी पहली बार देख रही है। संजय बारू ने लिखा था कि मनमोहन सिंह अपनी मर्जी से फैसले नहीं कर पाते थे। यह वह बात थी जिसे जानते सब थे। बहरहाल पूर्व कोयला सचिव पीसी पारख की किताब 'क्रुसेडर ऑर कांस्पिरेटर: कोलगेट एंड अदर ट्रूथने दूसरा हंगामा खड़ा किया।

पारख ने बताने की कोशिश की कि कैसे कोयला मंत्रालय के कामकाज को प्रधानमंत्री असहाय प्रधानमंत्री की तरह देखते थे। अक्‍सर नेता कई बड़े फैसलों को बदलने और उन्‍हें प्रभावित करने की कोशिश करते थे। यह चोट व्यक्तिगत रूप से मनमोहन सिंह पर थी। पर सवाल है कि किसने उन्हें असहाय बनाया? फिर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने मद्रास हाइकोर्ट के एक जज के बारे में लिखा कि गठबंधन राजनीति के कारण उस जज को लगातार संरक्षण मिलता रहाबावजूद इसके कि उसपर भ्रष्टाचार के आरोप थे। मनमोहन सिंह लगातार गठबंधन की मजबूरी का जिक्र करते रहे। गठबंधन को बनाए रखने की जिम्मेदारी किसकी थीपार्टी की या सरकार की? सरकार के सामने गैर-वाजिब बातें मानने की क्या मजबूरी थी?

पिछले साल 27 सितम्बर को राहुल गांधी ने जब केंद्र सरकार के अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने की बात कही थी उसी रोज़ संजय बारू का बयान आया था कि मनमोहन सिंह को इस्तीफा दे देना चाहिए। इस साल अपनी किताब द एक्सीडेंटल पीएम के प्रकाशन के बाद बारू ने एक टीवी इंटरव्यू में यह भी बताया कि राहुल के गुस्से से प्रधानमंत्री की बेटी बेहद दुखी थीं। वे चाहती थीं कि मनमोहन सिंह इस्तीफा दे दें। क्या मनमोहन सिंह ने तब इस्तीफे के बारे में सोचा थाबारू का वह इंटरव्यू मई के अंतिम दिनों में प्रसारित हुआ था। उसके एक महीने पहले किताब के प्रकाशित होते ही मनमोहन सिंह की बेटी उपिंदर सिंह ने बारू के लेखन को पीठ में छुरा घोंपने जैसा बताया। उन्होंने कहा, बारू ने मेरे पिता से विश्वासघात किया है।

मुंबई में अपनी किताब के लांच पर बारू ने कहा कि राहुल के प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद मैंने बयान जारी कर कहा था कि मनमोहन सिंह को इस्तीफा दे देना चाहिए। मैं टीवी भी पर आया और यही कहा। उस वक्त मुझे उनकी बेटी की ओर से एक मैसेज मिलाजिसमें उन्होंने कहा था कि वह मुझसे सहमत हैं। बारू ने हालांकि यह नहीं बताया कि किस बेटी ने अपने पिता के इस्तीफा देने की बात पर सहमति जताई थी। बहरहाल मनमोहन परिवार के भीतर की जानकारी महत्वपूर्ण साबित होगी। सवाल है कि क्या जानकारियाँ सामने आएंगी? सरकारी फाइलें पार्टी अध्यक्ष की नज़र से गुजरती थी या नहीं, यह भी अभी गोपनीयता के अंधेरे में है। सत्ता की कुंजी राजनीतिक दल के पास होती है, पर हमारे देश में राजनीतिक सत्ता और प्रशासनिक सत्ता का भेद स्पष्ट है। 

इस साल 3 जनवरी को मनमोहन सिंह ने अपने आखिरी संवाददाता सम्मेलन में कहा था, ‘मेरे कार्यकाल के बारे में इतिहासकार फ़ैसला करेंगे। मैं नहीं मानता कि मैं एक कमजोर प्रधानमंत्री रहा हूं …. राजनीतिक बाध्यताओं को देखते हुए जो मैं कर सकता था मैंने किया है। नटवर, बारू और पारख वगैरह की बातों में प्रतिशोध की भावना भी होगी। दूसरा पक्ष भी सामने आएगा। राजनेताओं के संस्मरण देश के हालात और राजनीतिक व्यवस्था को समझने में मददगार होते हैं। मनमोहन सिंह ने जिसे इतिहास कहावह ऐसे ही लिखा जाएगा।
एबसल्यूट इंडिया


3 comments:


  1. एकदम सटीक

    ReplyDelete
  2. इंतजार होगा यह देखने के के लिए , कितना न्याय हुआ , वास्तविक घटना क्रम के साथ

    ReplyDelete
  3. एकदम सटीक बेहतरीन ..

    ReplyDelete