Thursday, August 14, 2014

धारदार, साखदार है तभी अख़बार, वर्ना है काग़ज़ का टुकड़ा


हर सुबह अखबार के साथ रंगीन आर्ट पेपर पर छपे इश्तहारों के टुकड़े भी आते हैं। उनकी सजावट के मुकाबले अखबार कुछ भी नहीं होते, पर आप पहले अखबार उठाते हैं। उन्हें भी पढ़ते हैं, पर वे आप तक अखबार की वजह से आते हैं, अखबार के साथ। पिछले चार सौ साल से ज्यादा वक्त हो गया अखबार निकलते। वे पहला औद्योगिक उत्पाद माने जाते हैं। उनका विकास दुनिया में लोकतंत्र के विकास का इतिहास है। तमाम किस्म के अंतर्विरोध अखबार के साथ छिपे हैं। अखबारों ने वैश्विक सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अपनी जगह बनाई, जो अभी तक बनी है। अब ऐसा लगता है कि अखबार की कहानी कुछ दशकों की रह गई है। सम्भव है कागज़ के पर्चे के रूप में अखबार हमारे जीवन से चला जाए, पर पत्रकारिता की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। आज रांची के दैनिक प्रभात खबर ने अपनी तीसवीं वर्षगाँठ मनाई है। इस अखबार की खासियत है कि यह आधुनिक भारत के उस दौर से शुरू हुआ जब देश नई करवट ले रहा था। राजीव गांधी के नेतृत्व में इक्कीसवीं सदी की बातें प्रभात खबर के आने के बाद शुरू हुईं हैं। इस अखबार ने सामाजिक जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं का साथ नहीं छोड़ा है। इसने समय के साथ बहुत कुछ बदला है, पर तमाम बातों को छोड़ा नहीं है। यानी नया जोड़ा है, पर पुराना नहीं छोड़ा। इसकी तीसवीं वर्षगाँठ पर अखबार के विशेष पेज पर छपा मेंरा लेख। इस लेख के साथ एनके सिंह का लेख भी है, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रुझानों पर है। 

कुछ साल पहले पंजाब के एक हिंदी अख़बार के पहले सफे पर चार तस्वीरों के साथ एक खबर छपी थी जिसका शीर्षक था मुझे घर जाने दो नहीं तो जान दे दूँगी. खबर एक छोटे शहर की थी जहाँ की पुलिस सार्वजनिक स्थानों पर घूमते जोड़ों की पक़ड़-धकड़ कर रही थी. खबर के साथ लगी पहली तीन तस्वीरों में एक लड़की पुलिस वालों से बात करती नजर आती थी. मुख्य शीर्षक के ऊपर शोल्डर था मोरल पुलिसिंग! प्रेमी जोड़ों पर कार्रवाई के दौरान छात्रा हुई प्रताड़ित, फिर आ गई ट्रेन के नीचे. खबर में चौथी तस्वीर रेल की पटरियों के बीच पड़ी लाश की थी. पुलिस की कार्रवाई, लड़की का घबराना और अख़बार में खबर का ट्रीटमेंट तीनों को बदलते वक्त की रोशनी में देखना चाहिए.
मीडिया तकनीक और कवरेज में बदलते वक्त का आइना दिखाई देता है. एक अख़बार ने महिलाओं की किटी पार्टी की कवरेज में विशेषज्ञता हासिल कर ली. पंजाब और दिल्ली का एक अख़बार संयुक्त परिवारों पर विशेष सामग्री छापता है. ऐसे ज़माने में जब परिवार छोटे हो रहे हैं, यह द्रविड़ प्राणायाम अलग किस्म का नयापन लेकर आया है. एक और अख़बार सीनियर सिटिज़न यानी वयोवृद्धों पर अलग से पेज छापता है. युवाओं पर अलग पेज तो तकरीबन सभी अखबारों ने शुरू किए हैं. धर्म और धार्मिक कर्मकांड भी हिंदी अखबारों का एक अनिवार्य हिस्सा है. वैसे ही जैसे विज्ञान-तकनीक और गैजेट्स का पेज.   

रॉबिन जेफ्री की किताब इंडियाज़ न्यूज़पेपर रिवॉल्यूशन सन 2000 में प्रकाशित हुई थी. इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर आकर किसी ने संज़ीदगी के साथ भारतीय भाषाओं के अखबारों की ख़ैर-ख़बर ली. रॉबिन जेफ्री ने किताब की शुरुआत करते हुए इस बात की ओर इशारा किया कि अखबारी क्रांति ने एक नए किस्म के लोकतंत्र को जन्म दिया है. उन्होंने 1993 में मद्रास एक्सप्रेस से आंध्र प्रदेश की अपनी एक यात्रा का जिक्र किया है. उनका एक सहयात्री एक पुलिस इंस्पेक्टर था. बातों-बातों में अखबारों की जिक्र हुआ तो पुलिस वाले ने कहा, अखबारों ने हमारा काम मुश्किल कर दिया है. पहले गाँव में पुलिस जाती थी तो गाँव वाले डरते थे. पर अब नहीं डरते. बीस साल पहले यह बात नहीं थी. तब सबसे नजदीकी तेलुगु अख़बार तकरीबन 300 किलोमीटर दूर विजयवाड़ा से आता था. सन 1973 में ईनाडु का जन्म भी नहीं हुआ था, पर 1993 में उस इंस्पेक्टर के हल्के में तिरुपति और अनंतपुर से अख़बार के संस्करण निकलते थे.

सेवंती नायनन ने ‘हैडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैंड’ में ग्रामीण क्षेत्रों के संवाद संकलन का रोचक वर्णन किया है. उन्होंने लिखा है कि ग्रामीण क्षेत्र में अखबार से जुड़े कई काम एक जगह पर जुड़ गए. सेल्स, विज्ञापन, समाचार संकलन और रिसर्च सब कोई एक व्यक्ति या परिवार कर रहा है. खबर लिखी नहीं एकत्र की जा रही है. उन्होंने छत्तीसगढ़ के कांकेर-जगदलपुर हाइवे पर पड़ने वाले गाँव बानपुरी की दुकान में लगे साइनबोर्ड का ज़िक्र किया है, जिसमें लिखा है-‘आइए अपनी खबरें यहां जमा कराइए. खबरों के कारोबार से लोग अलग-अलग वजह से जुड़े हैं. इनमें ऐसे लोग हैं, जो तपस्या की तरह कष्ट सहते हुए खबरों को एकत्र करके भेजते हैं. नक्सली खौफ, सामंतों की नाराज़गी, और पुलिस की हिकारत जैसी विपरीत परिस्थितियों का सामना करके खबरें भेजने वाले पत्रकार हैं. और ऐसे भी हैं, जो टैक्सी चलाते हैं, रास्ते में कोई सरकारी मुलाजिम परेशान न करे इसलिए प्रेस का कार्ड जेब में रखते हैं. ऐसे भी हैं जो पत्रकारिता की आड़ में वसूली, ब्लैकमेलिंग और दूसरे अपराधों को चलाते हैं.
बहरहाल रॉबिन जेफ्री की ट्रेन यात्रा के इक्कीस साल बाद आज कहानी काफी बदली हुई है. मोरल पुलिसिंग, खाप पंचायतों, जातीय भेदभावों के किस्से बदस्तूर हैं, पर प्रतिरोधी ताकतें भी खड़ी हुई हैं, जो इस नई पत्रकारिता की देन हैं. लोगों ने मीडिया की ताकत को पहचाना और अपनी ताकत को भी. मीडिया और राजनीति के लिहाज से पिछले चार साल गर्द-गुबार से भरे गुजरे हैं. इस दौरान तमाम नए चैनल खुले और बंद हुए. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका को लेकर कई तरह के सवाल खड़े हुए. खासतौर से अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान यह बात भी कही गई कि भ्रष्ट-व्यवस्था में मीडिया की भूमिका भी है. लोग मीडिया से उम्मीद करते हैं कि वह जनता की ओर से व्यवस्था से लड़ेगा. पर मीडिया व्यवस्था का हिस्सा है और कारोबार भी.  

नवम्बर 2012 में गौरी भोंसले नामक लड़की से जुड़ी एक खबर ने पाठकों को कुछ समय के लिए परेशानी में डाला था. दुर्भाग्य से मीडिया ने इस खबर को लेकर विमर्श नहीं बढ़ाया, पर इसकी बुनियाद में कुछ जरूरी तत्व छिपे थे. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मूलतः मनोरंजन का मीडिया है, खबर का नहीं. वहाँ खबर और विज्ञापन का भेद नहीं है. गौरी भोंसले वाली खबर के लपेटे में कुछ बड़े अखबार भी आ गए थे. अक्तूबर 2011 के अंतिम सप्ताह में एक विज्ञापन छपा. इसमें गौरी भोंसले नामक लड़की के लंदन से लापता होने की जानकारी दी गई थी. विज्ञापन देखने से ही पता लग जाता था कि यह किसी चीज़ की पब्लिसिटी के लिए है. इस सूचना की क्लिप्स लगभग खबर के अंदाज़ में एक चैनल में आ रहीं थीं. पर वह खबर नहीं विज्ञापन था. विज्ञापन को खबर के फॉर्मेट में देना मार्केटिंग रणनीति थी.

अचानक 31 अक्टूबर को दिल्ली के कुछ अखबारों ने खबर छापी कि वह लड़की उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के एक गाँव से बरामद की गई है. अगले रोज़ यानी 1 नवम्बर को तीनों अखबारों ने बताया कि लड़की मिली तो है, पर वह नहीं है.  उसने अपना नाम यही बताया था. इस खबर से कई सवाल पैदा हुए. क्या यह पब्लिसिटी के लिए हुआ? या उस लड़की ने बचने के लिए गाँव वालों को अपना नाम गौरी भोंसले बता दिया? या कोई और बात थी. इसके बाद एक अखबार ने इनवेस्टिगेशन किया और पता लगा कि यह तो सीरियल की पब्लिसिटी के लिए था.  टीवी के खबरचियों को अपनी साख को लेकर फिक्र नहीं, चार सौ साल में बनी साख को खत्म करने पर उतारू प्रिंट मीडिया भी टीवी के रास्ते पर जाता नज़र आता है तब परेशानी होती है.

मई 2010 में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम आने के बाद एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल ने पंजाब की एक सफल प्रतियोगी संदीप कौर से बात प्रसारित की. संदीप कौर के पिता चौथी श्रेणी के कर्मचारी थे. यह सफलता बेटी की लगन और पिता के समर्थन की प्रेरणादायक कहानी थी. जिस इलाके में स्त्री-पुरुष अनुपात बहुत खराब है और जहाँ से बालिका भ्रूण हत्या की खबरें बहुत ज्यादा आती हैं,  वहां संदीप कौर ने समाज के सामने नया आदर्श पेश किया. संदीप कौर ने यह परीक्षा बगैर किसी कोचिंग के पास की. उसने कहा, मेरी तैयारी का सबसे महत्वपूर्ण तत्व था दैनिक अखबार ‘द हिन्दू’ को नियमित रूप से पढ़ना. संदीप के पिता या चचेरा भाई घर से करीब 20 किमी दूर खरड़ कस्बे से अख़बार खरीद कर लाते थे. रोज़ अखबार नहीं मिलता था, तो अखबार का एजेंट उसके लिए दो-तीन दिन का अखबार अपने पास रखता था.

दिल्ली के व्यापारी सुभाष अग्रवाल को हाल में दिल्ली सरकार ने जानकारी पाने के अधिकार के सिलसिले में सलाह देने के लिए विशेष नियुक्ति दी है. आरटीआई से जुड़े सबसे सक्रिय कार्यकर्ताओं में से वे एक हैं. वे अब तक 6000 से पर आरटीआई प्रार्थना पत्र दाखिल कर चुके हैं. सन 2006 में उनका नाम गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल किया गया. यह उपलब्धि दुनिया में सम्पादक के नाम सबसे ज्यादा पत्र लिखने के कारण हासिल हुई थी. जनवरी 2006 तक उनके 3699 पत्र विभिन्न अखबारों में छप चुके थे. सुभाष अग्रवाल का पहला पत्र सन 1967 में दिल्ली के एक हिंदी दैनिक में छपा था. संयोग से उनकी पत्नी मधु अग्रवाल का नाम भी गिनीज़ बुक में है. सन 2004 में उनके लिखे 447 पत्र विभिन्न अखबारों में छपे थे. इसी तरह कुछ समय पहले आरटीआई कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल को ‘टू सर्किल्स डॉट नेट’ ने ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ का खिताब दिया. जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र रहे अफरोज दिल्ली में सक्रिय पत्रकार हैं और आरटीआई से जुड़ी खबरों पर काम कर रहे हैं. लोकतंत्र के ऐसे तमाम सेनानी हमारे अखबारों की देन हैं.  

अख़बार हमारे पाठक का विश्वकोश है. वह पाठक ज़मीन से आसमान तक की बातों को जानना चाहता है, हम उसे फैशन परेड की तस्वीरें, पार्टियां, मस्ती वगैरह पेश कर रहे हैं. एक जमाना था जब पाठकों के लिए अख़बार में छपा पत्थर की लकीर होता था. पाठक का गहरा भरोसा अपने अख़बार पर है. उसका इतिहास ज्ञान, सांस्कृतिक समझ और जीवन दर्शन गढ़ने में हमारी भूमिका है. कई किस्म के अंतर्विरोधों ने हमें घेरा है, पर यह भूमिका कायम रहेगी.




1 comment:

  1. बहुत सुन्दर जिस अखबार में धार नहीं आग नहीं वह कागज़ के छपे टुकड़े से ज्यादा नहीं ...
    बहुत बढ़िया
    स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामना सहित आपको सार्थक सामयिक लेखन हेतु बधाई

    ReplyDelete