नरेंद्र मोदी
सरकार ने हालांकि अपनी राजनयिक मुहिम अपने पड़ोसी देशों के साथ शुरू की है, पर
उसकी असली परीक्षा अब शुरू हो रही है। अमेरिकी विदेश मंत्रि जॉन कैरी ने शुक्रवार
को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। इसके एक दिन पहले भारत-अमेरिका
पांचवीं रणनीतिक वार्ता के तहत विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मुलाकात की थी। मोदी
के प्रधानमंत्री बनने के पहले ही अमेरिकी सरकार ने उनसे सम्पर्क कर लिया था। इस
चक्कर में अमेरिकी राजदूत नैंसी पॉवेल को इस्तीफा भी देना पड़ा। कहीं बदमज़गी थी
भी तो वह खत्म हो चुकी है। अमेरिका ने मोदी के और मोदी ने अमेरिका के महत्व को
स्वीकार कर लिया है। जॉन कैरी ने भारत यात्रा शुरू करने के पहले 'सबका साथ सबका
विकास' दृष्टिकोण का हिंदी में स्वागत करके माहौल को खुशनुमा बना
दिया था।
वॉशिंगटन और
दिल्ली में एकसाथ जारी किए गए भारत-अमेरिका संयुक्त वक्तव्य में लश्करे तैयबा को
अल-कायदा जैसा खतरनाक बताया गया और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की
स्थायी सदस्यता का समर्थन किया गया। दोनों देशों के बीच यों तो सहमतियों के बिंदु
असहमतियों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं। पर इधर डब्ल्यूटीओ पर असहमति ज्यादा बड़ा
मुद्दा बनी है। कैरी की यात्रा के बाद भी वह असहमति बनी हुई है। इधर सुषमा स्वराज
ने अमेरिका द्वारा भारतीय नेताओं की जासूसी का मुद्दा उठाया और कहा कि मित्रता में
यह स्वीकार नहीं किया जाएगा।
अमेरिका से खबर
निकली थी कि वहाँ की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने भारतीय जनता पार्टी की जासूसी की
थी और इस एजेंसी को अमेरिका की कोर्ट ने इजाजत दी थी। बहरहाल ये बातें अभी भीतर ही
हैं। अलबत्ता इस मुद्दे पर हुए कैरी ने कहा कि वह गुप्तचर एजेंसी की बातों पर
सार्वजनिक मंच पर चर्चा नहीं करते हैं, जैसा कि अन्य
देशों में भी होता है। उन्होंने कहा कि हम वह सब करेंगे जिससे दोनों देशों के बीच
बेहतर गुप्तचर सूचना का आदान-प्रदान संभव हो।
वास्तविक रिश्ते
बैकरूम बातचीत से निपटाए जाते हैं। कुछ महीने पहले तक हमें देवयानी खोब्रागड़े और
मोदी का वीज़ा दोनों देशों के रिश्ते के महत्वपूर्ण बिंदु लगते थे। पर अब मोदी के
वीज़ा के बाबत पूछे गए सवाल के जवाब में कैरी ने कहा, वह फैसला हमारा
नहीं था, जैसे भारत में सरकारें बदलती हैं वैसे ही अमेरिका में भी
सरकारें बदलती हैं। सच यह है कि अमेरिका की ओर से रिश्तों में तेज पहल हुई है। जॉन
कैरी और वाणिज्य मंत्री पेनी प्रिट्जकर के दौरे के दस दिन बाद ही अमेरिकी रक्षा
मंत्री चक हैगल आ रहे हैं। एक ज़माना था जब कुछ समय के
लिए भारत में अमेरिका का नियमित राजदूत नहीं था और पाकिस्तान स्थित राजदूत यहाँ का
काम भी देखता था। पाँच-पाँच साल तक वहाँ से कोई मंत्री भारत की यात्रा पर नहीं आता
था। अब साल भर आते रहते हैं। अब तक पाँच अमेरिकी राष्ट्रपति भारत यात्रा पर आए
हैं, इनमें से चार की यात्राएं हाल के वर्षों में हुई हैं। हाल के वर्षों में
हमारे जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ रिश्ते भी सुधरे हैं, जो प्रशांत क्षेत्र में
अमेरिका के महत्वपूर्ण सहयोगी हैं।
दोनों देशों के
रिश्ते बेहद जटिल बुनियाद पर खड़े हैं। जुलाई 2005 में अमेरिका के साथ हुए सामरिक
समझौते के बाद रिश्तों में गुणात्मक बदलाव आया है। न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड टॉवर
पर अल-कायदा के हमले के बाद से आतंकवाद को लेकर अमेरिकी दृष्टि बदली है। दूसरी और बदलती
आर्थिक संरचना तथा व्यापारिक परिप्रेक्ष्य में भारत की स्थिति में भी भारी बदलाव
आया है। अगले 10 से 15 साल के बीच अमेरिका की सकल अर्थ-व्यवस्था के मुकाबले चीन की
अर्थ-व्यवस्था दुनिया की नम्बर एक अर्थ-व्यवस्था होने जा रही है। और उसके 10 से 15
साल बाद भारत की अर्थ-व्यवस्था चीनी अर्थ-व्यवस्था से बड़ी हो जाएगी और वह दुनिया
की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था होगी। इसका मतलब यह भी नहीं कि भारत और चीन
तकनीकी-वैज्ञानिक लिहाज से अमेरिका के बराबर आ जाएंगे। यह भी सम्भव नहीं कि हमारी
प्रति व्यक्ति आय अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय के बराबर या बेहतर हो जाएगी।
हम न तो अमेरिका
की उपेक्षा कर सकते हैं, न चीन, जापान, रूस और ब्राज़ील से दूरी बना सकते हैं। हमारे
राष्ट्रीय हित दिल्ली में सरकार बदल जाने के बाद बदलेंगे नहीं, केवल तौर-तरीका
बदलेगा। पर यह भी सही है कि अंतरराष्ट्रीय रिश्तों और खासतौर से रक्षा समझौतों के
पीछे राजनीतिक दृष्टि काम करती है। सन 1950 के दशक में, जवाहर लाल नेहरू
ने ब्रिटेन, अमेरिका और फ्रांस के साथ रक्षा सौदों को अंजाम देने में
राजनीतिक चयन का विकल्प अपनाया। साठ के दशक में नेहरू-इंदिरा का तत्कालीन सोवियत
संघ की ओर झुकाव भी राजनीतिक निर्णय था। नरसिंह राव ने इसरायल के साथ रिश्ते बनाए।
माना जाता है कि
अमेरिका के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने में मनमोहन सिंह की भूमिका थी, पर इसकी पहल
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने की थी। समझौता मनमोहन सरकार ने किया। यह राजनयिक
निरंतरता है। सवाल है कि यह निरंतरता विश्व-व्यापार संगठन से जुड़े मामले में
टूटती नजर क्यों आती है? जॉन कैरी की
यात्रा के दौरान ही भारत ने बाली पैकेज को वीटो किया है। क्या अब अमेरिका हमारे
खिलाफ सुपर या स्पेशल 301 कानूनों के तहत कार्रवाई करेगा? उम्मीद है कि अगले कुछ समय में इसका रास्ता निकलेगा।
सन 2010 से दोनों
देशों के बीच रणनीतिक-संवाद की परम्परा शुरू हुई है। इस संवाद में आर्थिक और
व्यापारिक मसले भी शामिल हैं। यह संवाद कैरी की इस यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण
कार्यक्रम था। भारत और अमेरिका के बीच रक्षा, आतंकवाद-विरोधी
मोर्चा, तकनीकी और वैज्ञानिक सहयोग और पूँजी निवेश महत्वपूर्ण मसले हैं। दक्षिण
एशिया में पाकिस्तान और अफगानिस्तान चिंता के दो बड़े मसले हैं। इधर भारत और
अमेरिका की नौसेनाओं के बीच मालाबार नाम से होने वाले युद्धाभ्यास में इस बार
जापानी नौसेना भी शामिल थी। यह युद्धाभ्यास इस बार प्रशांत महासागर में चीन की नाक
के नीचे हुआ। अमेरिका के साथ रिश्तों का एक बड़ा पहलू चीन है। अमेरिका और चीन
आर्थिक रूप से साझेदार हैं, पर सामरिक दृष्टि से चीन अमेरिका के लिए बड़ी चुनौती
है। हमें भी, चीन के बरक्स दोस्तों की दरकार है, पर चीन हमारा व्यापारिक
सहयोगी भी है। आने वाले समय में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होगा। पर
इसमें दो राय नहीं कि भारत और अमेरिका के दोस्ताना रिश्ते दौर की हॉट न्यूज है और
यह हॉट रहेगी।
हरिभूमि में प्रकाशित
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