पिछले हफ्ते यूक्रेन में मलेशिया एयरलाइंस के
विमान को मार गिराया न गया होता तो फलस्तीन की ग़ज़ा पट्टी पर इसरायली हमले ज्यादा
बड़ी खबर थी। संयोग से जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स सम्मेलन
में भाग लेने गए थे, उसी समय दोनों घटनाएं चर्चा में आईं। इस दौरान संसद का बजट
अधिवेशन चल रहा है। स्वाभाविक रूप से विपक्ष सरकार को अर्दब में लेना चाहेगा।
इसरायली कार्रवाई पर सरकार की चुप्पी से विपक्ष को एक मौका मिला भी है। विदेश
मंत्री सुषमा स्वराज ने राज्यसभा के सभापति से अनुरोध किया था कि वे इस विषय पर
चर्चा न कराएं क्योंकि हमारे दोनों पक्षों के साथ अच्छे रिश्ते हैं और इस सिलसिले
में की गई कोई भी असंतुलित टिप्पणी रिश्तों पर असर डाल सकती है। बहरहाल सभापति को
विपक्ष की माँग में कोई दोष नज़र नहीं आया और अंततः सरकार ने इस पर चर्चा को
स्वीकार कर लिया, जो सोमवार को होगी। यह चर्चा नियम 176 के तहत होगी, जिसमें
वोटिंग नहीं होगी, इसलिए इसका राजनीतिक निहितार्थ नहीं है। अलबत्ता यह देखना रोचक
होगा कि कांग्रेस पार्टी का रुख इस मामले पर क्या होगा। उसका उद्देश्य केवल भाजपा
पर हमले करना है या वह इसरायल के बाबत भी कुछ कहेगी?
कांग्रेस पार्टी अपने मुस्लिम वोट बैंक के कारण
इस मामले में भाजपा को अर्दब में दिखाना चाहती है, पर सच यह है कि विदेश नीति और
खासतौर से इस मामले में भी यूपीए और एनडीए सरकार की नीतियों में किसी किस्म का
बुनियादी अंतर नहीं मिलेगा। भारत सरकार दोनों पक्षों में से किसी के खिलाफ या किसी
के पक्ष में नहीं बोलेगी। और लगता नहीं कि कांग्रेस पार्टी भी किसी एक पक्ष के साथ
जाएगी। ग़ज़ा पट्टी पर इसरायली हमलों और नागरिकों की मौत पर दुःख जताया जा सकता है, पर इतना ही कहा जा सकता है कि दोनों पक्ष बैठकर बातचीत से मामले को निपटाएं। इसे
याद रखा जाना चाहिए कि सन 1992 में भारत कांग्रेस सरकार ने ही इसरायल के साथ
राजनयिक संबंध बनाए थे। और इस वक्त वह भारत का महत्वपूर्ण सहयोगी है।
हालांकि इस मामले में कांग्रेस की ओर से कोई
औपचारिक बात नहीं कही गई है, पर पूर्व केंद्रीय मंत्री मणि शंकर अय्यर ने भाजपा की
विदेश नीति पर कुछ टिप्पणियाँ की हैं। उन्होंने कहा है कि हमने इसरायल के साथ अपने
राजनयिक संबंध तभी बहाल किए, जब यासर अरफात ने पीवी नरसिम्हा राव को गोपनीय
ढंग से सूचना भेजी कि ऑस्लो में चल रही गुप्त बातचीत में इसरायल फलस्तीन को देश के
तौर पर स्वीकृति दे रहा है। सन 1993 में हुए ऑस्लो समझौते के पहले अमेरिका ने
फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र गैर-सदस्य पर्यवेक्षक देश के रूप में स्वीकार कर लिया
था। सन 1994 में फलस्तीन राष्ट्रीय प्राधिकरण बना। मूलतः यह पाँच साल के लिए
अंतरिम व्यवस्था थी, जिसे अंततः पूर्ण देश के रूप में तैयार होना था। पर इस बीच
फलस्तीनियों के अंतर्विरोध उभर कर सामने आए। एक जमाने तक यासर अरफात का गुट ही
फलस्तीनियों का लगभग सर्वमान्य गुट था। उसने ही इसरायलियों के साथ समझौता किया था।
पर प्रकारांतर से हमस नामक आक्रामक गुट बड़ी तेजी से उभर कर आया, जिसने फतह गुट पर
इसरायल से साठगांठ का आरोप लगाया।
आज जॉर्डन नदी का पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र फतह
के नियंत्रण में है और ग़ज़ा पट्टी पर हमस का कब्जा है। फलस्तीनी प्राधिकरण की
सरकार केवल पश्चिमी किनारे तक सीमित है। सन 2006 में फलस्तीनी संसद के और सन 2008
में राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए थे। तब से स्थिति जस की तस है। फलस्तीन को पूरे
देश का दर्जा देने की प्रक्रिया रुकी हुई है। औपचारिक रूप से महमूद अब्बास फलस्तीन
के राष्ट्रपति हैं, पर उनपर एक तरफ से हमस और दूसरी तरफ से इसरायल के हमले होते
हैं। इस वजह से फलस्तीन का मध्यमार्गी तबका कमजोर हो गया है। इसके साथ ही फलस्तीनी
अथॉरिटी में जबर्दस्त भ्रष्टाचार है। उधर ग़ज़ा पट्टी में जीवन अराजक है। वहाँ हमस का
नियंत्रण है। हमस के पास न तो पैसा है और न राजनीतिक समझदारी। वह हथियारों और
लड़ाई में यकीन करता है। मिस्र और गज़ा की सीमा को मिस्र ने बंद कर रखा है। ऐसा न
किया जाए तो हमस की संस्कृति मिस्र में भी पहुँच जाए। अपने राजनीतिक संकटों के
बावजूद मिस्र अब भी फलस्तीनियों और इसरायलियों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाता
है।
युद्ध की यह नौबत तब आई है जब इस साल अप्रैल
में फलस्तीनियों के दोनों गुटों के बीच एकता का समझौता हो गया था। हमस और फतह
अस्थायी एकता सरकार गठित करने और चुनाव कराने की सहमति पर पहुंच गए थे और दोनों पक्षों
ने दशकों पुरानी रंजिश खत्म करने की घोषणा की थी। यह सहमति भी मिस्र की सदारत हुई थी।
बैठक में तय हुआ था कि सीमित जनादेश के साथ अस्थायी सरकार बनेगी, चुनाव की तारीख तय होगी।
मिस्र इसके बाद सभी फलस्तीनी गुटों की काहिरा में एक बैठक बुलाएगा जिसमें सुलह
समझौते पर हस्ताक्षर किए जाएंगे। महमूद अब्बास की इस कोशिश को इसरायल ने पसंद नहीं
किया। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू आक्रोश के साथ कहा कि अब्बास इसरायल के साथ
शांति या हमस से दोस्ती में से किसी एक को चुनें। नेतन्याहू यह भी कहा कि इस प्रकार के समझौते से हमस के लिए
पश्चिमी तट पर भी नियंत्रण स्थापित करने का रास्ता साफ होगा जहां फलस्तीनी
प्राधिकरण का मुख्यालय है। इसरायल से बाद में लड़ेंगे, पहले आपस में लड़ना तो बंद करें।
हमस और फतह के अंतर्विरोधों के साथ अब इसरायली
रुख पर निर्भर करेगा कि इस इलाके में शांति किस रूप में और कब तक के लिए स्थापित
होगी। इसरायल चाहता है कि फतह गुट ग़ज़ा में सुरक्षा की जिम्मेदारी ले, जहाँ से हमस
रॉकेट के वार करता है। एक बार को स्थिति नियंत्रण में हो तो पूर्ण फलस्तीन की
स्थापना पर आगे बातचीत की जाए। फतह ने इसरायल को और इसरायल ने फलस्तीन को स्वीकार
कर लिया है। जरूरी है कि इस विचार को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाया जाए। भारत
की दिलचस्पी भी इस इलाके की शांति में है। हाल में यह मसला तीन इसरायली नौजवानों
के अपहरण और फिर हत्या तथा जवाब में इसरायली कट्टरपंथियों द्वारा एक फलस्तीनी को
जलाकर मार डालने के बाद से भड़का है। इस प्रकार की घटनाएं पहले भी होती रहीं हैं।
पर हम स्थायी शांति के पक्ष में हैं। राज्यसभा में सोमवार को चर्चा का रुख भी
सकारात्मक होना चाहिए। ऐसे मामलों को लेकर राजनीति की रोटी सेकना आत्मघाती है। इस
वक्त पश्चिम एशिया में तनाव है। इराक में बगावत है। अफगानिस्तान में राष्ट्रपति
चुनाव को लेकर टकराव है। अमेरिकी सेना की वापसी की घड़ी आ रही है। ऐसे में हमें
अपने राष्ट्रीय हित देखने होंगे, छोटे राजनीतिक स्वार्थ नहीं। हाँ सरकार को भी चुप्पी
तोड़नी चाहिए। जो कहना है वह कहे।
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बेचारी कांग्रेस के पास अब ये ही रास्ता रह गया है , वह खुद को मुस्लिम झंडाबरदार बन अपना वोट बैंक बनाने की जुगत में है , जो किसी से छिपा नहीं पर अब भारतीय बहुसंख्यक वर्ग भी यह मान गया है कि कांग्रेस एक अल्पसंख्यक पार्टी बन गयी है , अन्यथा संसद का इतने दिन का समय बर्बाद कर इस बहस से उसे क्या मिला ?बाकि जिस वोट बैंक की वह सोच रही है ,उसमें कोई इजाफा होने वाला नहीं
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