मार्च 2010 में बंगाल की खाड़ी में एक छोटा सा
द्वीप समुद्र में डूब गया। ऐसा जलवायु परिवर्तन और समुद्र की सतह में बदलाव के
कारण हुआ. यह द्वीप सन 1971 में हरियाभंगा नदी के मुहाने पर उभर कर आया था. यह नदी
दोनों देशों की सीमा बनाती है, इसलिए इस द्वीप के स्वामित्व को लेकर विवाद खड़ा हो
गया. यह विवाद अपनी जगह था, पर इसके प्रकटन और लोपन से इस बात पर रोशनी पड़ती है
कि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री सीमा को लेकर कई तरह के
विवाद खड़े हो सकते हैं. नदियों की जलधारा अपना रास्ता बदलती रहती है. ऐसे में
हमें पहले से ऐसी व्यवस्थाएं करनी होंगी कि मार्ग बदलने पर क्या करें.
पिछले हफ्ते भारत और बांग्लादेश के बीच तकरीबन
चार दशक से चला आ रहा समुद्री सीमा विवाद खत्म हो जाने के बाद इस बात पर रोशनी
पड़ी है कि इस क्षेत्र में आर्थिक विकास के लिए विवादों का निपटारा कितना जरूरी
है. संयुक्त राष्ट्र के हेग स्थित न्यायाधिकरण ने विवादित क्षेत्र का लगभग 80 फीसदी हिस्सा बांग्लादेश को देने का फैसला
किया है. तकरीबन 25,000 वर्ग किलोमीटर के विवादित समुद्री क्षेत्र में से तकरीबन
20,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर ट्रायब्यूनल ने बांग्लादेश का क्षेत्राधिकार
स्वीकार किया है. खुशी की बात है कि दोनों देशों ने इस निपटारे को न केवल स्वीकार
किया है, बल्कि दोनों देशों के लिए इसे ‘लूज़-लूज़’ के बजाय ’विन-विन’ स्थिति माना है. आमतौर पर ऐसे फैसलों के बाद इस बात पर
टीका-टिप्पणी होती है कि किसकी हार हुई और किसकी जीत. पर दुनिया के सोचने-समझने का
तरीका बदल रहा है. इन मसलों को नाक की लड़ाई मानने के बजाय उन भावी सम्भावनाओं के
बारे में सोचना चाहिए, जो हमारे लिए सकारात्मक होंगी.
बांग्लादेश के विदेश मंत्री अबुल हसन महमूद अली ने कहा,
"यह दोस्ती की जीत है. यह
भारत और बांग्लादेश दोनों के ही लिए जीत जैसी स्थिति है." भारत और बांग्लादेश
के बीच तीन दशकों से चले आ रहे इस लंबे विवाद के चलते दोनों ही देशों के आर्थिक
विकास पर असर पड़ा है. भारत ने भी फैसले का स्वागत किया है. भारत के नए
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले से ही बांग्लादेश के साथ संबंध बेहतर करने पर जोर
देते आए हैं. भारत के विदेश मंत्रालय से जारी बयान में कहा गया, "समुद्री सीमा के विवाद का निबटारा दोनों देशों
के बीच आपसी समझ और सद्भावना को बढ़ावा देगा."
संयोग से इस फैसले पर भारतीय मीडिया ने ज्यादा
ध्यान नहीं दिया, पर बांग्लादेश के मीडिया ने इसे लेकर अच्छी टिप्पणियाँ की हैं.
हमारे मीडिया ने अपनी सरकार के इस बयान पर भी गौर नहीं किया कि इस फैसले से बंगाल
की खाड़ी में आर्थिक विकास के रास्ते खुले हैं जिससे दोनों देशों को फायदा होगा. इसीलिए
इस निपटारे से ज्यादा बड़ी खबर है दोनों देशों की सरकारों द्वारा इसका स्वागत
करना. इसके पहले सन 2012 में बांग्लादेश और म्यांमार के बीच भी इसी प्रकार का क
निपटारा हुआ था. अब स्थिति यह है कि बंगाल की खाड़ी से जुड़े तीनों देश सागर के
आर्थिक दोहन के लिए मिलकर काम कर सकेंगे. इस इलाके के मछुआरों के लिए यह राहत भरी
खबर है, क्योंकि वे अब अपनी सीमाओं को जानते हैं.
हालांकि अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण ने
विवादास्पद क्षेत्र में से बांग्लादेश की 80 फीसदी जल क्षेत्र पर सम्प्रभुता को
स्वीकार किया है, पर भारत के लिए भी कुछ महत्वपूर्ण बातें इस निपटारे में हैं.
सबसे महत्वपूर्ण है न्यू मूर द्वीप या दक्षिण तलपट्टी पर भारत की सम्प्रभुता और
हरियाभंगा नदी तक भारत की सहवर्ती या कॉनकमिटेंट पहुँच को स्वीकार करना. सन 2006
में भारत ने इस इलाके में लगभग 100 ट्रिलियन घन फुट प्राकृतिक गैस होने का पता
लगाया था. माना जाता है कि यहाँ का गैस भंडार कृष्णा कावेरी बेसिन में उपलब्ध गैस का लगभग दुगना है. अब यहाँ तेल और गैस
की खोज का काम बेहतर तरीके से हो सकेगा. इसमें भारत-बांग्लादेश और म्यांमार तीनों मिलकर
काम कर सकेंगे. इन विवादों के कारण इस इलाके में तेल खोजने का काम रुका हुआ था.
देशी-विदेशी कम्पनियाँ यहाँ काम नहीं कर पा रहीं थीं. एक प्रकार से यह फैसला
दक्षिण चीन सागर में चीन, वियतनाम, फिलीपाइंस और अन्य देशों के लिए एक बेहतर
उदाहरण है. वे अपने विवादों का निपटारा इस तरह से करने में सफल हों तो उसके बाद
सागर क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पदा का दोहन करने में वे सफल होंगे.
सीमा-विवादों और प्राकृतिक साधनों के बँटवारे
में संधियों-समझौतों और मध्यस्थों की भूमिका महत्वपूर्ण साबित होती है. दोनों
पक्षों को पहले निपटारे की सहमति बनानी होती है, फिर मध्यस्थों की भूमिका को
स्वीकार करना होता है. भारत-बांग्लादेश समुद्री सीमा विवाद द्विपक्षीय वार्ता से
सुलझ नहीं पाया था. इसी तरह भारत और पाकिस्तान के बीच विश्व बैंक की पहल पर 19
सितंबर 1960 को सिंधु नदी के पानी के बँटवारे का समझौता हुआ था. इस समझौते में
अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की व्यवस्था है. किसी भी एक पक्ष की आपत्ति होने पर
मध्यस्थता की जाती है. हाल में बगलिहार बाँध को लेकर दोनों देशों ने मध्यस्थता को
स्वीकार किया. भारत की पाकिस्तान, नेपाल, चीन, बांग्लादेश और म्यांमार के साथ सीमा
मिलती है और कहीं न कहीं विवाद हैं. इन्हें दूर करने की प्रक्रिया को बढ़ाया जाना
चाहिए.
हाल के वर्षों में भारत ने मालदीव, श्रीलंका,
म्यांमार, थाईलैंड और इंडोनेशिया के साथ सीमा पुनरांकन किए हैं. दक्षिण में भारत,
श्रीलंका और मालदीव ने त्रिपक्षीय समुद्री सहयोग का काम किया है. इसमें मॉरिशस और
सेशेल्स के जुड़ने की संभावना भी है. भारत-पाकिस्तान ने कच्छ के रण को लेकर खड़े
हुए विवाद का निपटारा अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के तहत किया. श्रीलंका के साथ
कच्चातिवू विवाद का निपटारा भी हमने किया. विवादों के निपटने के बाद सरकारों के
हाथ मजबूत हो जाते हैं और आर्थिक सहयोग के रास्ते खुलते हैं. यदि ऐसा नहीं होता तो
इलाका अंतरराष्ट्रीय ताकतों को हस्तक्षेप का निमंत्रण देता है.
हिंद महासागर क्षेत्र में चीन अपने पाँव पसार
रहा है। उसने अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए मैरीटाइम सिल्करूट की योजना बनाई
है. इसके तहत वह बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में अपना रास्ता बना रहा है. उसने
इसमें भारत को शामिल करने की इच्छा भी जताई है. पर इसके सामरिक निहितार्थ भी हैं.
हमें इसपर बारीकी से विचार करना होगा. हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत पर अंग्रेजों
का आधिपत्य समुद्र मार्ग से ही स्थापित हुआ था. इसी तरह हमें नहीं भुलाना चाहिए कि
तेरहवीं से पन्द्रहवीं सदी तक चीन के मिंग साम्राज्य ने दक्षिण भारत तक सात बड़े
अभियान दल भेजे थे. 63 पोतों पर 28,000 चीनी सैनिक कालीकट तक आए थे. चीनी सेना
श्रीलंका के राजा को पकड़कर अपने साथ ले गई थी. हमें नहीं भूलना चाहिए कि पहले
विश्वयुद्ध में जर्मन पोत एम्बडेन ने मद्रास शहर पर बमबारी की थी और दूसरे
विश्वयुद्ध में जापानी पोतों ने अंडमान-निकोबार पर धावा बोला था. सन 1971 में
अमेरिका का सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी तक आ गया था. बहरहाल समुद्र में सहयोग की
संभावनाएं हैं तो अंदेशे भी. हमें हरेक बात को गम्भीरता से लेना चाहिए.
प्रभात खबर में प्रकाशित
thank you for making us aware of this important development
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