लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी जातीय आरक्षण पर
विचार करने की बात कहकर एक नई बहस को जन्म देने की कोशिश की थी। चूंकि कांग्रेस ने
द्विवेदी के बयान को सिरे से खारिज कर
दिया इसलिए बात आई-गई हो गई। लेकिन जातीय आरक्षण का सवाल देश की राजनीति से अलग
नहीं हो पाएगा। हजारों साल का सामाजिक अन्याय सबसे प्रमुख कारण है। पर उससे बड़ा
कारण है राजनीतिक यथार्थ। चुनाव के ठीक पहले जाटों को पिछड़ी जातियों की केंद्रीय
सूची में शामिल करने का फैसला शुद्ध रूप से राजनीतिक है। इसका असर उत्तर भारत के
उन राज्यों पर पड़ेगा जहाँ जाट आबादी की महत्वपूर्ण भूमिका है। इन राज्यों में तकरीबन
नौ करोड़ जाट रहते हैं। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से जाट आबादी का रुझान भारतीय जनता
पार्टी की ओरहुआ है। उसे रोकने की यह कोशिश है। जाट समुदाय की गिनती बड़े या मध्यम
दर्जे के संपन्न किसानों के रूप में होती है। उनके वोट तकरीबन 100 लोकसभा सीटों पर
बड़े स्तर पर या आंशिक रूप से असर डाल सकते हैं। और यह बात सबसे महत्वपूर्ण है। हालांकि
उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात है कि इस फैसले को लागू करने में अभी काफी कानूनी
अड़चनें हैं। क्या जाट समुदाय इस बात को नहीं समझता है?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई इलाकों में जाट समुदाय की
बेहतर उपस्थिति है। मूलतः यह मेहनती खेतिहर समुदाय है। खेती पर आधारित समाज का
आधुनिकीकरण या पश्चिमीकरण अपेक्षाकृत धीमे होता है। सरकारी सेवाओं और शहरी जीवन
में उनकी उपस्थिति कम है। उच्च शिक्षा के मामले में भी उनकी स्थिति पिछड़े वर्ग
जैसी ही है। नब्बे के दशक में राजनीति के मंडलीकरण के बाद से जाटों के बीच भी
आरक्षण को हासिल करने की चेतना जागी। राजस्थान, हरियाणा और
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तकरीबन दो दशक से जाट आरक्षण के लिए आंदोलन चल रहा है।
बहरहाल केंद्रीय कैबिनेट के इस फैसले के बाद जाट समुदाय को केंद्रीय पिछड़ा वर्ग
आयोग की सूची में शामिल कर लिया जाएगा और उन्हें भी वे फायदे मिलने लगेंगे, जो देश में
पिछड़े वर्ग को मिलते हैं। इस फैसले का टाइमिंग बताता है कि दिलचस्पी का विषय
सामाजिक न्याय नहीं, राजनीतिक लाभ है। सरकार ने यह फैसलाराष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग
आयोग की सिफारिशों की अनदेखी करके किया है। इसका विरोध वे जातियाँ करेंगी, जिनके
लाभ का हिस्सा जाट समुदाय को मिलेगा। शायद इसके खिलाफ कोई अदालत भी जाए। हाल के
वर्षों में अदालतों का रुख यह रहा है कि पिछड़ेपन का फैसला करने के पहले उसके पक्ष
में पर्याप्त डेटा होना चाहिए। बेहतर हो कि हम जातीय आधार पर सामाजिक अध्ययनों को
बढ़ाएं।
बेशक सरकार की नजर सामाजिक न्याय से ज्यादा राजनीतिक फायदे पर है। पर क्या यह
आरक्षण वास्तव में जाटों को मिल पाएगा?और क्या जाट
कांग्रेस को वोट देने के लिए लाइन लगा देंगे? सरकार ने उत्तर
प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए केंद्र सरकार की
नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अल्पसंख्यक आरक्षण की घोषणा की थी, लेकिन वह फैसला लागू
नहीं हो पाया। वह मसला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।विडंबना है कि विधायिका में
महिला आरक्षण को देश की राजनीति इतने लम्बे अरसे से रोके पड़ी है। हाल में राहुल
गांधी का ध्यान इस तरफ गया। ऐसा लगता है कि महिलाओं के वोटों ने महत्वपूर्ण जगह
बना ली है। देश की राजनीति और वोटर का मिजाज जिस तेजी से बदल रहा है और युवाओं और
महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। उसे देखते हुए भ्रम होता है कि शायद जातीय प्रश्न
पीछे चले जाएंगे। ऐसा मानना भी जल्दबाजी होगी। नए वोटरों में सबसे बड़ी तादाद दलितों
और पिछड़ी जातियों के युवाओं की है। खासतौर से दलित जातियों के युवा ने शिक्षा के
महत्व को समझा है। उसे समझ में आता है कि केवल शिक्षा ही उसके जीवन में बदलाव ला
सकती है। पर जिन समुदायों के जीवन का आधार खेती और जमीन है, उनकी सहज रुचि शिक्षा
में नहीं है। इसीलिए उनकी दिलचस्पी सरकारी सेवाओं में भी नहीं है। यह साजिश है या
सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ? कुछ लोग जमीन
बेचकर शिक्षा हासिल कर रहे हैं और कुछ लोग जमीन खरीद कर शिक्षा से दूर जा रहे हैं।
सच यह है कि हमारे पास सामाजिक अध्ययन के लिए पर्याप्त डेटा भी नहीं है।
देश की नवीनतम जनगणना से नए डेटा की आशा है। इसबार हमारी जनगणना में नागरिकों
का रजिस्टर और पहचान संख्या बनाने की बात है। देश की बहुरंगी तस्वीर की झलक हमें
अपनी जनगणना से मिलती है। साथ ही विकास के लिए आवश्यक सूचनाएं भी हमें मिलतीं हैं।
इसबार कम से 15पैरामीटरों का डेटा एकत्र किया गया। जनगणना में सन 1931 तक जातियों की
संख्या भी गिनी जाती थी। वह बंद कर दी गई। सन 2001 की जनगणना के
पहले यह माँग उठी कि हमें जातियों की संख्या की गिनती भी करनी चाहिए। वह माँग नहीं
मानी गई। सन 2009 में तमिलनाडु की पार्टी पीएम के ने सुप्रीम कोर्ट में अपील
की कि जनगणना में जातियों को भी शामिल किया जाए। यह अपील नहीं मानी गई। अदालत के
विचार से यह नीतिगत मामला है, और सरकार को इसे तय करना चाहिए। जब हम जाति के
आधार पर राजनीतिक फैसले करते हैं तो जातीय डेटा तैयार करने से भागते क्यों हैं?जातिवाद या जाति-चेतना अपनी जगह है और वह
जनगणना कराने से बढ़ नहीं जाएगी और न कराने मात्र से खत्म नहीं होगी। मोटे तौर पर
माना जाता है कि देश मे 24-25 प्रतिशत अजा-जजा, 25 प्रतिशत सवर्ण
और लगभग 50 प्रतिशत ओबीसी हैं। बेहतर है कि जो भी तस्वीर है उसे सामने
आने दीजिए। जातीय आरक्षण के जो सवाल हैं, उनमें संख्या बुनियादी तत्व
नहीं है। दूसरी ओर जो लोग सोचते हैं कि सारे भारतीय एक जैसे हैं और उनमें भारतीयता
की चेतना है तो वे हवा में सोच रहे हैं। सच यह है कि देश का भविष्य उन जातियों के
विकास पर निर्भर करेगा जो अतीत में वंचित रहीं।
भारतीय संविधान धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग या
जन्मस्थान के आधार पर व्यक्ति के साथ भेदभाव न होने देने के लिए कृत संकल्प है।
संविधान के 14 से 18 अनुच्छेद समानता
पर केन्द्रित हैं। जातीय आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था की ज़रूरत तब पड़ी
जब मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दुरईराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी आदेश को
रद्द कर दिया। इसके बाद संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई। इस
धारा में समानता के सिद्धांत के अपवाद के रूप में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को या अनुसूचित जातियों
और जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं।
संविधान में संशोधन करते वक्त अजा-जजा का नाम साफ लिखा गया। साथ ही अनुच्छेद 366(24)(25)
के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में अजा-जजा की परिभाषा
भी कर दी गई। सामाजिक और शैक्षिक रूप से
पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं की गई। इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका
कालेलकर आयोग और 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए।
दोनों आयोगों की रपटों में पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार जाति है। पर संविधान की
शब्दावली में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों का उल्लेख अपेक्षाकृत जाति-निरपेक्ष
है। इसमें जाति शब्द से बचा गया है। हालांकि तबसे ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति
एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। पर केवल मात्र जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं है।
अदालतों की भावना यह है कि जाति भी नागरिकों का एक वर्ग है, जो समूचा सामाजिक
और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हो सकता है।
जाति का अस्तित्व है। उसका नाम और सामाजिक पहचान है, इसलिए उससे
शुरूआत की जा सकती है। कई जगह गाँव का निवासी होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी
होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। पर जाति का सवाल कानूनी सवाल नहीं है। अदालतों
में जाति से जुड़े तमाम मसले पड़े हैं और अभी और मसले जाएंगे। अदालतों का काम
संवैधानिक व्यवस्था देखना है। हमारी व्यवस्था में सार्वजनिक हित देखने की
ज़िम्मेदारी विधायिका की है। इसलिए यह मसला राजनीतिक दलों के पास है।
जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक
सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा रहेगा। पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई
हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा। इस दृष्टि से मलाईदार परत की अवधारणा बनी है। संसद
और कार्यपालिका का यह दायित्व है कि मलाईदार परत को अलग करे।अब जरूरत इस बात की
होगी कि जाति-आधारित बेस डेटा मिले। किस जाति के लोग कहाँ पर और किस संख्या में हैं।
उनके शैक्षिक और आर्थिक स्तर का पता भी लगेगा। उनके लैंगिक अनुपात की जानकारी।
मीडिया और राजनीतिक दलों को किसी खास चुनाव क्षेत्र की जातीय संरचना के लिए राजनीतिक
पार्टियों का मुंह जोहना न पड़े। आमतौर पर हर राजनीतिक दल के पास इलाके के जातीय
आँकड़े होते हैं। क्यों न ये आँकड़े सरकारी स्तर पर तैयार किए जाएं। बहुत सी जातीय
पहचानों और उनके नेताओं की जमात भी खड़ी होगी। अजा-जजा और ओबीसी में अनेक जातियों
के लोगों के अपने नेता नहीं हैं। इससे कोई सामाजिक टकराव नहीं होगा। यह वास्तविकता
है, जो सरकारी आँकड़ों में भी आ जाएगी।
ऊँच-नीच का हल तो शहरी जीवन से हो जाएगा, पर जातीय पहचान
अलग चीज़ है। वह इतनी आसानी से खत्म नहीं होगी। फिर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था
में जाति एक औपचारिक रूप ले रही है। कुछ खास पार्टियाँ, जाति विशेष का प्रतिनिधित्व
करतीं हैं। उत्तर में भी और दक्षिण में भी। यदि ब्राह्मणों की एक, क्षत्रियों की एक,
वैश्यों की एक और ओबीसी की एक पार्टी बन पाती तो शायद राजनीति की नब्ज़ को
समझा जा सकता था। ऐसा नहीं है। दलितों की सिर्फ एक पार्टी नहीं है। बीजेपी को लोग
हिन्दू सवर्णों की पार्टी मानते हैं, पर उसमें ओबीसी सांसदों, विधायकों
की संख्या बड़ी है। हमें इन बातों से भागना नहीं चाहिए। समझना चाहिए।
आगामी लोकसभा चुनाव में करीब 80 करोड़ मतदाता चुनाव में शिरकत करने जा रहे हैं।
इनमें करीब 47 फीसदी वोटर युवा हैं। इस चुनाव के बाद सन 2019 में 17वीं लोकसभा के चुनाव
में युवा वोटरों की संख्या 60 फीसदी हो जाएगी। यदि 18 से 23 साल की उम्र के युवाओं
को देखें तो ये कुल मतदाताओं के 20 फीसदी हैं। उत्तर प्रदेश में 51 प्रतिशत आबादी
युवा वोटरों की है। बिहार और राजस्थान में 50-50 फीसदी युवा वोटर हैं। पांच साल बाद
ये आंकड़े 65 से 70 फीसदी तक पहुंचेंगे। इन्हीं राज्यों में जातीय राजनीति
प्रभावशाली है। इसका मतलब क्या यह माना जाए कि यह चुनाव जातिगत राजनीति को धक्का
पहुँचाएगा? फिलहाल कांग्रेस
ने जातीय तुरुप का इस्तेमाल किया है। यह तुरुप कारगर हो या न हो हमें जातीय-राजनीति
को गम्भीरता से समझने की कोशिश करनी चाहिए। इससे भागना नहीं चाहिए।
No comments:
Post a Comment