Sunday, March 9, 2014

असली तीसरा मोर्चा है ममता, जया और माया का ‘मजमा’

ममता बनर्जी ने पिछले महीने कहीं कहा था कि राजनीति में फिलहाल पोस्ट पेडका ज़माना है प्री पेड का नहीं। लोकसभा के इस चुनाव को लेकर यह बात काफी हद तक सही लगती है। फिर भी पिछले महीने 25 फरवरी को प्रकाश करात ने अपनी प्री पेड स्कीम की घोषणा करते हुए तीसरा मोर्चा बनाया, तभी समझ में आ गया था कि इसमें लोचा है। बताया गया कि 11 दल इस मोर्चे में शामिल हैं। सपा सुप्रीमो मुलायम बोले कि इन पार्टियों की संख्या 15 तक हो जाएगी। शरद यादव के शब्दों में यह तीसरा नहीं पहला मोर्चा है। जिस वक्त यह घोषणा की गई उस वक्त प्रकाश करात, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव,नीतीश कुमार, एबी बर्धन और एचडी देवेगौड़ा मौजूद थे। करात ने बताया कि कुछ जरूरी वजहों से असम गण परिषद और बीजेडी के अध्यक्ष इस बैठक में शामिल नहीं हो सके, लेकिन वे तीसरे मोर्चे के साथ हैं। जयललिता भी इस बैठक में नहीं थीं।


इस घोषणा के ठीक बारह दिन बाद जे जयललिता ने मोर्चे की हवा निकाल दी। शायद इसी अंदेशे में कई नेता तीसरे मोर्चे की घोषणा करने से कतरा रहे थे। पर नेताओं का एक वर्ग ऐसा था जो तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद मोर्चा बना लेना चाहता था। अब इस मोर्चे के तीन मुख्य सूत्रधार बचे हैं। प्रकाश करात, मुलायम और नीतीश। सच यह है कि ममता, माया और जया की राजनीतिक ताकत समूचे तीसरे मोर्चे से ज्यादा है। और भविष्य की राजनीति में इन तीन का संख्याबल ही बढ़ता दिखाई पड़ता है। वाम, सपा और जेडीयू खतरे के निशान पर हैं। पानी इनकी नाक के पास है। बीजद और अगप को अलग कर दें तो तीसरा मोर्चा बनने के पहले बिखर गया है।

देश की राजनीति में एनडीए और यूपीए के बाद तीसरी ताकत को खोजें तो वह किसी एक गठबंधन के रूप में नजर नहीं आती। आम आदमी पार्टी के बारे में अब भी कुछ नहीं कहा जा सकता। गो कि उसके रणनीतिकार मानते हैं कि तीसरी ताकत के रूप में आप उभरेगी। उसके दिल्ली अभियान ने उसे राष्ट्रीय मंच दे तो दिया, पर उसे अलोकप्रियता भी दी, जिसे उसके कर्णधार देख नहीं पा रहे हैं। बहरहाल ममता, जया और माया का मजमा तीसरी ताकत बनता नजर आ रहा है। तीनों महिलाओं का अपनी पार्टियों पर पूर्ण नियंत्रण है। हालांकि अतीत में तीनों की भूमिका जबर्दस्त उतार-चढ़ाव वाली रही है, पर केवल यही मोर्चा ऐसा है जो यूपीए और एनडीए दोनों में से किसी के साथ सहयोग कर सकता है। वाम, सपा और जेडीयू के विकल्प सीमित हैं। वे ज्यादा से ज्यादा यूपीए से गठजोड़ कर सकते हैं। तीनों के संख्याबल में गिरावट का अंदेशा है। यूपीए तो संकट के कगार पर है ही। पिछले महीने जब तीसरे मोर्चे की घोषणा की गई थी, तब लगा कि ममता बनर्जी अलग-थलग पड़ गईं हैं। अब लगता है कि तुरुप का पत्ता ममता और जया के पास है।

तीसरे मोर्चे की अवधारणा पुरानी है, पर जब-जब यह बना विफल हुआ। इसका कारण है क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा। इस बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के सन 2012 के चुनाव में सफलता से उत्साहित मुलायम सिंह ने इस सम्भावित मोर्चे की भूमिका बनानी शुरू कर दी थी। इसके पहले इसी किस्म की सफलता ममता बनर्जी और जयललिता को अपने-अपने राज्यों में मिली थी। पर तब ममता यूपीए के साथ थीं। बावजूद इसके वे केंद्र-राज्य सम्बन्धों को लेकर संघीय मोर्चे की अवधारणा पर काम कर रहीं थीं। एनसीटीसी और बीएसएफ-सीआरपीएफ के अधिकारों को लेकर उन्होंने अपनी संवेदनशीलता का बार-बार परिचय दिया। पिछले दो साल से सुनाई पड़ रहा है कि यह क्षेत्रीय दलों का दौर है और ये दल लोकसभा चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

तीसरे मोर्चे की कल्पना निरर्थक और निराधार नहीं है। देश की सांस्कृतिक बहुलता और सुगठित संघीय व्यवस्था की रचना के लिए इसकी ज़रूरत है। पर राजनीतिक कर्णधार चुनाव में उतरने के पहले एक सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम लेकर नहीं आना चाहते। सन 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले वाम मोर्चे ने बसपा, बीजद, तेदेपा, अद्रमुक, जेडीएस, हजकां, पीएमके और एमडीएमके के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील मोर्चा बनायाचुनाव से पहले इस मोर्चे के सदस्यों की संख्या 102 थी जो चुनाव के बाद 80 रह गई। पन्द्रहवीं लोकसभा में इस मोर्चे ने राजनीतिक धरातल पर कोई महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा नहीं की। बसपा ने यूपीए का साथ दिया। तेदेपा अब भाजपा के सम्पर्क में है। समाजवादी पार्टी बाहरी तौर पर कितना भी शोर मचाए पर सरकार को उसका व्यवहारिक समर्थन जारी रहा।

चुनाव के गणित को देखते हुए क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण साबित होगी। यह मोर्चा चुनाव से पहले बनाने पर तभी लाभकारी होगा जब एक दल का वोट दूसरे दल को मिले। साथ ही यह गारंटी हो कि चुनाव के बाद भी बना रहेगा। हाँ मोर्चे का आभास देकर ऐसा माहौल बनाया जा सकता है कि कोई नई ताकत उभरने वाली है। इसका केवल प्रचारात्मक महत्व है। चुनाव के बाद यदि कोई दबाव समूह मिलकर काम करे तो वह सत्ता में भागीदारी कर सकता है। सवाल है कि क्या तीसरे मोर्चे के नेतृत्व में सरकार बनेगी? गणित को देखें तो तीसरे मोर्चे के दल इतनी सीटों पर चुनाव ही नहीं लड़ने वाले हैं कि सरकार बनाने के बारे में सोचें। उनकी जीत की सर्वश्रेष्ठ सम्भावना 50-60 सीटों से ज्यादा की नहीं है। इनसे ज्यादा सीटें ममता, जया और माया को मिलेंगी। यदि इन दोनों मोर्चों की सीटें 200 के आसपास हो जाएं तब कहें कि क्षेत्रीय दलों की सरकार बन सकती है। वह भी यूपीए या एनडीए के सहयोग के बगैर सम्भव नहीं होगा।  

एनडीए या यूपीए में से किसी की सरकार बने तो भी उसे बाहरी मोर्चे की मदद लेनी होगी। इस स्थिति में भी यह महिला मोर्चा ज्यादा प्रभावशाली होगा। इसके पास ज्यादा सीटें होंगी। इसे मोर्चा कहना जल्दबाजी होगी। पर जिस तरह से जयललिता ने तीसरा मोर्चा छोड़कर ममता बनर्जी से बात की है उससे इतना समझ में आता है कि उनके बीच कोई समझदारी विकसित हुई है। जयललिता जाने-अनजाने ममता विरोधी सीपीएम के पाले में चली गईं थीं। उन्होंने देर से ही सही हाथ खींच लिए। नवीन पटनायक की पार्टी मूलतः कांग्रेस विरोधी है। उसके लिए यूपीए को समर्थन देना दिक्कत तलब होगा। वह भी चुनाव परिणामों का इंतजार करेगी। फिलहाल ममता बनर्जी ने जो पहलकदमी की है उसपर नजर रखनी चाहिए।

हरिभूमि में प्रकाशित

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