Sunday, March 16, 2014

आप चाहेंगे तो सब बदलेगा

इस राज़ को एक मर्दे फिरंगी ने किया फाश/हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते/जम्हूरियत एक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें/बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते
चुनावी लोकतंत्र को लेकर हमारे समाज में हमेशा अचम्भे और अविश्वास का भाव रहा है। इकबाल की ये मशहूर पंक्तियाँ लोकतंत्र की गुणवत्ता पर चोट करती हैं। पर सच यह है कि खराबियाँ समाज की हैं, बदनाम लोकतंत्र होता है। सन 2009 की बात है किसी आपराधिक मामले में गिरफ्तार हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी का वक्तव्य अखबारों में प्रकाशित हुआ। उनका कहना था, मैं राजनीति में आना चाहता हूँ। उनकी माँ को यकीन  था कि बेटा राजनीति में आकर मंत्री बनेगा। जौनपुर या उसके आसपास के इलाके से वे जीत भी सकते हैं।


मुन्ना बजरंगी ही नहीं तमाम लोग राजनीति में आना चाहते हैं। लोकतांत्रिक दुनिया में एक नया कीर्तिमान स्थापित करने वाले मधु कोड़ा अपनी पार्टी के अकेले विधायक थे। फिर भी मुख्यमंत्री बने। उन्होंने लोकतंत्र को क्या दिया?जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा है, 'दुनिया जिसे राजनीति के नाम से जानती है वह केवल भ्रष्टाचार है और कुछ नहीं।' सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के इंग्लैंड में स्विफ्ट अपने दौर के श्रेष्ठ पैम्फलेटीयर थे। उन्होंने उस दौर की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियों टोरी और ह्विग के लिए पर्चे लिखे थे। वे श्रेष्ठ व्यंग्य लेखक थे। अखबारों में सम्पादकीय लेखन के सूत्रधार। कहा जा सकता है कि दुनिया के पहले सम्पादकीय लेखक थे। पर राजनीति के बारे में उनकी इतनी खराब राय क्यों थी?

कुछ साल पहले की बात है फिल्म अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी ने एक इंटरव्यू में कहा, मेरी राजनीति में दिलचस्पी नहीं। मुझे राजनीति पसंद नहीं। अक्सर हम अपने आप को पाक-साफ साबित करने के लिए कहते हैं कि मुझे राजनीति पसंद नहीं। इस मनोवृत्ति ने राजनीति को अपशब्द है बना दिया है। सच यह है कि राजनीति के बगैर हमारा काम नहीं चल सकता। सामाजिक जीवन के लिए राज-व्यवस्था महत्वपूर्ण है। राजनीति को गालियाँ देने के बजाय इसमें शामिल होने की ज़रूरत है। उसे अनीति का पर्याय मानने के बजाय सुनीति में बदलना हमारा काम है।

राजनीति यदि वास्तविकता है तो उसे ठीक भी करें। इस सिलसिले में दो काम होने चाहिए। बच्चों को बेहतर नागरिक बनाइए। स्कूलों से घर तक। इसका मतलब नागरिक शास्त्र रटाना नहीं। व्यावहारिक राजनीति को समझना है। बच्चों को अपने फैसले लोकतांत्रिक तरीके से करने की ट्रेनिंग मिलनी चाहिए। दूसरा काम है निचले स्तर के राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तैयार करना। यह कार्यकर्ता अपने मोहल्ले में होने वाली रामलीला, होली-दीवाली, ईद-बकरीद, खुशी और गम हर जगह मौजूद होता है। विडंबना है कि लोकतंत्र के ध्वजवाहक राजनीतिक दलों के अंदरूनी लोकतंत्र का हाल खस्ता है। ऊपर के नेता नीचे के कार्यकर्ता को जानते ही नहीं। राजनेताओं की इस एलिटिस्ट समझ ने उन्हें जनता से काट दिया है।

हाल में आम आदमी पार्टी को लेकर जनता के मन में हमदर्दी जागी थी। सामान्य जन को लगा कि ये लोग हमारे जैसे हैं। पर आम आदमी पार्टी की छत पर भी पैराट्रुपर उतर गए। राजनेता ने जनता के मन को समझना बंद कर दिया है। पर यह सब चलेगा नहीं। जनता की भागीदारी बढ़ रही है। कुछ लोगों को लगता है कि कोई वैकल्पिक या अच्छे लोगों की राजनीति सामने आनी चाहिए। व्यावहारिक सच यह है कि अच्छे लोगों को प्रभावशाली बनने के लिए नीचे से ऊपर तक समान समझ चाहिए। कोई व्यक्ति या उसका विचार तब तक अच्छा साबित नहीं होता जब तक वह कुछ बदल कर न दिखा दे। जरूरी नहीं कि हमारे पास किसी पश्चिमी देश का मॉडल हो।

जोनाथन स्विफ्ट की राय उस दौर की है जब लोकतंत्र अपने शुरुआती दौर में था। तब से अब तक इंग्लैंड की राजनीति ने बदलाव के कई दौर देखे हैं। राजनीति के माने हैं अंतर्विरोधी हितों के बीच संगति बैठाना या निपटारा कराना। राज-व्यवस्था को कई तरह के परस्पर विरोधी विचारों को साथ लेकर चलना होता है। खासतौर से हर समाज में माफिया प्रवृत्तियाँ सर उठाती हैं। वे तभी परास्त होंगी जब जनता की सामूहिक ताकत जागेगी। पर उस ताकत के लिए भी आर्थिक विकास चाहिए। हमारी समस्या गरीबी है और उससे जुड़ी अशिक्षा भी। व्यवस्था को समझने वाली जनता भी होनी चाहिए। देश की आबादी का काफी बड़ा हिस्सा गरीबी और बदहाली से घिरा है। उसकी जानकारी का स्तर वह है ही नहीं कि वह इस भूल-भुलैया से बाहर निकलने का रास्ता जानती हो। वैसे ही जैसे फिल्म मदर इंडिया के सुक्खी लाला के चोपड़े गाँव वाले नहीं पढ़ पाते थे।पर एक नई जनता उभर कर आ रही है। मुख्यधारा की राजनीति उसके आने की आहट तो सुन रही है, पर अपने तौर-तरीके नहीं बदल पा रही है।

राजनीति कितनी भी गरीब नवाज हो रास्ते पर उसे मध्य वर्ग ही रखता है, क्योंकि वही उसके सारे लटके-झटके जानता है। यह दोतरफा काम है। बदलाव एक क्रमिक व्यवस्था है, जिसके लिए संस्थाएं भी चाहिए। चुनाव व्यवस्था भी एक संस्थागत व्यवस्था है। यह तेज बदलाव नहीं लाती, पर लाती है।फटेहालों और वंचितों का सहारा यही राजनीति है। वह कितनी ही पाखंडी हो उसे जनता के पास जाना ही होता है। पर जनता को भी राजनीति से जुड़ना चाहिए। उसके पास सवाल हैं तो उन्हें पूछा जाना भी चाहिए। कार्ल मार्क्स के शब्दों में, हर बात पर सवाल करो। बेशक राजनीति में भ्रष्टाचार है, पर सदाचार भी वहाँ है। समाज का श्रेष्ठतम और निकृष्टतम सब राजनीति में है। 

प्रभात खबर पॉलिटिक्स में प्रकाशित


1 comment:

  1. लोकतंत्र अपने सारे संभावित रूप देख रहा है।

    ReplyDelete