पिछले कुछ साल से लोक सभा और विधान सभा चुनावों में एक नया चलन
देखने को मिल रहा है. चुनाव सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए नेताओं के भाषण के पहले लड़कियों
का नाच कराया जाता है. इन लड़कियों को अब बार गर्ल्स कहा जाने लगा है. पुराने नामों
के मुकाबले हालांकि यह शालीन नाम है, पर यह नाच हमारी संस्कृति के पाखंड की परतों में
छिपा है. कौन मजबूर करता है इन्हें नाचने के लिए? और
फिर कौन उनपर फब्तियाँ कसता है? कौन उन्हें धिक्कारता है और कौन
उनपर पाबंदियाँ लगाता है? किसने रोका है उन्हें सम्मानित नागरिक
बनने से?
सुप्रीम कोर्ट ने बार डांसरों के अधिकार को बरकरार रखते हुए
महाराष्ट्र सरकार की याचिका भले खारिज कर दी, पर कहना मुश्किल है कि डांस बार शुरू
हो पाएंगे. जैसा कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री आरआर पाटील ने कहा है कि हम इसके बाद अदालत
जाने या कानून में बदलाव करने के बारे में विचार करेंगे. सरकार इन लड़कियों की इस बात
से सहमत नहीं है कि उन्हें अपनी आजीविका का अधिकार है. इसके विपरीत वह बारों के बंद
होने के कारण लगभग 75,000 बार डांसरों के पुनर्वास के लिए भी कुछ करने को तैयार नहीं
है. बेशक इन लड़कियों का नाचना उनके लिए भी दिक्कत तलब था. अश्लील इशारे, फब्तियाँ
और दुर्व्यवहार इसमें भी था. पर यह सब उन्हें तब भी मर्यादित लगता था. सरकार कहती है
कि लाइसेंस 345 थे और बार चलते थे इससे कई गुना ज्यादा. पर यह गलती किसकी थी? सच यह है कि पाबंदी लगने के बाद बड़ी संख्या में लड़कियों को वेश्यावृत्ति
अपनानी पड़ी, जिससे बचाने का दावा किया जा रहा था. और जिसके लिए डांस बार बंद किए गए.
संविधान के अनुच्छेद 19(ए) के अनुसार व्यक्ति को आजीविका का
अधिकार है. पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस अनुच्छेद के तहत आजीविका के सवाल
को छुआ नहीं है. बार डांसरों ने दलील दी थी कि पुलिस का आदेश उनके प्रति भेदभावपूर्ण
होने के अलावा आजीविका कमाने के उनके अधिकार का हनन है. उन्होंने यह दलील भी दी थी
कि वह आजीविका चलाने के लिए नृत्य के अलावा कोई दूसरा हुनर नहीं जानतीं. पर संविधान
में मौलिक अधिकारों के साथ उनपर पाबंदियाँ भी हैं. अश्लीलता और वेश्यावृत्ति को बढ़ावा
देने वाली आजीविका भी सांविधानिक नहीं है. इसे परिभाषित करना भी आसान नहीं. बार गर्ल्स
आम तौर पर हिन्दी फिल्मों के गीतों पर डांस करती रहीं हैं. उनका डांस कितना अश्लील
या कितना शालीन होता है इसे लेकर मतभेद हैं. और ऐसे डांस मुम्बई के डांस बार में ही
नहीं होते थे. ये गाँव-गाँव में होते रहे हैं. पर इन्हें हम उस आधुनिक संस्कृति से
जोड़ते हैं, जो मुम्बई, पुणे, बेंगलुरु और दिल्ली की रेव पार्टियों में प्रकट हो रही
है. हैरत इस बात पर है कि यह पाबंदी तीन सितारा या उससे ऊपर के होटलों पर नहीं है.
यानी कि समाज के प्रवर वर्ग के मनोरंजन के मानदंड अलग हैं.
पिछले इतवार को दिल्ली के पास गुड़गाँव में 14-15 साल के सौ
से ज्यादा लड़के-लड़कियाँ ऐसी ही रेव पार्टी में पकड़े गए. इस अपसंस्कृति के बुनियादी
कारणों पर जाए बगैर इसका समाधान सम्भव नहीं है. मुम्बई में शराब पीने पर पाबंदी लगाने
वाला सन 1949 का एक कानून लागू होता है. पुलिस को जब किसी को धरना होता है, तब वह इस
कानून का सहारा लेती है. बार डांसरों पर पाबंदी की माँग करने वाले काफी राजनेताओं का
रिश्ता महाराष्ट्र के चीनी उद्योग से है, जो परोक्ष रूप से शराब उद्योग से जुड़ता है.
यह राजनीति किस कदर अनैतिकताओं से लिपटी है, इसे कौन नहीं जानता? तब वह चीथड़ा हो चुकी नैतिकताओं के पीछे क्यों पड़ी है?
मुम्बई में शराब, जुए, सेक्स और माफिया की संस्कृति कैसे विकसित
हो गई? एक जमाने में यहाँ मद्य निषेध था. फिर इसकी
जगह परमिट व्यवस्था आई. धीरे-धीरे इस व्यवस्था के साथ दूसरी रंग-रेलियाँ आईं. हर तरह
के अपराधों का मसला यहाँ मौजूद है. डांस बार की संस्कृति भी मुम्बई की ईजाद है. अंग्रेजी
का यह शब्द अमेरिका से नहीं आया है. 1985-86 में यहाँ 24 डांस बार थे. सन 2000 के आसपास
इनकी तादाद 200 से ऊपर हो गई. मुम्बई से रेस्त्रां चलाने के लिए 30 से 40 लाइसेंस लेने
होते हैं. पुलिस संरक्षण और हफ्ता वगैरह ऊपर से. 21 जुलाई 2005 को जब लम्बी बहस के
बाद विधान सभा ने जब आम राय से डांस बार पर पाबंदी लगाने का फैसला किया उस समय 345
लाइसेंसी डांस बार थे। गैर लाइसेंसी डांस बारों की संख्या 1500 से 2500 के बीच बताई
जाती है.
मुम्बई में डांस करने वाली अधिकतर लड़कियाँ बाहर से आती हैं.
एक तो परम्परागत परिवार हैं जिनमें नाच-गाने का पेशा होता है। फिर गरीब घरों की लड़कियाँ
हैं, जो किसी वजह से बेआसरा हो जाती हैं. मुम्बई में डांस बार खुलने से उन्हें अपेक्षाकृत
सम्मानित काम मिलने लगा. बड़ी संख्या में लड़कियाँ केवल नाचकर अपने परिवार की आजीविका
चलाने लगीं. वेश्यावृत्ति तब भी थी और अब भी है, पर उस स्थिति में काफी लड़कियों के
सामने विकल्प था। उनकी जीवन उस गलीज जीवन से बेहतर था, जो बैन लगने के बाद शुरू हुआ.
बार डांस का कारोबार चलने लगा तो सरकार ने लाइसेंसों की दरें बढ़ाकर कमाई बढ़ाई. र
फिर हफ्तेदारों ने कमाई बढ़ाई. सोने की मुर्गी की तरह डांस बार नेताओं, अफसरों और अपराधियों
की आँखों में चढ़ गए। इसके बाद शुरू हुआ इस कारोबार को खत्म करने का सिलसिला.
बार गर्ल्स के हितों के लिए लड़ने वाली वकील फ्लेविया एग्नेस
ने सन 2005 में बार डांस पर पाबंदी लगाते वक्त विधान सभा में हुई बहस का जो विवरण दिया
है उससे पता लगता है कि स्त्रियों के प्रति जन प्रतिनिधियों का दृष्टिकोण किस प्रकार
का है. बहस के दौरान फलानी... एटम बम...फलानी पटाखा...नंगी नाचने वालियों से कोई हमदर्दी
नहीं जैसे जुम्ले हवा में उछले. एक सदस्य ने अपने मित्र की बेटी का विवरण दिया, जिसे
काम नहीं मिल पाया तो उसने आत्महत्या कर ली थी. उन्होंने कहा, बार में डांस करने से
बेहतर है मर जाना. इस बात पर सदन में तालियाँ पिटीं. आम राय थी कि भरत नाट्यम और कथक
को छोड़कर सब कुछ बैन कर दिया जाना चाहिए. लड़कियों के लिए संदेश था कि गरीब घर में
पैदा हुई हो तो बेहतर है मर जाओ. सदन में तमिल, तेलुगू और अंग्रेजी फिल्मों को कोसा
गया, हिन्दी फिल्मों को नहीं. इस पाबंदी के बाद इन लड़कियों के पुनर्वास की बात जब
आई तब मराठी-गैर मराठी का सवाल भी उठा. पाखंड का हर रंग इस कहानी में है.
बार गर्ल्स आधुनिक समाज की देन नहीं हैं. हमारे परम्परागत समाज
से निकली हैं. उन्हें नया परिधान पहनाया गया है. हाल में दिल्ली गैंगरेप के बाद देश
में काफी शोर मचा. कुछ समय की अफरा-तफरी के बाद सब कुछ जस का तस है. स्त्रियों को लेकर
हमारी समझ में खोट है. पवित्रतावादी समझ पाखंडी है. अमीर बच्चों की रेव पार्टियाँ मनोरंजन
का विद्रूप है. दोनों अमीरों की मौज मस्ती की देन हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि बार गर्ल्स
आजीविका के लिए नाचती हैं और अमीर बच्चों की रेव पार्टियाँ उनकी लाइफ स्टाइल है. बार
गर्ल्स के सामने जिंदगी को चलाए रखने की चुनौती है, जिसमें कोई मददगार नहीं. बार में
नाचना उन्हें वेश्यावृत्ति से ज्यादा मर्यादित लगता है. यह काम बंद होने से वेटरों,
खानसामों, दरबानों, बाउंसरों, ड्राइवरों, मेकअप कलाकारों, परिधान सीने वालों और इसी
किस्म के लोगों का धंधा भी खत्म हुआ. एक गलतफहमी पैदा की गई कि यह धंधा सारी समस्याओं
की जड़ है. संस्कृति-रक्षकों को वेश्याओं तक से हमदर्दी है. बार गर्ल्स से नहीं. बेशक
समाधान बार खोलना नहीं है, पर बंद करना भी नहीं. समाधान है उस पाखंड का खात्मा, जो
नैतिकता को घिसकर उसका चंदन लगाता है.
प्रभात खबर में प्रकाशित
WHY WE ARE CRUEL TOWARDS WOMEN????
ReplyDeleteमहिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों को हम कानून (घरेलूं हिंसा, दहेज़ प्रथा, यौन शोषण . . . आदि) बनाकर रोकना चाहते है लेकिन वास्तविकता में सही निवारण तब मिलेगा जब समाज की सोच में परिवर्तन होगा | महिला अधिकारों के नाम पर अपसंस्कृति की शिकार नगरीय महिलाओं के आधार पर पूरे देश के ऊपर कानून थोप देना कहाँ तक उचित है ? ऐसे कानूनों का सदुपयोग कम लेकिन दुरूपयोग अधिक मिलता है |
ReplyDeleteहाल ही में जजों के बीच किये एक सर्वे में ऐसे कई तथ्य उजागर हुए है की उनके पास आने वाले अधिकांश मामले सत्यता से परे व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि, वर्चस्व की स्थापना, स्वच्छंद सोच का हावी होना, कारणों से पूर्ण थे और इसके शिकार बने पुरुषों सहित उस परिवार का जीवन मानसिक प्रताड़ना के चलते दूभर हो गया |
मुम्बई में महिलाओं की स्वच्छंद प्रकृति किसी से छुपी नहीं है फिर उसे आधार बनाकर राष्ट्रीय नीतियों का निर्धारण पूरे देश के हित में होगा ऐसा जरुरी नहीं है |