इस मसले को राजनीतिक दलों ने सबसे पहले अपना मसला बनाया। फिर
मीडिया ने इसमें सनसनी का रस घोला। गरीब बच्चों की असहाय तस्वीरें देखने में आईं। फिर
देखते ही देखते देशभर के मिड डे मील में साँप, छिपकली और चूहे निकलने लगे। ऐसा लगता
है कि मिड डे मील में जहर घोलने की साजिश है। दो दिन की रस्म अदायगी के बाद गाड़ी अगले
मामले की ओर बढ़ गई। असल सवाल जस का तस पड़ा है। सरकार गरीब बच्चों को मिड डे मील दे
रही है। देश के लगभग 65 फीसदी लोगों को अब भोजन की गारंटी दे रही है। पर बुनियादी सवाल
छूट गया है। आखिर बीमारी क्या है? और इलाज क्या है? बीमारी है गरीबी, अज्ञान और कुशासन।
पिछले एक महीने में हमने देश में इंसान को बेहद सस्ती मौत मरते
देखा है। उत्तराखंड में आपदा प्रकृतिक थी, पर इतनी बड़ी संख्या में मौतें कुशासन की
देन थीं। प्राकृति आपदा के साथ अव्यवस्था भी थी। प्रकृति के खिलाफ जाकर व्यवस्थाएं
गढ़ना अव्यवस्था है। इसी तरह बिहार के सारण जिले में मिड डे मील से हुई मौतें दुर्घटना
थी, पर उसमें अव्यवस्था का घालमेल है। देश में गरीबी क्या अशिक्षा के कारण है या अशिक्षा
के कारण गरीबी है और क्या कुशासन हमारी अशिक्षा और गरीबी के कारण है या गरीबी और अशिक्षा
कुशासन के कारण हैं? सवाल के अंदर सवाल हैं और जवाब में तमाम ‘हाँ’ हैं। आप किसी बात पर ना नहीं कह सकते। हर बात दूसरी
बात का कारण है। इसका क्या मतलब हुआ? कि कुछ भी सुधर नहीं सकता।
हमें बेहतरी की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए?
नहीं छोड़नी चाहिए। मिड डे मील एक बिगड़ी हुई व्यवस्था को ठीक
करने की कोशिश है। उसे चलना चाहिए, पर सावधानी के साथ। और यह भी समझना चाहिए कि हर
चीज की कीमत होती है। तीन रुपए ग्यारह पैसे और चार रुपए पैंसठ पैसे रोज पर देश के दस
करोड़ से ज्यादा बच्चों को दिन का भोजन देना आसान नहीं है। खासतौर से उस देश में जहाँ
का प्रधानमंत्री मान चुका हो कि जनता के नाम पर सरकारी खजाने से जाने वाला एक रुपया
अपनी जगह पर पहुँचते-पहुँचते पन्द्रह पैसे रह जाता है। इस धन के लिए देश के कर दाता
एजुकेशन सेस देते हैं, जिससे सन 2011-12 में 27, 461 करोड़ रुपया जमा हुआ था। पहली
कोशिश है कि बच्चे स्कूल जाएं। और वे स्कूल पढ़ने के लिए जाएं, खाने के लिए नहीं। विडंबना
है कि पहली कोशिश ही नाकाम है। दूसरी कोशिश है कि शिक्षा का स्तर सुधरे।
इस साल के शुरू में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही संस्था
‘प्रथम’ की रिपोर्ट ने देश
में शिक्षा के स्तर के बारे में जानकारी दी थी। ‘प्रथम’ ने सभी राज्यों में 6 से 14 साल के बच्चों के बीच सर्वे किया। सर्वे में पाया
गया कि पांचवी क्लास में पढ़ने वाले 52 फीसदी बच्चे दूसरी क्लास की किताबें पढ़ने और
समझने में असमर्थ हैं। रिपोर्ट के मुताबिक तीसरी क्लास में पढ़ने वाले सिर्फ 30 फीसदी
बच्चे ऐसे हैं जो पहली क्लास की किताब पढ़ पा रहे हैं। सरकारी स्कूलो में पांचवी क्लास
में पढ़ने वाले 46 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जो दूसरी क्लास के गणित के सवालों को हल नहीं
कर पाते हैं। बड़ी संख्या में अभिभावकों को इस बात की चिंता ही नहीं है कि उनका बच्चा
पढ़ने जाए। उन्हें नहीं लगता कि उसके पढ़-लिख लेने से कोई बड़ा फर्क पड़ जाएगा। नगरपालिकाओं
और राज्य सरकारों के स्कूलों से उम्मीद थी कि वे गुणात्मक शिक्षा की व्यवस्था करेंगे।
पर ऐसा हुआ नहीं। जो लोग शिक्षा के प्रति जागरूक हैं वे अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों
में भेजना चाहते हैं, भले ही वे अच्छी शिक्षा उपलब्ध न करा पा रहे हों। ‘प्रथम’ की रिपोर्ट के मुताबिक 2006 में प्राइवेट स्कूलों
में दाखिले की दर 18.7 फीसदी थी जो 2012 में बढ़कर 28.3 फीसदी हो गई। अगर इसी तरह का
रुझान जारी रहता है तो 2018 तक 50 फीसदी तक ये आंकड़ा पहुंच जाएगा।
हमारे देश में स्वास्थ्य, आवास, पहनावे और जीवन शैली के मामले
में गरीब और अमीर का फर्क एकदम साफ नजर आता है। बिहार के जिस स्कूल में मिड जे मील
का हादसा हुआ है उसमें पढ़ने वाले अधिकतर बच्चे एक स्तर तक ही बढ़ सकते हैं। खासतौर
से उन परिस्थितियों में जब उन्हें किसी प्रकार का सामाजिक संरक्षण न मिलता हो। हमने
देखा कि इन बच्चों के बीमार पड़ने के बाद किस प्रकार की चिकित्सा सेवा उन्हें मिली।
बड़ी संख्या में बच्चों की मौत ने अचानक मीडिया का ध्यान खींचा। यह डाउन मार्केट खबर
थी, जो केवल सनसनी के कारण परोसी गई थी। अन्यथा मीडिया इस किस्म विषय को कवरेज लायक
मानता ही नहीं। उसे अप मार्केट माल चाहिए।
शिक्षा केवल बेहतर रोजगार के लिए ही नहीं चाहिए। वह बेहतर नागरिक
भी बनाती है। और यदि हमें आर्थिक संवृद्धि (इसे डेवलपमेंट नहीं ग्रोथ पढ़ें) चाहिए
तो अच्छे कामगार भी यही शिक्षा व्यवस्था तैयार करेगी। पर इतनी अवगुणी शिक्षा किस प्रकार
के कामगार देगी? दरअसल देश के करोड़ों परिवार गरीबी के जिस फंदे
में फँसे हैं, उसमें शिक्षा एक बड़ी बाधा है और कुपोषण दूसरी। मिड डे मील का दूसरा
उद्देश्य कुपोषण से लड़ना भी है। अब सरकारें छोटे किशोरों के लिए आयरन और फॉलिक एसिड
की गोलियों के वितरण का कार्यक्रम भी लेकर आई है। दरअसल यह किशोर आबादी के प्रति हमारी
दिलचस्पी को बताता है। यह वह उम्र है जब बच्चों का सम्पूर्ण विकास होता है। इन बच्चों
के बीच तमाम बेहतरीन वैज्ञानिक, शानदार एथलीट, कुशल कारीगर, श्रेष्ठ लेखक और पत्रकार
छिपे हैं।
दुनिया में सबसे बड़ी किशोर आबादी भारत में है। इस लिहाज से
हम सबसे समृद्ध देश हैं, क्योंकि युवा वर्ग ही सबसे उत्पादक होता है। वह तैयार हो जाए
तो देखते ही देखते कहानी बदल सकती है। उधर पता लगा है कि दुनिया के कुल कुपोषित लोगों
का 40 फीसदी हिस्सा भारतीय है। सबसे कम वजनी बच्चे भारत में हैं। हाल में कनाडा के
एक गैर सरकारी संगठन माइक्रोन्यूट्रिएंट इनीशिएटिव के अध्यक्ष और ग्लोबल हेल्थ एक्सपर्ट
एम जी वेंकटेश मन्नार ने बताया कि उभरती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद स्वास्थ्य और
पोषण के मामले में भारत की हालत ब्राजील, नेपाल, बांग्लादेश और चीन जैसे देशों से खराब है। ऐसे कुपोषित बच्चों का प्रतिशत भारत
में पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी ज़्यादा है। केवल भारत में कुपोषित बच्चों की तादाद
6.1 करोड़ के आसपास है।
चीन के बाद भारत सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं
में दूसरे नम्बर है वहाँ सामाजिक वितरण इतना असमान क्यों है? इस सवाल का जवाब आप दे देंगे तो तमाम सवालों के जवाब मिल जाएंगे।
यह मामला गरीबी, स्वास्थ्य, न्याय व्यवस्था के साथ-साथ शिक्षा और जनता की चेतना से
जुड़ा है। जरूरत इस बात की है कि जनता के हाथ में कटोरा नहीं किताब दें। बाकी वह खुद
जानती है। अकबर इलाहाबादी के शब्दों मेः-
चश्मे जहाँ से हालते असली नहीं छुपती/ अखबार में जो चाहिए वो छाप दीजिए
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