खाद्य सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा विधेयक और खाद्य सुरक्षा अध्यादेश एक सिक्के के तीन पहलू हैं। खाद्य सुरक्षा पर सिद्धांततः राष्ट्रीय सवार्नुमति है। किसी पार्टी में हिम्मत नहीं कि वह खुद को जन-विरोधी साबित करे।
कानून बनाने का अधिकार संसद का है, कार्यपालिका का नहीं। सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है कि अध्यादेश आपात स्थिति में ही लाया जाना चाहिए। विपक्ष पूछता है कि इस वक्त क्या आपातकाल है? अकाल पड़ा है? दिल्ली गैंग रेप के बाद सरकार जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के मद्देनजर अध्यादेश लाई थी, पर बाद में संसद में विधेयक लाकर उसे पास कराया गया। अध्यादेश लाने के बावजूद इसे लागू होने में तकरीबन छह महीने लग जाएंगे। तब इसका लाभ क्या है? आम तौर पर मानसून सत्र जुलाई के तीसरे सप्ताह में शुरू होता है और महीने भर चलता है। इस बार अभी कार्यक्रम घोषित ही नहीं हुआ। उम्मीद थी कि खाद्य सुरक्षा पर विचार के लिए विशेष सत्र बुलाया जाएगा, पर वह योजना त्याग दी गई है।
विपक्ष मानता है कि दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव के पहले इसकी घोषणा करके सरकार प्रचारात्मक लाभ लेना चाहती है। तब क्या विपक्ष इस अध्यादेश को यथारूप पास होने देगा? इनमें यूपीए के सहयोगी दल भी हैं। मसलन बसपा, सपा और यहाँ तक कि एनसीपी, राष्ट्रीय लोकदल नेशनल कांफ्रेंस और मुस्लिम लीग ने भी कांग्रेस की आलोचना की है। सवाल यह भी है कि 2011 से संसद में पड़े विधेयक पर बहस करके उसे पास कराने में दिक्कत क्या थी? उस पर स्थायी समिति का सिफारिशें भी प्राप्त हो चुकी हैं। इस समय स्वस्थ बहस हो जाती। पर सरकार ने पहले 22 मार्च को एक नया विधेयक पेश किया और फिर उसे भी छोड़कर अध्यादेश जारी कर दिया। ऐसी हड़बड़ी क्यों?
माकपा नेता वृन्दा करात का कहना है कि सरकार चार साल से सोई थी। अब सत्र शुरू होने के ठीक पहले अध्यादेश लाना संसद की अवमानना और जनता के साथ अन्याय है। माकपा सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली की समर्थक है। यानी प्रत्येक परिवार को 35 किलो अनाज मिले जैसा केरल में है। शहरों में 50 फीसदी और गाँवों में 25 फीसदी व्यक्तियों को इससे बाहर रखने का अर्थ है कि यह योजना अन्यायकारी होगी। इसे लागू करने में दिक्कतें भी होंगी। हम केरल में सबको अनाज दे रहे हैं, अब क्या शहरों के आधे और गाँवों के चौथाई लोगों को देना बंद करेंगे? शहरों में गरीबी बढ़ रही है। गरीब लोग काम के लिए शहरों की ओर जा रहे हैं, उन्हें हम सस्ते अनाज से वंचित करना चाहते हैं। यह सरकारी ढोंग है। पिछले दो साल में छह लाख टन अनाज सड़ गया। उसे सरकार ने जनता को कम दाम पर देने की कोशिश नहीं की। अब वही सरकार चुनाव के मौके पर इसे ‘गेम चेंजर’ मानकर फायदा उठाना चाहती है। जेडीयू के शरद यादव कहते हैं कि चुनावों के भूत ने उन पर कब्जा कर लिया है। मायावती और ममता बनर्जी भी इसे चुनावी स्टंट मानते हैं।
जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, रमन सिंह और शिवराज सिंह इसे केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के लिए अहितकर भी मानते हैं। इस योजना में राज्य सरकारों को न केवल लाभार्थियों की पहचान करनी है, इसके खर्च में हिस्सा भी बँटाना है। इनका कहना है कि केन्द्र सरकार तय करे और खर्च हम करें। नीतीश कुमार कहते हैं आप इसे लागू करना चाहते हैं तो पैसा भी दे दीजिए। तमिलनाडु में हर परिवार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में आता है। जयललिता कहतीं हैं, आप इसमें शामिल परिवारों को सीमित करने जा रहे हैं और राज्य पर 1800 करोड़ रुपए का बोझ और बढ़ाना चाहते हैं। जब केन्द्र सरकार ने सन 2011 में हमसे राय पूछी थी तब हमने बताया था कि हमारे प्रदेश में सार्वभौमिक खाद्य सुरक्षा उपलब्ध है। जयललिता कहती हैं कि सामाजिक सुरक्षा का मसला राज्य सरकारों के अधीन रहना चाहिए। केन्द्र सरकार व्यर्थ में टाँग क्यों अड़ा रही है। केन्द्रीय अध्यादेश के तहत यदि खाद्य सुरक्षा प्रदान नहीं की जा सकेगी तो उसके बदले में खाद्य सुरक्षा भत्ता दिया जाएगा। इसपर जयललिता का कहना है कि फिर खाद्य सुरक्षा रही कहाँ?
पंजाब का अकाली दल और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी इसे किसान विरोधी भी मानती है। मुलायम सिंह यादव का कहना है कि किसान की तीन महत्वपूर्ण फसलें हैं, गेहूँ, धान और गन्ना। सरकार यदि इन चीजों को सस्ते दाम पर बेचेगी तो किसानों से इन्हें कौन खरीदेगा? इस बात का पूरा खतरा है कि यह योजना किसानों के लए संकट पैदा कर देगी। अकाली दल कहता है कि यह अधकचरी व्यवस्था है। पंजाब देश को तकरीबन आधा अनाज देता है, जबकि हमारे यहाँ पूरे देश की आबादी का 1.5 फीसदी हिस्सा ही है। इससे बेहतर हमारी ‘आटा-दाल’ स्कीम है जो हम सन 2007 से चला रहे हैं। आप प्रति व्यक्ति पाँच किलो अनाज देने की योजना बना रहे हैं, जबकि हम 16 लाख परिवारों को 35 किलो गेहूँ और 4 किलो दाल दे रहे हैं। जब हम गरीबों को 5,000 करोड़ रुपए का सब्सिडी देते हैं तो केन्द्र सरकार को दिक्कत होती है। अब खुद दो लाख करोड़ की सब्सिडी की लेकर आ गए हैं।
साठ के दशक में एक दौर ऐसा था जब अनाज और चीनी के लिए देश का काफी बड़ा तबका इस प्रणाली पर आश्रित था। एक पूरी पीढ़ी राशन की कतारों में खड़ी होकर बड़ी हुई है। दक्षिण भारत के राज्यों में यह व्यवस्था आज भी चल रही है, पर उत्तर प्रदेश और बिहार में यह व्यवस्था खत्म हो गई। मध्य प्रदेश अपने नागरिकों को सस्ता अनाज दे रहा है और छत्तीसगढ़ ने अपने नब्बे फीसदी नागरिकों को सस्ता अनाज देने की योजना तैयार की है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और ओडीशा में भी सार्वजनिक वितरण प्रणालियाँ काम कर रहीं हैं। मूल रूप में यूपीए से सम्बद्ध राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने सभी नागरिकों को कवर करने वाली योजना बनाई थी। सरकार ने तब इसके आकलन की जिम्मेदारी एक ओर प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स को दी वहीं सी रंगराजन के नेतृत्व वाली प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाह परिषद को भी दी। दोनों की सलाह थी कि सबके लिए सस्ता अनाज तो सम्भव नहीं है। इसके बाद टार्गेटेड ग्रुपों के लिए योजना बनी। जिन ग्रुपों को इस सुविधा का लाभ दिया जाना है उनकी पहचान राज्य सरकारों को करनी है। सन 2009 में एनसी सक्सेना की अध्यक्षता में बने एक ग्रुप का निष्कर्ष था कि 61 फीसदी गरीब लोग बीपीएल सूचियों से बाहर हैं और जो लोग गरीबी की रेखा के 25 फीसदी लोग बीपीएल सूचियों में शामिल हैं। पहले तो टार्गेटेड ग्रुपों के भीतर भी दो ग्रुप बनाए जा रहे थे, पर अध्यादेश में उन्हें एक कर दिया गया है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य ज्याँ द्रेज़ का कहना है कि इस अध्यादेश में लोगों की शिकायतों की सुनवाई की कोई व्यवस्था नहीं है। यानी किसी को खाद्य सुरक्षा नहीं मिले तो वह किससे शिकायत करेगा? पर जो भी है इसे लागू करने के पहले संसद में बहस करके सुधारा जाना चाहिए। इस जल्दबाज़ी के दुष्परिणामों को लेकर मैं परेशान हूँ। केवल चुनावी फायदे के लिए जल्दबाजी करना ठीक नहीं।
राजनीति से बाहर खड़े लोगों की नजरों में यह धन का दुरुपयोग है। इस पैसे को आधार ढाँचा खड़ा करने, बिजली उत्पादन और नागरिक सुविधाओं को बढ़ाने पर लगाना चाहिए ताकि रोजगार बढ़ें। भूख मिटाने का वही रास्ता है। पर लगता है कि राजनीति जनता के पैसे पर ऐश करने का नाम है।
भले ही अर्थशास्त्रीय दृष्टि कहती हो कि अंततः इसकी कीमत गरीब जनता को चुकानी होगी। पर खाद्य सुरक्षा विधेयक को लेकर गहरी असहमतियाँ हैं। वामपंथी दल चाहते हैं कि खाद्य सुरक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए। सबके लिए समान।
भाजपा बहस चाहती है। अध्यादेश के रास्ते इसे लागू करने का समर्थन किसी ने नहीं किया है। पर क्या विपक्ष इस अध्यादेश को रोकेगा? और रोका तो क्या कांग्रेस को इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा? और क्या विपक्ष इस मामले में कांग्रेस का पर्दाफाश कर पाएगा?
दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक-कल्याण योजना क्या बगैर संसदीय विमर्श के लागू हो जाएगी? कांग्रेस क्या अर्दब में है या विपक्ष एक मास्टर स्ट्रोक में मारा गया?
कानून बनाने का अधिकार संसद का है, कार्यपालिका का नहीं। सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है कि अध्यादेश आपात स्थिति में ही लाया जाना चाहिए। विपक्ष पूछता है कि इस वक्त क्या आपातकाल है? अकाल पड़ा है? दिल्ली गैंग रेप के बाद सरकार जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के मद्देनजर अध्यादेश लाई थी, पर बाद में संसद में विधेयक लाकर उसे पास कराया गया। अध्यादेश लाने के बावजूद इसे लागू होने में तकरीबन छह महीने लग जाएंगे। तब इसका लाभ क्या है? आम तौर पर मानसून सत्र जुलाई के तीसरे सप्ताह में शुरू होता है और महीने भर चलता है। इस बार अभी कार्यक्रम घोषित ही नहीं हुआ। उम्मीद थी कि खाद्य सुरक्षा पर विचार के लिए विशेष सत्र बुलाया जाएगा, पर वह योजना त्याग दी गई है।
विपक्ष मानता है कि दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव के पहले इसकी घोषणा करके सरकार प्रचारात्मक लाभ लेना चाहती है। तब क्या विपक्ष इस अध्यादेश को यथारूप पास होने देगा? इनमें यूपीए के सहयोगी दल भी हैं। मसलन बसपा, सपा और यहाँ तक कि एनसीपी, राष्ट्रीय लोकदल नेशनल कांफ्रेंस और मुस्लिम लीग ने भी कांग्रेस की आलोचना की है। सवाल यह भी है कि 2011 से संसद में पड़े विधेयक पर बहस करके उसे पास कराने में दिक्कत क्या थी? उस पर स्थायी समिति का सिफारिशें भी प्राप्त हो चुकी हैं। इस समय स्वस्थ बहस हो जाती। पर सरकार ने पहले 22 मार्च को एक नया विधेयक पेश किया और फिर उसे भी छोड़कर अध्यादेश जारी कर दिया। ऐसी हड़बड़ी क्यों?
माकपा नेता वृन्दा करात का कहना है कि सरकार चार साल से सोई थी। अब सत्र शुरू होने के ठीक पहले अध्यादेश लाना संसद की अवमानना और जनता के साथ अन्याय है। माकपा सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली की समर्थक है। यानी प्रत्येक परिवार को 35 किलो अनाज मिले जैसा केरल में है। शहरों में 50 फीसदी और गाँवों में 25 फीसदी व्यक्तियों को इससे बाहर रखने का अर्थ है कि यह योजना अन्यायकारी होगी। इसे लागू करने में दिक्कतें भी होंगी। हम केरल में सबको अनाज दे रहे हैं, अब क्या शहरों के आधे और गाँवों के चौथाई लोगों को देना बंद करेंगे? शहरों में गरीबी बढ़ रही है। गरीब लोग काम के लिए शहरों की ओर जा रहे हैं, उन्हें हम सस्ते अनाज से वंचित करना चाहते हैं। यह सरकारी ढोंग है। पिछले दो साल में छह लाख टन अनाज सड़ गया। उसे सरकार ने जनता को कम दाम पर देने की कोशिश नहीं की। अब वही सरकार चुनाव के मौके पर इसे ‘गेम चेंजर’ मानकर फायदा उठाना चाहती है। जेडीयू के शरद यादव कहते हैं कि चुनावों के भूत ने उन पर कब्जा कर लिया है। मायावती और ममता बनर्जी भी इसे चुनावी स्टंट मानते हैं।
जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, रमन सिंह और शिवराज सिंह इसे केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के लिए अहितकर भी मानते हैं। इस योजना में राज्य सरकारों को न केवल लाभार्थियों की पहचान करनी है, इसके खर्च में हिस्सा भी बँटाना है। इनका कहना है कि केन्द्र सरकार तय करे और खर्च हम करें। नीतीश कुमार कहते हैं आप इसे लागू करना चाहते हैं तो पैसा भी दे दीजिए। तमिलनाडु में हर परिवार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में आता है। जयललिता कहतीं हैं, आप इसमें शामिल परिवारों को सीमित करने जा रहे हैं और राज्य पर 1800 करोड़ रुपए का बोझ और बढ़ाना चाहते हैं। जब केन्द्र सरकार ने सन 2011 में हमसे राय पूछी थी तब हमने बताया था कि हमारे प्रदेश में सार्वभौमिक खाद्य सुरक्षा उपलब्ध है। जयललिता कहती हैं कि सामाजिक सुरक्षा का मसला राज्य सरकारों के अधीन रहना चाहिए। केन्द्र सरकार व्यर्थ में टाँग क्यों अड़ा रही है। केन्द्रीय अध्यादेश के तहत यदि खाद्य सुरक्षा प्रदान नहीं की जा सकेगी तो उसके बदले में खाद्य सुरक्षा भत्ता दिया जाएगा। इसपर जयललिता का कहना है कि फिर खाद्य सुरक्षा रही कहाँ?
पंजाब का अकाली दल और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी इसे किसान विरोधी भी मानती है। मुलायम सिंह यादव का कहना है कि किसान की तीन महत्वपूर्ण फसलें हैं, गेहूँ, धान और गन्ना। सरकार यदि इन चीजों को सस्ते दाम पर बेचेगी तो किसानों से इन्हें कौन खरीदेगा? इस बात का पूरा खतरा है कि यह योजना किसानों के लए संकट पैदा कर देगी। अकाली दल कहता है कि यह अधकचरी व्यवस्था है। पंजाब देश को तकरीबन आधा अनाज देता है, जबकि हमारे यहाँ पूरे देश की आबादी का 1.5 फीसदी हिस्सा ही है। इससे बेहतर हमारी ‘आटा-दाल’ स्कीम है जो हम सन 2007 से चला रहे हैं। आप प्रति व्यक्ति पाँच किलो अनाज देने की योजना बना रहे हैं, जबकि हम 16 लाख परिवारों को 35 किलो गेहूँ और 4 किलो दाल दे रहे हैं। जब हम गरीबों को 5,000 करोड़ रुपए का सब्सिडी देते हैं तो केन्द्र सरकार को दिक्कत होती है। अब खुद दो लाख करोड़ की सब्सिडी की लेकर आ गए हैं।
साठ के दशक में एक दौर ऐसा था जब अनाज और चीनी के लिए देश का काफी बड़ा तबका इस प्रणाली पर आश्रित था। एक पूरी पीढ़ी राशन की कतारों में खड़ी होकर बड़ी हुई है। दक्षिण भारत के राज्यों में यह व्यवस्था आज भी चल रही है, पर उत्तर प्रदेश और बिहार में यह व्यवस्था खत्म हो गई। मध्य प्रदेश अपने नागरिकों को सस्ता अनाज दे रहा है और छत्तीसगढ़ ने अपने नब्बे फीसदी नागरिकों को सस्ता अनाज देने की योजना तैयार की है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और ओडीशा में भी सार्वजनिक वितरण प्रणालियाँ काम कर रहीं हैं। मूल रूप में यूपीए से सम्बद्ध राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने सभी नागरिकों को कवर करने वाली योजना बनाई थी। सरकार ने तब इसके आकलन की जिम्मेदारी एक ओर प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स को दी वहीं सी रंगराजन के नेतृत्व वाली प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाह परिषद को भी दी। दोनों की सलाह थी कि सबके लिए सस्ता अनाज तो सम्भव नहीं है। इसके बाद टार्गेटेड ग्रुपों के लिए योजना बनी। जिन ग्रुपों को इस सुविधा का लाभ दिया जाना है उनकी पहचान राज्य सरकारों को करनी है। सन 2009 में एनसी सक्सेना की अध्यक्षता में बने एक ग्रुप का निष्कर्ष था कि 61 फीसदी गरीब लोग बीपीएल सूचियों से बाहर हैं और जो लोग गरीबी की रेखा के 25 फीसदी लोग बीपीएल सूचियों में शामिल हैं। पहले तो टार्गेटेड ग्रुपों के भीतर भी दो ग्रुप बनाए जा रहे थे, पर अध्यादेश में उन्हें एक कर दिया गया है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य ज्याँ द्रेज़ का कहना है कि इस अध्यादेश में लोगों की शिकायतों की सुनवाई की कोई व्यवस्था नहीं है। यानी किसी को खाद्य सुरक्षा नहीं मिले तो वह किससे शिकायत करेगा? पर जो भी है इसे लागू करने के पहले संसद में बहस करके सुधारा जाना चाहिए। इस जल्दबाज़ी के दुष्परिणामों को लेकर मैं परेशान हूँ। केवल चुनावी फायदे के लिए जल्दबाजी करना ठीक नहीं।
राजनीति से बाहर खड़े लोगों की नजरों में यह धन का दुरुपयोग है। इस पैसे को आधार ढाँचा खड़ा करने, बिजली उत्पादन और नागरिक सुविधाओं को बढ़ाने पर लगाना चाहिए ताकि रोजगार बढ़ें। भूख मिटाने का वही रास्ता है। पर लगता है कि राजनीति जनता के पैसे पर ऐश करने का नाम है।
हिन्दू में केशव का कार्टून |
No comments:
Post a Comment