ग्यारहवीं सदी में भारत आए ईरानी विद्वान अल-बिरूनी ने लिखा है कि प्राचीन हिन्दू वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष की अनेक परिघटनाओं की बेहतर जानकारी थी। उन्होंने खासतौर से छठी सदी के गणितज्ञ और खगोलविज्ञानी वराहमिहिर और सातवीं सदी के ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है, जिन्हें वे महान वैज्ञानिक मानते थे। इन विद्वानों को इस बात का ज्ञान था कि सूर्य और चन्द्र ग्रहण क्यों लगते हैं। वराहमिहिर की पुस्तक वृहत्संहिता में इस बात का हवाला है कि चन्द्र ग्रहण पृथ्वी की छाया से बनता है और सूर्य ग्रहण चन्द्रमा के बीच में आ जाने के कारण होता है। साथ ही यह भी लिखा था कि काफी विद्वान इसे राहु और केतु के कारण मानते हैं।
अल-बिरूनी ने वराहमिहिर की संहिता से उद्धरण दिया है,‘ चन्द्रग्रहण तब होता है, जब चन्द्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश कर जाता है और सूर्य ग्रहण तब होता है जब चन्द्रमा सूर्य को ढँक कर हमसे छिपा लेता है। यही कारण है कि न तो चन्द्र ग्रहण कभी पश्चिम से परिक्रमा करता है और न सूर्य ग्रहण पूर्व से। लेकिन जन-साधारण जोर-शोर से यह मानता है कि राहु का शिर ही ग्रहण का कारण है।’ इसके बाद वराह मिहिर ने लिखा है, ‘यदि शिर उभर कर नहीं आता और ग्रहण का कारण न बनता तो ब्राह्मणों के लिए अनिवार्य रूप से उस समय स्नान का विधान न किया जाता।’ अल-बिरूनी को वराहमिहिर की यह बात अजीब लगी, पर उसने इसका कारण यह माना कि शायद वह ब्राह्मणों का पक्ष लेना चाहता था, जो वह खुद भी था।
वराहमिहिर से तकरीबन सौ साल बाद ब्रह्मगुप्त ने लिखा,’कुछ लोगों का मत है कि ग्रहण का कारण शिर नहीं है, किन्तु यह विचार मूर्खतापूर्ण है...संसार के जन-साधारण का कहना है कि ग्रसित करने वाला शिर ही है। वेद में, जो ब्रह्मा के मुख से निकली भगवद्वाणी है, कहा गया है कि शिर ही ग्रसित करता है।’ वराहमिहिर, श्रीषेण, आर्यभट और विष्णुचन्द्र मानते थे कि यह छाया है। अल-बिरूनी ने इसके बाद लिखा है, ‘मेरा तो यही विश्वास है कि जिस बात ने ब्रह्मगुप्त से उपरोक्त शब्द कहलाए(जिनमें अंतरात्मा के विरुद्ध पाप का भाव निहित है) उसमें कोई भयंकर विपत्ति रही होगी। कुछ वैसी ही जिसका सामना सुकरात को करना पड़ा था।’ ब्रह्मगुप्त विलक्षण वैज्ञानिक था, पर शायद वह परम्परागत ब्राह्मण-विचार का सामना नहीं कर पाया। वराहमिहिर को अपनी पूरी बात कहने का मौका मिल गया था। पर उनके बाद दबाव इतना पड़ा कि ब्रह्मगुप्त को सब कुछ जानते हुए भी अवैज्ञानिक बात कहनी पड़ी। ब्रह्मगुप्त ने वेद को ईश्वर की वाणी कहकर उस पर बहस का रास्ता बन्द कर दिया।
दुनिया के दूसरे समाजों की तरह भारतीय समाज में भी वैज्ञानिकता, तर्क और विचार का टकराव अवैज्ञानिकता और विचारहीनता से होता रहा। फर्क यह है कि यूरोप ने रिनैसां या जागरण काल में ज्ञान-विज्ञान को अपनी विकास-यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण आधार बनाया और हम दूसरी बातों में खो गए। हमने वैज्ञानिकता और विचार पर आस्था को हावी होने दिया। यूरोप ने भी सुकरात, गैलीलियो और ब्रूनी की सच्ची बातों को मंज़ूर नहीं किया। इसके बावजूद यूरोप में वैज्ञानिक क्रांति हुई जिसने औद्योगिक-क्रांति का रास्ता तैयार किया। हम ऐसा नहीं कर पाए। तकरीबन ऐसी ही शिकायत इस्लामी दुनिया से की जा सकती है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में एके रामानुजन के लेख ’थ्री हंड्रेड रामायणास’ को इतिहास के कोर्स से हटाए जाने को लेकर कुछ लोगों के बीच चर्चा चल रही है। रामकथा केवल भारत में ही नहीं, पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में बेहद लोकप्रिय है। इस कथा के अनेक रूप हैं। वाल्मीकि और तुलसी की रामकथा में ही अनेक अंतर हैं। राम की ऐतिहासिकता को लेकर तमाम सवाल हैं। रामानुजन का लेख ऐतिहासिकता पर भी नहीं है। उसमें कई तरह की रामकथाओं का विवरण मात्र है। सारे विवरण वैसे ही नहीं हैं जैसी उत्तर भारत में राम की छवि है। बहरहाल यह बहस जल्द ठंडी पड़ जाएगी, पर यह सवाल शेष रह जाएगा कि महत्वपूर्ण क्या है-आस्था या वैज्ञानिकता?
इस बात को अक्सर लोग दूसरे तरीके से रखते हैं। आस्था को सबसे पहले धर्म से जोड़ा जाता है। धर्म का रिश्ता नैतिकता से जोड़कर उसे पवित्र और वैज्ञानिकता को तकनीक से नत्थी करके उसे विनाश का पर्याय मान लिया जाता है। धर्म और विज्ञान दोनों नज़रियों से बात इतनी सरल नहीं है। एक ज़माने तक धर्म और विज्ञान के सवाल एक ही थे। यानी यह संसार क्या है, सृष्टि क्या है, इसे बनाने वाला कौन है वगैरह-वगैरह जैसे सवाल। इनके जवाब ढूँढते-ढूँढते ही विज्ञान का विकास हुआ। किसी भी अवधारणा को परीक्षण की कसौटी पर रखकर उसे स्वीकार या अस्वीकार करना विज्ञान का एक लक्षण है। हाल में प्रकाश की गति को लेकर नई जानकारियाँ सामने आईं हैं। प्रयोगशालाओं के आँकड़े प्रकाशित हुए है। विश्व का वैज्ञानिक समुदाय इस पर विचार कर रहा है। अभी यह विचार के स्तर पर है। इसके किसी भी सिद्धांत को वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कोई फाइनल थ्योरी नहीं बनी है। वह तभी बनेगी जब तथ्य उसे पुष्ट करेंगे। विज्ञान किसी बात को ब्रह्म वाक्य या ईश्वरीय आदेश नहीं मानता। धर्म की प्रकृति दूसरी है।
जब धर्म विकसित हो रहे थे, तब उन्हें अमानवीयताओं, अनैतिकताओं और अन्याय का सामना करना पड़ा था। दुनिया का हर धर्म न्यायप्रिय, मनुष्य मात्र का हितैषी और कल्याणकारी है इसीलिए नैतिक है। पर नैतिकता कहाँ से आई? क्या यह धर्मों ने दी? ऐसा था तो मध्य युग में धर्मों और सम्प्रदायों को लेकर इतना खून-खराबा क्यों हुआ? सारी दुनिया का सर्जक एक है तो अलग-अलग नाम वाले और अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले ईश्वर क्यों हैं? और उन ईश्वरों की वाणी को परिभाषित करने वाले व्यक्ति ईश्वर से भी ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों हैं? ऑफीशियल धर्म के साथ पूरी एक व्यवस्था और उसके कारिन्दे जुड़े हैं। वैसे ही जैसे राज-व्यवस्था के होते हैं। एक दौर तक धर्मों की राज-व्यवस्था थी। आधुनिक राज-व्यवस्था का सेक्यूलर स्वरूप अपेक्षाकृत देर से सामने आया। पर धर्म और राज्य का टकराव खत्म नहीं हुआ है। पाकिस्तान में जो हो रहा है वह ऐसा ही संकट है। आधुनिक राज-व्यवस्था पवित्र है और धर्म अपवित्र ऐसा भी नहीं है। पवित्रता-अपवित्रता वैश्विक और सनातन मूल्य हैं। ये समूची इंसानियत को प्रभावित करते हैं। इनके बाबत बात तभी हो सकती है, जब आस्थाओं के दबाव कम हों। ये दबाव जहाँ भी होंगे, अमानवीय होंगे।
रामानुजन के लेख के समर्थक और विरोधी आंशिक रूप से सही हैं। संस्कृति और आस्थाओं का अपना महत्व है। सवाल इरादों का है। क्या हम किसी को टार्गेट कर रहे हैं? आधुनिक विचार आस्थाओं की अनुमति देता है। पर उच्च शिक्षा, विचार और ज्ञान के केन्द्रों की ज़रूरत भी है। उदारता एक सामूहिक विचार है। उदारीकरण माने नई आर्थिक नीतियाँ नहीं। वैचारिक उदारीकरण और ज्ञान-विज्ञान में हम शून्य की ओर बढ़ रहे हैं। तो यह कैसा उदारीकरण है? हाल में प्रशांत भूषण पर हुए हमले का सार यही था कि हमारे विचार के खिलाफ गए तो तुम्हारी खैर नहीं। रामानुजन के लेख पर चर्चा के दौरान यह बात उठी कि हिन्दू धार्मिक प्रतीकों के बारे में लिखना-बोलना आसान है। दूसरों के बारे में बोल कर देखें। बेशक तर्क-विवेक और वैज्ञानिकता को कायम करने के लिए साहस की ज़रूरत है। अक्सर कुछ वैज्ञानिक तथ्यों का हवाला देकर अपने धर्म को प्रगतिशील साबित करने की कोशिश होती है। पर यह रास्ता एक जगह जाकर बन्द होता है।
कट्टरता और संकीर्णता पाशविक शक्ति पर यकीन करती हैं। वे हिंसा के सहारे अपनी बात मनवाती हैं। पर एक अर्ध शिक्षित, अर्ध जागरूक समाज में विवेकशीलता और विमर्श कहाँ से आएगा? जिस रंगीन संस्कृति को हम आधुनिकता मान रहे हैं, वह भी एक अर्थ में जबरन अपनी बात मनवाती है। उसके पीछे पैसे की ताकत है। एक दौर में सामाजिक विचार धर्म से निकलते थे। अब पूँजी से निकलते हैं। हमारे समाज की ज़रूरत पूरी करने वाले विचार हमारे बीच से ही निकलेंगे। इसलिए पहले ऐसा हालात बनाने की ज़रूरत है जहाँ लोग विचार कर सकें और उन्हें बगैर डरे व्यक्त करें। जनवाणी में प्रकाशित
हमारा प्राचीन ज्ञान तो पंडावाद की भेंट चढ़ गया|रही सही कसर संस्कृत का हमें ज्ञान नहीं होने के चलते पूरी हो गयी|
ReplyDeleteGyan Darpan
RajputsParinay
एक दौर में सामाजिक विचार धर्म से निकलते थे। अब पूँजी से निकलते हैं। हमारे समाज की ज़रूरत पूरी करने वाले विचार हमारे बीच से ही निकलेंगे। इसलिए पहले ऐसा हालात बनाने की ज़रूरत है जहाँ लोग विचार कर सकें और उन्हें बगैर डरे व्यक्त करें।
ReplyDeleteपूर्ण सहमति आपसे !!