स्टीव जॉब्स इस दौर के के श्रेष्ठतम उद्यमियों में से एक थे, पर भारत के लोगों से उनका परिचय बहुत ज्यादा नहीं था। एपल के उत्पाद भारत में बहुत प्रचलित नहीं हैं, पर भारतीय मीडिया ने उनके निधन पर जो कवरेज की उससे लगता था कि हम प्रतिभा की कद्र करना चाहते हैं। पर हिन्दी के किसी अखबार में फॉर्मूला-1 की रेस के उद्घाटन की खबर टॉप पर हो और श्रीलाल शुक्ल के निधन की
छोटी सी खबर छपी हो तो बात समझ में आती है कि दुनिया बदल चुकी है। जिस कॉलम में श्रीलाल शुक्ल की खबरहै उसके टॉप की खबर है
नताशा के हुए गंभीर।
श्रीलाल शुक्ल को हाल में ज्ञानपीठ पुरस्कार न मिला होता तो शायद मीडिया को उनका इतना खयाल भी न होता। एक दौर तक हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकारों के निधन की खबरें या तो लीड होती थीं या कहीं ऊपर अच्छी जगह पर छपतीं थीं। खबरों का चुनाव पाठक नहीं करता। सम्पादक करते हैं। कम से कम अपने शहर के साहित्यकारों को तो अखबार इतना याद रखते ही हैं। श्रीलाल शुक्ल के निधन की खबर को मैने आज लीड या टॉप खबर के रूप में दो अखबारों में देखा। एक लखनऊ के
जनसंदेश टाइम्स में और दूसरे रांची के
प्रभात खबर में।
प्रभात खबर ने अपने सम्पादकीय पेज में
विश्वनाथ त्रिपाठी का लेख प्रकाशित किया है और सम्पादकीय भी लिखा है। आज
अमर उजाला ने भी
श्रीलाल जी पर सम्पादकीय लिखा है।
हिन्दुस्तान में सम्पादकीय पेज पर
वीरेन्द्र यादव का लेख छपा है।
भास्कर ने सम्पादकीय पेज पर एक पुस्तक में पूर्व प्रकाशित
नामवर सिंह का लेख छापा है।
राजस्थान पत्रिका ने अपने सम्पादकीय पेज पर
उदय प्रकाश का
लेख छापा है। हिन्दी के अखबारों से बेहतर कवरेज अंग्रेजी में दिल्ली के
मेल टुडे ने
मृणाल पांडे का
लेख छापकर की है।
जो कुछ भी है उसके आधार पर इस कवरेज को कमोबेश संतोषजनक मान भी लें, पर एक सवाल दिमाग में ज़रूर आता है कि कवरेज तय कैसे होती है? फॉर्मूला-1 की कार रेस को हमारे देश में कितने लोग जानते हैं? फिर भी कम से कम दो दशक से अखबारों के खेल पन्नों पर यह खबर और उससे जुड़ी तस्वीरें छाई रहती हैं। क्यों? क्या पाठक ने कहा है?
पिछली सदी में नब्बे के दशक में हमारे यहाँ अचानक विश्व सुन्दरियों ने जन्म लेना शुरू कर दिया। क्या वह सहज बात थी? कॉज़्मेटिक उद्योग ने भारत में अपने पैर पसारने के लिए तय किया कि अब भारत की बारी है। अब फॉर्मूला रेस की बारी है। देश की गरीबी का रोना रोने वालों की ओर ध्यान न भी दें, पर क्या फॉर्मूला रेस हमें किसी किस्म की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति दिलाएगी? ऑटोमोबाइल उद्योग हजारों-लाखों लोगों को रोजगार दिलाएगा। पर उसका खेल एक अलग कारोबार है। विजय माल्या जैसे लोग उसके
प्रशंसक हैं। और उनके आदेश शिरोधार्य करने को तत्पर हैं सम्पादक।
अखबारों के पहले सफे देखें तो वे असलियत बयान नहीं करते, बल्कि वे एक आरोपित और गिलगिली व्यावसायिकता को दिखाते हैं। सम्पादकीय पेजों के बहाने वे कुछ संज़ीदा बातें कहने की अधकचरी कोशिश करते हैं। बहरहाल श्रीलाल शुक्ल को कुछ लोग व्यंग्य लेखक मानते हैं। उन्होंने वह लिखा जो सामने नज़र आया।अपने आसपास को देखें तो मुस्कराने की तमाम वे वजहें आज अपने अखबारों में मौजूद हैं जो श्रीलाल जी के शिवपालगंज में थीं। बहरहाल आज के कुछ अखबारों की तस्वीरें देखें, जो इंटरनेट के सहारे मिली हैं।
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जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के पहले पेज पर यह खबर ही नहीं है |
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रफ्तार के साथ दैनिक भास्कर। सबसे नीचे की सिंगल कॉलम खबर श्रीलाल शुक्ल की है। |
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मेल टुडे में मृणाल पांडे का लेख |
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हिन्दुस्तान में वीरेन्द्र यादव का लेख |
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प्रभात खबर का सम्पादकीय पेज |
हिंदुस्तान मे वीरेंद्र यादव जी का लेख हमने भी पढ़ा है बाकी आपने पढ़वा दिये। हमारे देश मे 'समाज का दर्पण'-साहित्य उपेक्षित है खास तौर पर हिन्दी साहित्य और इसी वजह से अखबारों ने उतना महत्व नहीं दिया है । बाकी बातों का खुलासा आपने खुद ही कर दिया है।
ReplyDeleteअपने साहित्य के माध्यम से श्री लाल शुक्ल जी अमर हैं। उन्हे श्रद्धा सुमन।
श्रीलाल जी से संबंधित खबर का प्रकाशन नई दुनिया अखबार में अच्छी तरह से किया गया है। उसे आप शायद भूल गए। उसका लिंक यहां मैं दे रहा हूं। कृपया इसे भी देखें।
ReplyDeletehttp://www.naidunia.com/epapermain.aspx
पंकज जी मैने नई दुनिया का पहला पेज भी अपनी पोस्ट के साथ लगा दिया है। नई दुनिया ने पहले पेज पर दो कॉलम की खबर दी है। दूसरी सम्पादकीय टिप्पणी श्रीलाल जी पर है और दूसरा लेख उनपर है। यह सम्पादकीय विवेक है और काफी सामग्री है। पर मुझे लगता है कि इंग्लैंड या अमेरिका में श्रीलाल जी के कद-काठी के लेखक का निधन होता तो वह दूसरी या तीसरी खबर नहीं होती। पहली खबर होती और उसपर हर तरह के मीडिया पर चर्चा होती।
ReplyDeletekoi nai baat nahi hai, ab aage to yah aur bhi tej gati se hota rahega. akhir kaun rokega farmula 1 ke race ko. Srilal shukla ko yaad karne wale bhi aane wale dino me shayad hi bachen. aise me akhabaron se hame ummid bhi nahi karani chahiye, kyonki akhabar bhi farmula 1 race ke hath me honge.
ReplyDeletesanjay pati tiwari
आज जब अखबारों की स्तरीयता के सामने न्यूज़ चैनल को बेहद सतही समझा जाता है, मुझे खुशी है कि हमारे चैनल ज़ी न्यूज़ उत्तरप्रदेश पर हमने श्रीलाल शुक्ल को आधे घंटे का ख़ास प्रोग्राम में याद किया,...चित्रा मुद्गल और मुद्राराक्षस इसमें मेहमान थे। आज आपके विश्लेषण से अपने को जोड़ते हुए एक आत्मसंतुष्टि ज़रुर होती है।
ReplyDeleteपढ़कर प्रिंट मीडिया का स्तर और एक बहुत बड़ा सच सामने आ जाता है साथ ही संपादकों कि प्राथमिकता भी. फिर भी इस अद्वितीय रचनाकार को जिसने किसी भी रूप में भावांजलि दी है, हम सभी रचनाकार/ कलाकार हार्दिक धन्यवाद देते हैं.
ReplyDeleteजिस संवेदनशीलता का प्रतिनिधित्व आप कर रहे हैं, व्यावसायिक चेतना के हानि-लाभ के वर्तमान में उसकी ध्वनि नहीं सुनाई देना अब आश्चर्यजनक भी नहीं लगता है। अपने समय में हिंदी समाचार पत्रों व पत्रिकाओं को समृद्ध बनाने वाले श्रीलाल शुक्ल जी से कुछ वर्ष पूर्व दिवंगत रवींद्रनाथ त्यागी (व्यंग्य लेखन में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवींद्रनाथ त्यागी की विख्यात त्रयी) का निधन भी समाचार नहीं बन सका था। ललित कलाओं की मेधा के उपयोग से लोकप्रियता के शिखर छूने वाले प्रकाशकों की इस संवेदनहीनता को कृतघ्नता की श्रेणी में समझने वाले पाठक भी अंततः प्रभावी परिणाम देने में अक्षम प्रतीत होते हैं। ऐसे समय पर आपका विश्लेषण "कुछ नहीं होते हुए" भी बहुत कुछ है। यह प्रकाश ज्ञान का प्रवाह तो करता ही है।सादर प्रणाम के साथ आभार....
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