Monday, September 26, 2011

दिल्ली प्रहसन ...ब्रेक के बाद

कल्पना कीजिए यूपीए-प्रथम के कार्यकाल में नागरिकों को जानकारी पाने का अधिकार न मिला होता तो आज यूपीए-द्वितीय के सामने खड़ी अनेक परेशानियों का अस्तित्व ही नहीं होता। वही अर्जुन और वही बाण हैं। पर गोपियों को लुटने से बचा नहीं पा रहे हैं। इन बातों से आजिज आकर कॉरपोरेट मामलों के मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा है कि आरटीआई पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए, क्योंकि यह कानून स्वतंत्र सरकारी काम-काज में दखलंदाजी को बढ़ावा दे रहा है। यूपीए-द्वितीय की परेशानियाँ इस कानून के कारण बढ़ी हैं या ‘स्वतंत्र सरकारी काम-काज‘ की परिभाषा में कोई दोष है? जिस वक्त यह कानून पास हो रहा था, तबसे अब तक फाइलों की नोटिंग-ड्राफ्टिंग और आधिकारिक पत्रों को आरटीआई के दायरे में रखने को लेकर सरकारी प्रतिरोध में कभी कमी नहीं हुई। सरकारों को स्वतंत्र और निर्भय होकर काम करना चाहिए, इस बात का विरोध किसी ने नहीं किया। पर टीप का बंद यह है कि काम पारदर्शी तरीके से होना चाहिए।


दिल्ली सोप ऑपेरा के चालू एपिसोड को लोग वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और गृहमंत्री पी चिदम्बरम के बीच की लाग-डाँट के रूप में देख रहे हैं। जबकि ऐसा नहीं है। सुब्रहमण्यम स्वामी ने अदालत के सामने वित्त मंत्रालय के पीजीएस राव का जो नोट रखा है उसके आधार पर चिदम्बरम घिरते हैं या नहीं, यह अगले कुछ दिन में स्पष्ट होगा। हाँ इस नोट को और बाकी पत्र-व्यवहार को पढ़ने से यह बात ज़रूर समझ में आती है कि सरकार के अनेक वरिष्ठ नेता स्पेक्ट्रम प्राइसिंग को लेकर आखिरी समय तक गुहार लगाते रहे। इनमें प्रणब मुखर्जी भी थे, जिन्होंने स्पेक्ट्रम आबंटन के पन्द्रह दिन पहले प्रधानमंत्री से निवेदन किया था कि यदि परिस्थितियों को नियंत्रण में नहीं रखा गया तो हर बात काबू से बाहर होगी।

प्रणब मुखर्जी उस ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के अध्यक्ष थे, जिसे स्पेक्ट्रम आबंटन की बारीकियों को तय करने की जिम्मेदारी दी गई थी। इस जिम्मेदारी में से स्पेक्ट्रम प्राइसिंग को हटा लिया गया था। ऐसा करने का निवेदन तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने किया था। 10 जनवरी 2008 को जब 122 लाइसेंस जारी हुए तब दूर संचार मंत्री मारन नहीं ए राजा थे। डीएमके की अंदरूरनी राजनीति के कारण यह बदलाव हुआ था, पर प्राइसिंग का निर्णय दूरसंचार मंत्री के हाथ में ही रखने की अधिसूचना पहले जारी हो चुकी थी। 10 जनवरी के पाँच दिन बाद 15 जनवरी को मंत्रि-समूह की बैठक होनी थी। पर फैसला तो हो चुका था।

टूजी मामले की जाँच सीबीआई चार अलग-अलग काल खंड में कर रही है। पहला है, प्रमोद महाजन (2002-03) का, दूसरा है अरुण शौरी (2003-04) का, तीसरा दयानिधि मारन (2004-07) का और चौथा है ए राजा (2007-10) का दौर। सन 2003 में एनडीए की कैबिनेट ने फैसला किया कि दूरसंचार विभाग और वित्त मंत्रालय मिलकर स्पेक्ट्रम प्राइसिंग फॉर्मूले पर निर्णय करेंगे। 2005 में यूपीए के कार्यकाल में टीआरएआई ने सलाह दी कि प्राइसिंग के दो हिस्से हों। पहला वन टाइम चार्ज और दूसरी वार्षिक शुल्क। तत्कालीन वित्तमंत्री चिदम्बरम भी बेस फी और रिवेन्यू शेयर के पक्ष में थे। बहरहाल फरवरी 2006 में प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में जब जीओएम बनाया गया तब उसे प्राइसिंग समेत सभी पहलुओं पर सलाह देने का काम दिया गया था। पर साल के अंत में यह काम जीओएम के दायरे से बाहर कर दिया गया।

प्राइसिंग तय करने का काम जीओएम को क्यों दिया गया और फिर क्यों उसके अधिकार से बाहर किया गया? इस सवाल के जवाब में सारे पेच हैं। कम्प्यूटर सिस्टम तक में वायरस फैलाने वाले दिमाग अरबों-खरबों की सम्भावनाओं की अनदेखी कैसे कर सकते हैं। माना जाता है कि काम-काज को जितना खुला रखा जाएगा और किसी एक व्यक्ति या शक्ति के विवेकाधीन सारी बातें नहीं होंगी, व्यवस्था उतनी कुशल और जनहितकारी होगी। घोटालों का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना मानव जाति का इतिहास है। सन 1991 के बाद से आर्थिक व्यवस्था में जो बदलाव हुआ, उसकी तार्किक परिणति व्यवस्थागत बदलाव के रूप में भी होनी चाहिए थी। जीप खरीद घोटाला, पिस्तौले-तोपें खरीदने का घोटाला और हर्षद मेहता का शेयर घोटाला व्यवस्था के छिद्रों के कारण हुआ।

दूर संचार-क्रांति अपने साथ और बड़े घोटाले लेकर आई। इसमें कांग्रेस या भाजपा को खोजने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। एनडीए शासन में यूटीआई, केतन पारेख, पेट्रोल पम्प, कफन वगैरह के घोटाले हुए। अभी हो रहे हैं और आने वाले वक्त की कोई गारंटी नहीं है कि वे नहीं होंगे। इधर कोई कह रहा था कि यूपीए के दौर में कम से कम इतना तो हुआ कि मंत्री जेल जा रहे हैं। इसका श्रेय यूपीए को कैसे दे सकते हैं? यूपीए ने शुरू में ए राजा को बचाने की कोशिश की। वे कानूनी पकड़ में तो अदालती कार्रवाई के बाद आए। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने अदालत के सामने जो दस्तावेज रखा वह जानकारी पाने के अधिकार के कारण ही हासिल हो पाया।

सरकारी काम बेहद जटिल होते हैं। पर व्यवस्थानुसार काम हों तो उनमें गड़बड़ियों की गुंजाइश कम होगी। व्यवस्थाओं को भीतर दो तरह के लोग करते हैं। एक जो इसका फायदा उठाना चाहते हैं। दूसरे, जो अनियमितताओं को रोकना चाहते हैं। ह्विसिलब्लोवरों की मदद से व्यवस्था सही रास्ते पर चलेगी। वे नए स्वतंत्रता सेनानी हैं। मोइली साहब आरटीआई पर बहस चाहते हैं। जब आरटीआई कानून बन रहा था, तब हम ड्राफ्टिंग-नोटिंग के महत्व को नहीं जानते थे। आज हम समझते हैं। यह समझदारी ही हमारा सहारा है। इसे बढ़ाने में मदद कीजिए।

2 comments:

  1. अखबार के साथ-साथ यहा पर भी देखना अच्‍छा लगा।

    सटीक चिंतन।

    शायद आपने ब्‍लॉग के लिए ज़रूरी चीजें अभी तक नहीं देखीं। यहाँ आपके काम की बहुत सारी चीजें हैं।

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  2. सारी समस्याओं के मूल मे चारित्रिक गिरावट और पोंगापंथ को धर्म मानने के कारण हैं। पहले जड़ें सम्हालें सब सम्हल जाएगा। परंतु मूल समस्या को छोड़ कर पत्ति-टहनी लेकर रोते रहेंगे तो समस्याएँ और ज्यादा ही बढ़ेंगी।

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